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'अज्ज दिन चढ़ेया तेरे रंग वरगा' जैसा है मेरा प्यार, क़भी न होगा ख़त्म...
अगस्त का महीना था। सुबह के करीब सवा 11 बजे का वक़्त था। अदब-ओ-तहज़ीब की नगरी में उस दिन हल्की बूंदाबांदी ने शहर के पुराने इलाके में रुमानियत घोल रखी थी।
लखनऊ: मैं जो कुछ इस लेख में अपने शब्दों के माध्यम से बयां कर रहा हूं, वो महज़ लफ़्ज़ों का ज़खीरा नहीं हैं, बल्कि वो मेरे जज़्बात हैं। मेरी भावनाएं हैं। इसलिए, अग़र आपको प्यार और ख़्वाबों की बोली समझ में आती हो, तब ही इस लेख को आखिरी तक पढ़ें...
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इब्तिदा-ए-इश्क़
अगस्त का महीना था। सुबह के करीब सवा 11 बजे का वक़्त था। अदब-ओ-तहज़ीब की नगरी में उस दिन हल्की बूंदाबांदी ने शहर के पुराने इलाके में रुमानियत घोल रखी थी। लोग उस इलाके को 'पुराने लखनऊ' के नाम से जानते हैं। लिखित में उस इलाके का नाम 'हुसैनाबाद' है। ये लखनऊ की वही जगह है, जहां पर इमामबाड़ा से लेकर क्लॉक टॉवर तक की ऐतिहासिक धरोहरें मौजूद हैं। जिसको देखने के लिये लोग दूर-दूर से इस शहर में दस्तक देते हैं। 'पहले आप' और 'मेहमाननवाजी' की चाशनी में डूबे हुए इस शहर के सारे लोग मेरी नज़रों के सामने से उस वक़्त ओझल हो चुके थे, जब मैंने हल्की बारिश के बीच उसे देखा (इस वक़्त से पहले 'बारिशें' सिर्फ और सिर्फ मुझे स्कूल न जाने के बहाने के रूप में अच्छी लगती थीं)।
मैंने उसे देखते ही, उसकी आंखों पर अपना सबकुछ वार दिया। जी में आया, सिर्फ़ और सिर्फ़ उसे देखता रहूं। उसको देखने में मैं इस तरह खो गया कि उसके पीछे-पीछे मैं अपनी आंखों के सहारे ही सफर तय करने लगा। मैं कब उसके पीछे भागते-भागते इमामबाड़े से रुमी गेट तक पहुंच गया, मुझे ख़ुद भी पता नहीं चला। धीरे-धीरे वो मेरी नज़रों से कहीं दूर जा चुकी थी और मैं उसके अक्स को तराश रहा था। उसकी कल्पना में डूब रहा था। हज़ारों ख़्वाबों की अचानक मेरे दिल से दोस्ती हो गई थी। लाखों ख़्वाहिशों की दिल में आवाजाही होने लगी थी।
Shashwat-mishra writer (PC: social media)
धड़कनें मानो एक्सप्रेस-वे पर गाड़ियों जैसी भाग रही हों और इन सबकी आरज़ू सिर्फ़ वो निगाहें थीं, जिसका शोर अब भी मेरे आस-पास था। उसका चेहरा एक मंज़र के रूप में मेरी नज़रों के ऊपर किसी लेंस की तरह चढ़ गया था। बैकग्राउंड में अरजित सिंह के रोमांटिक गानों की गूंज सुनाई देनी लगी थी। जिस बारिश से मेरा क़भी ज्यादा लगाव नहीं था, अचानक उससे मुझे जन्मों का नाता लगने लगा। सीधे शब्दों में कहें, तो मुझे उससे 'पहली नज़र का प्यार' हो गया था।
तसव्वुर में वो ख़्वाब बुन रहा था,
जिसके मुक्कमल होने का सोचा भी नहीं था,
हाफ़िज़ मेरा इस क़दर मेहरबान था,
की चांद ख़ुद-ब-ख़ुद ज़मीं पर आ गया था।
'मेरा चांद धरती पर था'
जिस वक्त मैंने उसे देखा था, मुझे नहीं मालूम था कि वो कौन है? कहाँ रहती है? मुझे तो उसका नाम तक नहीं पता था। इन्हीं सवालों ने मेरे ज़ेहन में घर करना शुरू कर दिया था। इतनी देर में मैं रुमी गेट से चलते-चलते उसी जगह पर जा पहुंचा, जहां मैं पहले खड़ा था। अब मैं थोड़ा-बहुत भीग चुका था और स्वप्न में बुने गए तसव्वुर से जाग रहा था। मैं वहां खड़ा सोच-विचार कर ही रहा था कि इतनी देर में मैं अपने जिन दोस्तों का इंतजार कर रहा था, वो लोग आ गए थे। आज मेरी वहां पर 'स्टिल फोटोग्राफी' की क्लास थी, जिसके लिए मैं उस इलाके में पहुंचा था। वैसे, तो मुझे कॉलेज जॉइन किये हुए चार-पांच दिन हो गए थे, मगर आज के दिन मैं अपने कॉलेज की पहली क्लास अटेंड करने पहुंचा था। क्योंकि ये आउटडोर थी।
'ऐ! शाम तुम्हें एक दिन मेरे लिये ढ़लना पड़ेगा,
इस ज़मीं से तुम्हें ये धोखा करना पड़ेगा,
मिलेंगे जब हम दोनों किसी शाम को,
उस शाम को तुम्हें आना पड़ेगा।'
