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आपातकाल की बरसी पर विशेष! युवा भारत की स्वाधीनता पर सबसे बड़ा हमला
प्रस्तुति : संजय तिवारी
स्वाधीन भारत में अब से ठीक 41 वर्ष पूर्व देश में जो कुछ घटा वह फिर कभी न घटे। भारत में इमरजेंसी देख चुकी और भोग चुकी पीढ़ी तो अब बूढ़ी हो चली है। वर्तमान युवा भारत को उस यातना और संघर्ष का तो आभास भी नहीं हो सकता। उस समय देश ने जो कुछ झेला वह बयान करना बहुत कठिन है। 25 जून सन 1975 की आधी रात का वह मंजर।
सुबह हुई तो देश के बहुत से अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठ काले कर दिए गए थे या सादे पड़े थे। मात्र अट्ठाइस वर्ष के नौजवान स्वाधीन भारत को भारत की ही सरकार ने गुलाम बना लिया था। अंग्रेजो से लड़कर देश को आज़ाद कराने वाली पीढ़ी के बहुत से खम्भे अभी सही सलामत जान वाले थे इस लिए इमरजेंसी के जरिये तानाशाह बन जाने वाली श्रीमती इंदिरागांधी को उन्होंने ठीक से जवाब दिया था। देश की सारी जेलों में जिस तरह से इंदिरा सरकार ने युवाओ को ठूस ठूस कर मनमानी की उसी अंदाज़ में भारत की जनता ने इंदिरा को जवाब भी दिया।
देश की राजनीति मी आज जितने भी बड़े नाम चमक रहे हैं ,चाहे जार्ज फर्नांडीस रहे हों या नितीश कुमार , शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव , रामविलास पासवान , सुशील मोदी, या फिर आज की सत्ता में शिखर पुरुष नरेंद्र मोदी , सुषमा स्वराज , अरुण जेटली , वेंकैया नायडू , भाजपा के शीर्ष पुरुष अटल बिहारी बाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी या फिर मुरलीमनोहर जोशी ही क्यों न हो , सभी की राजनीतिक तासीर में वही आपातकाल है जिसका दंश इन सभी ने झेला है।
कल्पना कीजिये कि उस समय तो न टेलीविजन थे और ना ही आज जैसे सूचना के माध्यम। टेलीफोन भी उस ज़माने में बहुत मुश्किल से उपलब्ध थे। केवल अखबार और पत्रिकाएं ही जान संचार के माध्यम थे। स्वाधीन भारत की नौजवान पीढ़ी, आज खुलकर अपने विचार रखती है।
सरकार की आलोचना भी करती है लेकिन सोचिए अगर नौजवानों को फेसबुक की हर पोस्ट पहले सरकार को भेजनी पड़े और सरकार जो चाहे वही फेसबुक पर दिखे तो क्या होगा। अगर, ट्विटर, व्हाट्स एप के मैसेज पर लग जाए सेंसर। टीवी पर वही दिखे-अखबार में वही छपे जो सरकार चाहे-यानी लग जाए बोलने-लिखने-सुनने की आजादी पर सेंसर तो क्या होगा? आज की पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती, लेकिन जिन लोगों ने 41 साल पहले आपातकाल का दौर देखा है- वही जानते हैं तब क्या होगा?
