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...पर भरोसा खो बैठेंगे आप!

tiwarishalini
Published on: 8 Sep 2017 12:39 PM GMT
...पर भरोसा खो बैठेंगे आप!
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sanjay dwivedi

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में परिवर्तन कर देश की जनता को यह संदेश देने की कोशिश की है कि वे राजनीतिक संस्कृति में परिवर्तन के अपने वायदे पर कायम हैं। वे यथास्थिति को बदलना और निराशा के बादलों को छांटना चाहते हैं। उन्हें परिणाम पसंद है और इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व से काम न चले तो वे नौकरशाहों को भी अपनी टीम में शामिल कर सकते हैं। भारतीय राजनीति के इस विकट समय में उनके प्रयोग कितने लाभकारी होंगे यह तो वक्त बताएगा, किंतु आम जन उन्हें आज भी भरोसे के साथ देख रहा है। यही नरेंद्र मोदी की शक्ति है कि लोगों का भरोसा उनपर कायम है।

यह भी एक कड़वा सच है कि तीन साल बीत गए हैं और सरकार के पास दो साल का समय ही शेष है। साथ ही यह सुविधा भी है कि विपक्ष आज भी मुद्दों के आधार पर कोई नया विकल्प देने के बजाए मोदी की आलोचना को ही सर्वोच्च प्राथमिकता दे रहा है। भाजपा ने जिस तरह से अपना सामाजिक और भौगोलिक विस्तार किया है, कांग्रेस उसी तेजी से अपनी जमीन छोड़ रही है। तमाम क्षेत्रीय दल भाजपा के छाते के नीचे ही अपना भविष्य सुरक्षित पा रहे हैं। भाजपा के भीतर-बाहर भी नरेंद्र मोदी को कोई चुनौती नहीं है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति के तहत भाजपा के पास एक-एक कर राज्यों की सरकारें आती जा रही हैं। यह दृश्य बताता है कि हाल-फिलहाल भाजपा के विजयरथ को रोकने वाला कोई नहीं है।

संकट यह है कि कांग्रेस अपनी आंतरिक कलह से निकलने को तैयार नहीं हैं। केंद्र सरकार की विफलताओं पर बात करते हुए कांग्रेस का आत्मविश्वास गायब सा दिखता है। विपक्ष के रूप में कांग्रेस के नेताओं की भूमिका को सही नहीं ठहराया जा सकता। हिंदी प्रदेशों में कांग्रेस नेतृत्वहीनता की स्थिति में है। अनिर्णय की शिकार कांग्रेस एक गहरी नेतृत्वहीनता का शिकार दिखती है। इसलिए विपक्ष को जिस तरह सत्ता पक्ष के साथ संवाद करना और घेरना चाहिए उसका अभाव दिखता है।

अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार सिर्फ धारणाओं का लाभ उठाकर कांग्रेस से अधिक नंबर प्राप्त कर रही है। हम देखें तो देश के तमाम मोर्चों पर सरकार की विफलता दिखती है, किंतु कांग्रेस ने जो भरोसा तोड़ा उसके कारण हमें भाजपा ही विकल्प दिखती है। भाजपा ने इस दौर की राजनीति में संघ परिवार की संयुक्त शक्ति के साथ जैसा प्रदर्शन किया है वह भारतीय राजनीति के इतिहास में अभूतपूर्व है। अमित शाह के नेतृत्व और सतत सक्रियता ने भाजपा की सुस्त सेना को भी चाक-चौबंद कर दिया है। कांग्रेस में इसका घोर अभाव दिखता है। गांधी परिवार से जुड़े नेता सत्ता जाने के बाद आज भी जमीन पर नहीं उतरे हैं। उनकी राज करने की आकांक्षा तो है किंतु समाज से जुडऩे की तैयारी नहीं दिखती। ऐसे में कांग्रेस गहरे संकटों से दो-चार है। भाजपा जहां विचारधारा को लेकर धारदार तरीके से आगे बढ़ रही है और उसने अपने हिंदूवादी विचारों को लेकर रहा-सहा संकोच भी त्याग दिया है, वहीं कांग्रेस अपनी विचारधारा की दिशा क्या हो? यह तय नहीं कर पा रही है। पं. नेहरू ने अपने समय में जिन साम्यवादियों के चरित्र को समझ कर उनसे दूरी बना ली, किंतु राहुल जी आज भी ‘अल्ट्रा लेफ्ट’ ताकतों के साथ खड़े होने में संकोच नहीं करते। एंटोनी कमेटी की रिपोर्ट कांग्रेस के वास्तविक संकटों की ओर इशारा करती है। ऐसे में नरेंद्र मोदी के अश्वमेघ के अश्व को पकडऩे वाला कोई वीर बालक विपक्ष में नहीं दिखता। बिहार की नितीश कुमार परिघटना ने विपक्षी एकता को जो मनोवैज्ञानिक चोट पहुंचाई है, उससे विपक्ष अभी उबर नहीं पाएगा। विपक्ष के नेता अपने आग्रहों से निकलने को तैयार नहीं हैं, न ही उनमें सामूहिक नेतृत्व को लेकर कोई सोच दिखती है।

