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मकर संक्रांति के बाद भाजपा में शामिल होंगे मरांडी, बड़ा पद देने की तैयारी

मरांडी की पार्टी में वापसी गृह मंंत्री और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की मौजूदगी में होगी। हाल-फिलहाल तक जगह तय नहीं हो पार्ई है। रांची और दुमका के नाम पर विचार चल रहा है। बाबूलाल मरांडी झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन द्वारा रिक्त की गई दुमका सीट से विधानसभा का उपचुनाव भी लडऩा चाहते हैं,

Shivakant Shukla
Published on: 11 Jan 2020 2:17 PM IST
मकर संक्रांति के बाद भाजपा में शामिल होंगे मरांडी, बड़ा पद देने की तैयारी
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योगेश मिश्र

लखनऊ: सूर्य के उत्तरायण में आते ही भारतीय जनता पार्टी के लिए एक बड़ी खुशखबरी होगी। आदिवासियों के बड़े नेता बाबू लाल मरांडी घर वापसी करने वाले हैं। उन्हें पार्टी में महासचिव बनाए जाने की तैयारी है। पार्टी मरांडी को बड़े आदिवासी नेता के रूप में प्रोजेक्ट करने का खाका भी तैयार कर चुकी है। इसके लिए मरांडी अपने जनवादी विकास मोर्चा (जेवीएम) का बाकायदा भाजपा में विलय करेंगे।

शाह की मौजूदगी में होगी वापसी

मरांडी की पार्टी में वापसी गृह मंंत्री और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की मौजूदगी में होगी। हाल-फिलहाल तक जगह तय नहीं हो पार्ई है। रांची और दुमका के नाम पर विचार चल रहा है। बाबूलाल मरांडी झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन द्वारा रिक्त की गई दुमका सीट से विधानसभा का उपचुनाव भी लडऩा चाहते हैं, हालांकि वह वर्तमान विधानसभा में भी विधायक हैं। मरांडी को पार्टी में वापस लाने की कोशिश बहुत दिनों से चल रही थी। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में यह कोशिश परवान नहीं चढ़ पाई। अब जब भाजपा के हाथ से झारखंड निकल गया तब बाबूलाल मरांडी को वापस लेने के अलावा कोई चारा नहीं बचा।

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पार्टी का महासचिव बनाने की तैयारी

अब तक तय कार्यक्रम के मुताबिक बाबूलाल मरांडी को भले ही पार्टी महासचिव बनाने का फैसला किया गया हो, लेकिन उन्हें झारखंड में नेता प्रतिपक्ष तथा पार्टी अध्यक्ष का पद देने की भी बात हुई है। सूत्रों की माने तो मरांडी के सामने केन्द्र सरकार में मंत्री बनने का प्रस्ताव भी रखा गया है,जो उन्हें पसंद नहीं है।

आदिवासियों को भाजपा से जोड़ेंगे मरांडी

मरांडी की रणनीति देश भर में दौरे करके आदिवासियों को भाजपा से जोडऩे की है। यही नहीं, भारतीय जनता पार्टी के लिए पश्चिम बंगाल चुनाव के मददेनजर मरांडी की जरूरत सरकार से अधिक पार्टी में है। उन्हें पश्चिम बंगाल चुनाव की कमान भी दी जाएगी। झांरखंड और पश्चिम बंगाल की लम्बी सीमा एक-दूसरे से मिलती है। ऐसे में बाबूलाल मरांडी अपने दौरों से झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दोनों के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं। मरांडी फिलहाल देश से बाहर हैं। 14 जनवरी को स्वदेश लौटने के बाद उनकी पार्टी और भाजपा में विलय का औपचारिक एलान कर दिया जाएगा।

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सीएम व केंद्रीय मंत्री रहे हैं मरांडी

झारखंड राज्य जब बिहार से अलग होकर बना था। तब उसके पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी बने थे। मरांडी 15 नवम्बर, 2000 से 17 मार्च, 2003 तक झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे। अटल बिहारी बाजपेयी सरकार में वे दो बार केन्द्रीय राज्यमंत्री रहे। उन्होंने पर्यावरण और वन महकमा देखा। बाबूलाल मरांडी भाजपा में आदिवासियों के बड़े चेहरे थे। 2004-14 तक वह कोडरमा से लोकसभा के सदस्य रहे। वे 1998 से 2002 तक दुमका लोकसभा सदस्य रहे। दुमका मूलत: आदिवासी बहुल इलाका है। मरांडी की रणनीति के मुताबिक उन्हें दुमका में ही भाजपा में अपनी पार्टी का विलय कराया जाना चाहिए। दुमका से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन चुनाव लड़े थे। दो जगह से चुनाव लडऩे की वजह से उन्होंने दुमका सीट से इस्तीफा दे दिया।

सोरेन को चुनौती देंगे मरांडी

मरांडी की कोशिश इस सीट पर दोबारा विधानसभा चुनाव लडऩे की है ताकि इसे जीतकर खुद को एक बड़े नेता के रूप में स्थापित करने के साथ ही साथ सोरेन की सरकार को चुनौती दे सकें। 2006 में जब मरांडी ने भाजपा छोडक़र झारखंड विकास मोर्चा बनाया था, तब भाजपा से टूटकर पांच विधायक उनके साथ आए थे। 2009 में वह झारखंड विकास मोर्चा से सांसद बने थे। पिछले साल सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में बाबूलाल मरांडी की पार्टी को 5.45 लाख वोट हाथ लगे और दो विधायक जीते हैं। जबकि भाजपा के कोटे में 33.37 फीसदी वोट गए। 2014 के विधानसभा चुनाव में मरांडी की पार्टी को 9.99 फीसदी वोट और दो सीटें मिली थीं जबकि भाजपा को 31.26 फीसदी वोट पर संतोष करना पड़ा। इस चुनाव में भाजपा ने सरकार बनाई थी।

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47 सीटों पर आदिवासी निर्णायक

देश में आदिवासियों की तादाद 8.6 फीसदी है। 2011 की जनगणना के मुताबिक यह संख्या 10 करोड़ 40 लाख के आसपास बैठती है। आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और उड़ीसा, बंगाल, उत्तर पूर्वी राज्य तथा अंडमान निकोबार में आदिवासी बसते हैं। देश की 47 लोकसभा सीटों पर आदिवासी वोटों के बिना जीत दर्ज करा पाना मुश्किल है। यह 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित भी हैं, जबकि अनुसूचित जाति के लिए 84 सीटें आरक्षित हैं।



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