41 साल पहले जब इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल लगाया था तो जुल्म का ऐसा ही दौर चला था। सवाल ये है कि 41 साल पहले देश में क्या हुआ कि आपातकाल की जरूरत पड़ गई, वो आपातकाल जो आजाद भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय है। आपातकाल का वो दौर इतना भयानक था कि कांग्रेस भी अब उसे भूल मानती है लेकिन, उस वक्त की बगावत जैसे हालात की दुहाई भी दी जाती है तो क्या देश में सचमुच बगावत के हालात बन रहे थे? सच ये है कि सरकार की नीतियों की वजह से महंगाई दर 20 गुना बढ़ गई थी। गुजरात और बिहार में शुरू हुए छात्र आंदोलन से उद्वेलित जनता सड़कों पर उतर आई थी। उनका नेतृत्व कर रहा था सत्तर साल का एक बूढ़ा जिसने इंदिरा सरकार की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का नारा दिया।
रामलीला मैदान में रैली से हिली इंदिरा सरकार
News18India.com ने लिखा है कि जिस रात को इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की, उस रात से पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में एक विशाल रैली हुई। तारीख थी 25 जून 1975। इस रैली में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ललकारा था और उनकी सरकार को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया। इस रैली में कांग्रेस और इंदिरा विरोधी मोर्चे की मुकम्मल तस्वीर सामने आई, क्योंकि इस रैली में विपक्ष के लगभग सभी बड़े नेता थे। यहीं पर राष्ट्रकवि दिनकर की मशहूर लाइनें सिंहासन खाली करो कि जनता आती है की गूंज नारा बन गई थी।
12 जून 1975 को आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले से पहले से पहले ही इंदिरा, बेचैन थीं जिसमें रायबरेली से उनका चुनाव निरस्त कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट से भी उन्हें आधी राहत मिली थी। आखिरकार उन्होंने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे की सलाह पर धारा-352 के तहत देश में आंतरिक आपातकाल लगाने का फैसला किया। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और इंदिरा गांधी के सहायक आर के धवन ने खुद कई बार कहा है कि अगर कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार हो तो वो सिद्धार्थ शंकर रे थे जिनका रोल सबसे अहम था। 29 जून को कांग्रेस विरोधी ताकतों ने हड़ताल का अह्वान किया था इसलिए 25 जून को इमरजेंसी लगानी पड़ी क्योंकि पहले से ही हालत काफी खराब थी।
आधी रात को आपातकाल की घोषणा
25 और 26 जून की दरमियानी रात आपातकाल के आदेश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत के साथ देश में आपातकाल लागू हो गया। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा की आवाज में संदेश सुना कि भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।...लेकिन, सच इंदिरा की घोषणा से ठीक उलटा था। देश भर में हो रही गिरफ्तारियों के साथ आतंक का दौर पिछली रात से ही शुरू हो गया था। रामलीला मैदान में हुई 25 जून की रैली की खबर देश में न पहुंचे इसलिए, दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित अखबारों के दफ्तरों की बिजली रात में ही काट दी गई।
रात को ही इंदिरा गांधी के विशेष सहायक आर के धवन के कमरे में बैठ कर संजय गांधी और ओम मेहता उन लोगों की लिस्ट बना रहे थे जिन्हें गिरफ्तार किया जाना था। नामों पर बार-बार इंदिरा गांधी से सलाह-मश्विरा किया जा रहा था। 26 जून की सुबह जब इंदिरा सोने गईं तब तक जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई समेत तमाम बड़े नेता गिरफ्तार किए जा चुके थे। मगर ये तो अभी शुरुआत ही थी, क्योंकि जुल्म का दौर अब शुरू ही होने वाला था जिसने अगले 19 महीने तक देश को दहलाए रखा।
आपातकाल यानी सरकार को असीमित अधिकार
आपातकाल वह दौर था जब सत्ता ने आम आदमी की आवाज को कुचलने की सबसे निरंकुश कोशिश की। इसका आधार वो प्रावधान था जो धारा-352 के तहत सरकार को असीमित अधिकार देती है। आपात काल का मतलब था-
-इंदिरा जब तक चाहें सत्ता में रह सकती थीं।
-लोकसभा-विधानसभा के लिए चुनाव की जरूरत नहीं थी।
-मीडिया और अखबार आजाद नहीं थे।
-सरकार कैसा भी कानून पास करा सकती थी।
सारे विपक्षी नेताओं को जेल, मीसा-डीआईआर का कहर।