इस दौर में नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों को यह सोचना होगा कि जब देश में रचनात्मक विपक्ष नहीं है, तब उनकी जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता से जो वादे किए, उस दिशा में सरकार कितना आगे बढ़ी है? खासकर रोजगार सृजन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष के सवाल पर। महंगाई के सवाल पर। लोगों की जिंदगी में कितनी राहतें और कितनी कठिनाईयां आई हैं। इसका हिसाब भी उन्हें देना होगा। राजनीति के मैदान में मिलती सफलताओं के मायने कई बार विकल्पहीनता और नेतृत्वहीनता भी होती है। कई बार मजबूत सांगठनिक आधार भी आपके काम आता है। इसका मतलब यह नहीं कि सब सुखी और चैन से हैं और विकास की गंगा बह रही है। राजनीति के मैदान से निकले अर्थों से जनता के वास्तविक जीवन का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। इसमें दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री अनथक परिश्रम कर रहे हैं। अमित शाह दल के विस्तार के लिए अप्रतिम भूमिका निभा रहे हैं। किंतु हमें यह भी विचार करना होगा कि आप सबकी इस हाड़ तोड़ मेहनत से क्या देश के आम आदमी का भाग्य बदल रहा है? क्या मजदूर, किसान, युवा-छात्र और गृहणियां, व्यापारी सुख का अनुभव कर रहे हैं? देश के राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव के बाद जनता के भाग्य में भी परिर्वतन होता दिखना चाहिए। आपने अनेक कोशिशें की हैं, किंतु क्या उनके परिणाम जमीन पर दिख रहे हैं, इसका विचार करना होगा। देश के कुछ शहरों की चमकीली प्रगति इस महादेश के सवालों का उत्तर नहीं है। हमें उजड़ते गांवों, हर साल बाढ़ से उजड़ते परिवारों, आत्महत्या कर रहे किसानों के बारे में सोचना होगा। उस नौजवान का विचार भी करना होगा जो एक रोजगार के इंतजार में किशोर से युवा और युवा से सीधे बूढ़ा हो जाएगा। इलाज के अभाव में मरते हुए बच्चे एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। अपने बचपन को अगर हमने इतना असुरक्षित भविष्य दिया है तो आगे का क्या। ऐसे तमाम सवाल हमारे समाज और सरकारों के सामने हैं। राजनीतिक -प्रशासनिक तंत्र का बदलाव भर नहीं उस संस्कृति में बदलाव के लिए 2014 में लोगों ने मोदी पर भरोसा जताया है। वह भरोसा कायम है... पर दरकेगा नहीं ऐसा नहीं कह सकते। सरकार के नए सिपहसलारों को ज्यादा तेजी से परिणाम देने वाली योजनाओं पर काम करने की जरूरत है। अन्यथा एक अवसर यूं ही केंद्र सरकार के हाथ से फिसलता जा रहा है। इसमें नुकसान सिर्फ यह है कि आप चुनाव तो जीत जाएंगे पर भरोसा खो बैठेंगे।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

tiwarishalini

tiwarishalini

Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

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