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कार्टूनों से कुछ कम हुई चुनावी कड़वाहट, मुद्दों पर पकड़ बरकरार
श्यामल ने कहा, 'हो भी क्यों ना। इस बार के चुनाव में राजनीतिक बयानबाजी और आरोप-प्रत्यारोप का नया स्वरूप नजर आया, जिसमें बुआ-बबुआ से लेकर चौकीदार और चाय वाला, नामदार और शहजादी तक ना जाने क्या क्या कहा गया। विश्वास, हमला, निशाना, व्यंग्य, ताना, विवाद के इन तमाम रंगों को कार्टूनों ने नयी दिशा देकर राजनीतिक उत्सव को आकर्षक ही नहीं बनाया बल्कि जो तल्खी पैदा हो गयी थी, उसे कम करने में भी अहम भूमिका निभायी।'
लखनऊ: लोकसभा चुनाव में इस बार प्रचार के तमाम रंग नजर आए ... सोशल मीडिया से लेकर टीवी चैनल और अखबारों से लेकर पत्रिकाओं तक 'कार्टूनों' ने आक्रामक चुनावी व्यंग्य, बयानबाजी, भाषण और आरोप-प्रत्यारोप को जबर्दस्त धार देने के साथ ही चुनावी दंगल में शब्दों की गरिमा गिरने के बावजूद 'लक्ष्मण-रेखा' पार करने से परहेज किया और इस तरह से चुनावी कड़वाहट को कम किया।
कार्टूनिस्ट एन श्यामल ने 'भाषा' से बातचीत में कहा, 'एक जमाने में कटाक्ष की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम रहे कार्टून मानो इलेक्ट्रानिक मीडिया की चकाचौंध में खो गये लेकिन इस बार तो चुनावों में कार्टूनों ने जमकर धमाल मचाया।'
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उन्होंने कहा, 'राजनीतिक हस्तियों की बयानबाजी, अभिव्यक्ति और उनसे जुडे संवाद, वाद-विवाद, हास-परिहास और राजनीतिक मंच से जुडे हर पहलू को कार्टून किरदारों ने गहरे तक छुआ।'
श्यामल ने कहा, 'हो भी क्यों ना। इस बार के चुनाव में राजनीतिक बयानबाजी और आरोप-प्रत्यारोप का नया स्वरूप नजर आया, जिसमें बुआ-बबुआ से लेकर चौकीदार और चाय वाला, नामदार और शहजादी तक ना जाने क्या क्या कहा गया। विश्वास, हमला, निशाना, व्यंग्य, ताना, विवाद के इन तमाम रंगों को कार्टूनों ने नयी दिशा देकर राजनीतिक उत्सव को आकर्षक ही नहीं बनाया बल्कि जो तल्खी पैदा हो गयी थी, उसे कम करने में भी अहम भूमिका निभायी।'
कार्टूनिस्ट एवं समीक्षक सुची हैदर ने कहा कि इस बार फेसबुक और टि्वटर सहित सोशल मीडिया पर कार्टूनों की इतनी बौछार हुई, जितनी शायद पहले कभी नहीं हुई थी।
उन्होंने कहा, 'और तो और राजनीतिक पार्टियों की वेबसाइट, टि्वटर हैण्डल और फेसबुक वाल पर कार्टूनों के माध्यम से वार और पलटवार किये गये। हास्य-व्यंग्य की इस विधा ने चुनावों को मजेदार बना दिया और इसे लेकर लोगों, खासकर युवाओं में उत्साह रहा, जो सोशल मीडिया पर ऐसे कार्टूनों पर उनकी प्रतिक्रिया के रूप में देखने को मिला।'
व्यंग्यकार देवव्रत ने कहा कि लेखनी को धार कार्टून के जरिए ही मिलती है। लिखे गये कथन के साथ यदि कार्टून के रूप में चित्र भी हो तो मामला दमदार बन जाता है। इन चुनावों में यह साफ नजर आया। जहां बयानबाजी-जुमलेबाजी, राग-द्वेष, कटाक्ष कार्टूनों की भाषा बन गये, वहीं कार्टून राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए संवाद का उत्कृष्ट माध्यम बन गये।
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि भाजपा के विकास की बात हो, अली-बजरंगबली हो, बुआ-बबुआ हो, चौकीदार चोर है का विवाद हो, फिर एक बार मोदी सरकार का जयघोष हो या फिर कमल, हाथ, साइकिल, हाथी जैसे राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह हों, कार्टूनों ने सबको भाषा दी।
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देवव्रत ने बताया कि अब आर के लक्ष्मण और सुधीर तैलंग सरीखे इशारों में गंभीर कटाक्ष करने वाले कार्टूनिस्टों की कमी अखरती है लेकिन अपने इन्हीं वरिष्ठों की विरासत को कई युवा कार्टूनिस्टों ने बखूबी संभाल रखा है और उनका उपयोग इन चुनावों में भरपूर हुआ है। कुछ एक के कार्टून तो यादगार बन गये और सोशल मीडिया पर लाखों की तादाद में शेयर किये गये।
उन्होंने कहा कि इनमें साइकिल पर बैठा हाथी, अखिलेश की नाक को टोंटी और सूंड का आकार देना, चुनाव परिणामों के बीच 'बादल' आ जाना, गैर भाजपा दलों का एक बस पर सवार होकर दिल्ली की ओर कूच करते दिखाना, अच्छे दिन, गब्बर सिंह टैक्स, नोटबंदी, नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे उद्योगपतियों के देश छोड़ जाने, राफेल सौदे को लेकर लगाये गये आरोपों पर केन्द्रित तमाम कार्टूनों ने लोगों को गुदगुदाया भी और सोचने पर मजबूर भी किया।