सरकार का विरोध करने पर दमनकारी कानून मीसा और डीआईआर के तहत देश में एक लाख ग्यारह हजार लोग जेल में ठूंस दिए गए। खुद जेपी की किडनी कैद के दौरान खराब हो गई। कर्नाटक की मशहूर अभिनेत्री डॉ. स्नेहलता रेड्डी जेल से बीमार होकर निकलीं, बाद में उनकी मौत हो गई। उस काले दौर में जेल-यातनाओं की दहला देने वाली कहानियां भरी पड़ी हैं। देश के जितने भी बड़े नेता थे, सभी के सभी सलाखों के पीछे डाल दिए गए। एक तरह से जेलें राजनीतिक पाठशाला बन गईं। बड़े नेताओं के साथ जेल में युवा नेताओं को बहुत कुछ सीखने-समझने का मौका मिला। लालू-नीतीश और सुशील मोदी जैसे बिहार के नेताओं ने इसी पाठशाला में अपनी सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक पढ़ाई की।
एक तरफ नेताओं की नई पौध राजनीति सीख रही थी, दूसरी तरफ देश को इंदिरा के बेटे संजय गांधी अपने दोस्त बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ल और ओम मेहता की तिकड़ी के जरिए चला रहे थे। संजय गांधी ने वीसी शुक्ला को नया सूचना प्रसारण मंत्री बनवाया जिन्होंने मीडिया पर सरकार की इजाजत के बिना कुछ भी लिखने-बोलने पर पाबंदी लगा दी, जिसने भी इनकार किया उसके लिए जेल के दरवाजे खुले थे।
यही वह समय था जब मीडिया ही नहीं न्यायपालिका भी डर गई थी। दरअसल, जबलपुर के एडीएम ने अपने आदेश में कहा था कि आपातकाल में संविधान के आर्टिकल 19 के तहत स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार खत्म हो जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी। यहां तक कहा गया कि किसी निर्दोष को गोली भी मार दी जाए तो भी अपील नहीं हो सकती क्योंकि आर्टिकल 21 के तहत जीने के आधिकार भी खत्म हो चुके हैं। लिहाजा जुल्म की इंतेहा ही हो गई।
संजय गांधी का पांच सूत्रीय कार्यक्रम
एक तरफ जुल्म हो रहा था तो दूसरी तरफ संजय गांधी ने देश को आगे बढ़ाने के नाम पर पांच सूत्रीय एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया था, जिसमें शामिल था।
-वयस्क शिक्षा
-दहेज प्रथा का खात्मा
-पेड़ लगाना
-परिवार नियोजन
-जाति प्रथा उन्मूलन
कहते हैं सुंदरीकरण के नाम पर संजय गांधी ने एक ही दिन में दिल्ली के तुर्कमान गेट की झुग्गियों को साफ करवा डाला। लेकिन पांच सूत्रीय कार्यक्रम में ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था। लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कराई गई। कांग्रेस नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी कहते हैं कि उस समय यूथ कांग्रेस ने बहुत अच्छा काम भी किया था लेकिन नसबंदी प्रोग्राम ने खेल खराब कर दिया क्योंकि यूथ कांग्रेस और अधिकारियों ने जबरदस्ती शुरू की और जनता में आक्रोश फैल गया।
कहते हैं 19 महीने के दौरान देश भर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई। कहा तो ये भी जाता है कि पुलिस बल गांव के गांव घेर लेते थे और पुरुषों को पकड़कर उनकी नसबंदी करा दी जाती थी।
देश को शॉक देना था इंदिरा का मकसद
आपातकाल क्यों लगा? क्या इसलिए कि जेपी ने सेना-पुलिस तक से सरकार का आदेश न मानने को कहा था? क्या इसलिए कि बगावत का अंदेशा था? शायद नहीं क्योंकि इमरजेंसी के बहुत बाद एक इंटरव्यू में इंदिरा ने कहा था कि उन्हें लगता था कि भारत को शॉक ट्रीटमेंट की जरूरत है। लेकिन, इस शॉक ट्रीटमेंट की योजना 25 जून की रैली से छह महीने पहले ही बन चुकी थी। 8 जनवरी 1975 को सिद्धार्थ शंकर रे ने इंदिरा को एक चिट्ठी में आपातकाल की पूरी योजना भेजी थी। चिट्ठी के मुताबिक ये योजना तत्कालीन कानून मंत्री एच आर गोखले, कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ और बांबे कांग्रेस के अध्यक्ष रजनी पटेल के साथ उनकी बैठक में बनी थी।
इंदिरा जिस शॉक ट्रीटमेंट से विरोध शांत करना चाहती थीं, उसी ने 19 महीने में देश का बेड़ागर्क कर दिया। संजय गांधी और उनकी तिकड़ी से लेकर सुरक्षा बल और नौकरशाही सभी निरंकुश हो चुके थे। सुशील मोदी कहते हैं कि एक मरघट की शांति पूरे देश में स्थापित हो गई। स्वयं मुझे 9 महीने जेल में रहना पड़ा था। हम लोगों ने जवानी का बड़ा हिस्सा जेल के अंदर बिता दिया। सुरेंद्र किशोर बताते हैं कि अफसर तानाशाह हो गए थे। पुलिस कुछ भी कर सकती थी। राजनीतिक गतिविधियां बिल्कुल बंद थीं। कोई जुलूस-प्रदर्शन नहीं। जनता की परेशानियों के लिए कोई जगह नहीं थी सिर्फ तानाशाही चल रही थी।
बॉलीवुड पर भी चला सरकारी डंडा
विरोध प्रदर्शन का तो सवाल ही नहीं उठता था क्योंकि जनता को जगाने वाले लेखक-कवि और फिल्म कलाकारों तक को नहीं छोड़ा गया। कहते हैं मीडिया, कवियों और कलाकारों का मुंह बंद करने के लिए ही नहीं बल्कि इनसे सरकार की प्रशंसा कराने के लिए भी विद्या चरण शुक्ला सूचना प्रसारण मंत्री बनाए गए थे। उन्होंने फिल्मकारों को सरकार की प्रशंसा में गीत लिखने-गाने पर मजबूर किया, ज्यादातर लोग झुक गए, लेकिन किशोर कुमार ने आदेश नहीं माना। उनके गाने रेडियो पर बजने बंद हो गए-उनके घर पर आयकर के छापे पड़े। अमृत नाहटा की फिल्म 'किस्सी कुर्सी का' को सरकार विरोधी मान कर उसके सारे प्रिंट जला दिए गए। गुलजार की आंधी पर भी पाबंदी लगाई गई।
आर के धवन कहते हैं कि संजय गांधी के पॉलीटिक्स में आने के बाद 5 सूत्रीय प्रोग्राम के तहत नसबंदी का मामला खराब हो गया और जब इंदिरा को लगा कि अब दुरुपयोग हो रहा है तो उन्होंने इमरजेंसी हटाने का फैसला किया। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर कहते हैं कि संजय गांधी ने मुझे बताया कि वो 35 साल तक इमरजेंसी रखना चाहते थे लेकिन मां ने चुनाव करवा दिए।
एक बार इंदिरा ने कहा था कि आपातकाल लगने पर विरोध में कुत्ते भी नहीं भौंके थे, लेकिन 19 महीने में उन्हें गलती और लोगों के गुस्से का एहसास हो गया। 18 जनवरी 1977 को उन्होंने अचानक ही मार्च में लोकसभा चुनाव कराने का ऐलान कर दिया। 16 मार्च को हुए चुनाव में इंदिरा और संजय दोनों ही हार गए। 21 मार्च को आपातकाल खत्म हो गया लेकिन पीछे छोड़ गया है लोकतंत्र का सबसे बड़ा सबक।
पत्रिका एक ख़ास मुलाक़ात ने इस पूरे घटनाक्रम को विदुवार प्रस्तुत किया है -- तत्कालीन प्रधानंमत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा भारत में 1975 में लगाया गया आपातकाल भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में सबसे बड़ी घटना है। आज की पीढ़ी आपातकाल के बारे में सुनती जरूर है, लेकिन उस दौर में क्या घटित हुआ, इसका देश और तब की राजनीति पर क्या असर हुआ, इसके बारे में बहुत कम ही पता है।
* अब से चालीस वर्ष पहले यानी 25-26 जून की दरम्यानी रात 1975 से 21 मार्च 1977 तक (21 महीने) के लिए भारत में आपातकाल घोषित किया गया था।
* तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी थी।
* स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक समय था। आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए थे और सभी नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया था।
* इसकी जड़ में 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, जिसमें उन्होंने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राजनारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी।
* 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर उन पर छह साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया और उनके मुकाबले हारे और श्रीमती गांधी के चिरप्रतिद्वंद्वी राजनारायण सिंह को चुनाव में विजयी घोषित कर दिया था।
* राजनारायण सिंह की दलील थी कि इन्दिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया, तय सीमा से अधिक पैसा खर्च किया और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया।
* अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया था। इसके बावजूद श्रीमती गांधी ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। तब कांग्रेस पार्टी ने भी बयान जारी कर कहा था कि इन्दिरा गांधी का नेतृत्व पार्टी के लिए अपरिहार्य है।
* इसी दिन गुजरात में चिमनभाई पटेल के विरुद्ध विपक्षी जनता मोर्चे को भारी विजय मिली। इस दोहरी चोट से इंदिरा गांधी बौखला गईं।
* इन्दिरा गांधी ने अदालत के इस निर्णय को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी गई।
* उस समय आकाशवाणी ने रात के अपने एक समाचार बुलेटिन में यह प्रसारित किया कि अनियंत्रित आंतरिक स्थितियों के कारण सरकार ने पूरे देश में आपातकाल (इमरजेंसी) की घोषणा कर दी गई है।
* आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा था, 'जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं, तभी से मेरे खिलाफ गहरी साजिश रची जा रही थी।
इस दौरान जनता के सभी मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था। सरकार विरोधी भाषणों और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया।
* समाचार पत्रों को एक विशेष आचार संहिता का पालन करने के लिए विवश किया गया, जिसके तहत प्रकाशन के पूर्व सभी समाचारों और लेखों को सरकारी सेंसर से गुजरना पड़ता था। अर्थात तत्कालीन मीडिया पर भी अंकुश लगा दिया गया था।
* आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी विरोधी दलों के नेताओं को गिरफ्तार करवाकर अज्ञात स्थानों पर रखा गया। सरकार ने मीसा (मैंटीनेन्स ऑफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट) के तहत कदम उठाया।
* उस समय बिहार में जयप्रकाश नारायण का आंदोलन अपने चरम पर था। कांग्रेस के कुशासन और भ्रष्टाचार से तंग जनता में इंदिरा सरकार इतनी अलोकप्रिय हो चुकी थी कि चारों ओर से उन पर सत्ता छोड़ने का दबाव था, लेकिन सरकार ने इस जनमानस को दबाने के लिए तानाशाही का रास्ता चुना।
* 25 जून, 1975 को दिल्ली में हुई विराट रैली में जय प्रकाश नारायण ने पुलिस और सेना के जवानों से आग्रह किया कि शासकों के असंवैधानिक आदेश न मानें। तब जेपी को गिरफ्तार कर लिया गया।
* यह ऐसा कानून था जिसके तहत गिरफ्तार व्यक्ति को कोर्ट में पेश करने और जमानत मांगने का भी अधिकार नहीं था।
* विपक्षी दलों के सभी बड़े नेताओं मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडीज, जयप्रकाश नारायण और चन्द्रशेखर को भी जेल भेज दिया गया, जो इन्दिरा कांग्रेस की कार्यकारिणी के निर्वाचित सदस्य थे।
* इसी दौरान सरकार ने संविधान में परिवर्तन कर एक ऐसी व्यवस्था को पनपने का आधार तैयार किया जिसको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुखपत्र 'आर्गनाइजर' ने 'पारिभाषिक दाग' का नाम दिया। पत्र के संपादकीय में कहा गया है कि ये दाग उस कथित धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी राजनीति को गढ़ रहे हैं जो कि सत्ता के राजनीतिक दुरुपयोग से लेकर वोट बैंक की राजनीति में बदल गए हैं। ये समाज में वैमनस्यता, भेदभाव को बढ़ाने के साथ-साथ जनता परिवार और उनके गुटों के नाम पर सामने आए हैं।
आपातकाल लागू करने के लगभग दो साल बाद विरोध की लहर तेज होती देख इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर 1977 में चुनाव कराने की सिफारिश कर दी।
* चुनाव में आपातकाल लागू करने का फैसला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। खुद इंदिरा गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं।
* जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। संसद में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 350 से घटकर 153 पर सिमट गई और 30 वर्षों के बाद केंद्र में किसी ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ।
* कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली।
* नई सरकार ने आपातकाल के दौरान लिए गए फैसलों की जांच के लिए शाह आयोग गठित किया।
* नई सरकार दो साल ही टिक पाई और अंदरुनी अंतर्विरोधों के कारण 1979 में सरकार गिर गई। उपप्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने कुछ मंत्रियों की दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया जो जनसंघ के भी सदस्य थे।
* इसी मुद्दे पर चरण सिंह ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई, लेकिन उनकी सरकार मात्र पांच महीने ही चल सकी। उनके नाम पर कभी संसद नहीं जाने वाले प्रधानमंत्री का रिकॉर्ड दर्ज हो गया।
* ढाई साल बाद हुए आम चुनाव में इन्दिरा गांधी फिर से जीत गईं।
* हालांकि जनता पार्टी ने अपने ढाई वर्ष के कार्यकाल में संविधान में ऐसे प्रावधान कर दिए जिससे देश में फिर आपातकाल न लग सके।
* इसके बाद देश में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ा। कांग्रेस की देखादेखी वंशवाद प्रायः सभी दलों में पहुंच गया। ऊपर से देखने पर लोकतंत्र तो है पर वह कुछ परिवारों के पास ही बंधक बनकर रह गया है।