नये लड़कों के साथ मिलना-जुलना हो ही रहा होता है कि अचानक से मेरी नज़र सामने की तरफ जाती है और एक दम से वहीं टिक जाती है। मैं अब एकटक सामने देख रहा होता हूँ। एक लड़की, मल्टीकलर टॉप और ब्लू जीन्स पहने हुए, रेड कलर का बैग बाहों पर लटकाये हुए, सामने से चली आ रही होती है। मेरी निगाहें उसकी जंगल जैसी आंखों पर, गंगा जैसी पेशानी पर, खुले आसमां जैसे गुलनारों और ठहरी हुई तबस्सुम रूपी लबों पर रुक जाती है। मैं उसे देखता हूं और ख़ुशी से मन ही मन झूमने लगता हूँ। मेरी नसों में ख़ुशी की लहर दौड़ जाती है। उसका, उस वक़्त, वहां होना, मेरे शरीर को सांस मिलने जैसा था। मुझे लग रहा था कि मानो मेरा चांद आज धरती पर ही निकल आया हो।
'बात आकर ज़ुबां पर रुकने लगे'
धीरे-धीरे उससे मेरी बातचीत होने लगी। उसका नाम और घर भी पता चल चुका था। मैं सुबह-ओ-शाम उसके घर की गली में चक्कर लगाने लगा। रफ्ता-रफ्ता ज़िंदगी ने रफ़्तार भरना शुरू कर दिया था। एक लड़का जिसे शहर के 'महानगर बॉयज' से निकले हुए महज़ दो महीने हुए थे, उसने अपने आप को कॉलेज की दुनिया में ढ़ालना शुरू कर दिया था। वो लड़का जिसे कभी ज़िंदगी में किसी लड़की को देखकर वैसा कुछ महसूस नहीं हुआ, उसकी ज़िंदगी अब एक लड़की के इर्दगिर्द घूमने लगी थी। मेरे दिन की शुरुआत रोज़ाना उसकी गली में एक चक्कर लगाने से होने लगी। कॉलेज में भी मैं उससे बात करने के कोई बहाने नहीं छोड़ता। उसे हंसते हुए देखना, ख़ासकर मेरे जोक्स पर, वह पल किसी उत्सव से कम नहीं महसूस होता था। प्यार ने तो परवाज़ तब भरी, जब उसने मेरे साथ आना-जाना शुरू कर दिया था। उसके घरवालों से भी मेरी मुलाक़ात हो चुकी थी। हां, मैंने अपनी थोड़ी-बहुत शेखी भी बघार दी थी उसके माता-पिता के सामने। इससे पहले उसने मेरा मोबाइल नंबर ख़ुद मुझसे मांगा था, जो मेरे लिये क़भी न भूलने वाले पलों में से एक है। मैंने तो सोच लिया था कि अब जल्दी से उसे हाल-ए-दिल से रूबरू कराया जाए, मग़र बात आकर ज़ुबां पर रुक गई, एक सवाल के साथ।
काफ़िया, रदीफ़ के पैमाने से ऊपर हो गई है मेरी शायरी
मैंने पूरे शे'र में सिर्फ़ तुम्हारा ही नाम लिख दिया।
'प्यार तो था...'
मैं उसके सामने अपना हाल-ए-दिल बयान करने से रुक गया था, मुझे एक सवाल ने रोक लिया था। एक क्या, कई सवाल थे ज़ेहन में। 'क्या उसे भी मुझसे प्यार है? क्या वो भी मुझे मेरी तरह टूटकर प्यार कर सकती है? क्या उसका कोई बॉयफ्रेंड है? क्या वो मुझे लेकर सीरियस है? क्या, कब, क्यों, कैसे, कहाँ? इन सारे सवालों ने दिमाग में रायता फैला दिया था। मग़र, इन सबके बीच एक चीज़ थी, जिसने मुझे संभाले रखा, और वो था 'प्यार।'
Shashwat-mishra writer (PC: social media)
'सुनो ना-सुनो ना, सुन लो ना...'
अब करीब कॉलेज को छः महीने बीत चुके थे, मेरी-उसकी बातचीत नहीं हो रही थी। कुछ वजहों से उसने मुझसे बात करना, मेरे मैसेजेस का जवाब देना, मुझे सीरियस लेना, और तो और मेरे नाम से उसे चिढ़ मचने लगी थी। इश्क़ में गुस्ताख़ी माफ़ होती है, इस बात को मैंने अपने ज़ेहन में अच्छे ढ़ंग से बैठा रखा था। अब शुरू हुआ मेरा, उसे मनाने का दौर। इस समय भी मुझे नहीं पता था कि उसके दिल में मुझे लेकर कोई फीलिंग्स हैं या नहीं? औऱ मैं उसे सुनो-ना, सुनो ना कहते रहता।
बात नहीं हुई...
लगभग पूरा सेशन ख़त्म होने को आ गया और उसने मुझसे बात नहीं की। मैंने घुट-घुट कर जीना शुरू कर दिया था। जिस चेहरे का नूर मेरी आंखों को रोशनी देता था, अब उसी चेहरे को देखकर मेरी आंखों से अश्रु रूपी समंदर बहने लगता। मैं उसके सामने ख़ुद को बहुत संभालता। मैंने बड़ी मुश्किलात से उस दौर को काटा, मेरे दोस्त लगातार मुझे चियर-अप करते रहे। मेरे मनोबल को कभी कम न होने दिया।
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ख़ुशनुमा दौर...
कहते हैं न कि अच्छा वक्त बुरे दौर को बिताकर ही आ सकता है। वैसा ही हुआ, कुछ मेरे संग। गर्मियों की छुट्टियों में उसका मुझसे बात करना हुआ। मैंने उस मौके को भुनाने की पूरी कोशिश भी की, मगर वो अपने वसूलों और इरादों पर अड़िग थी। उसने क़रीब 15 दिन मेरे साथ बिताए थे, लेकिन मुझे 15 पलों के लिए भी यह एहसास नहीं होने दिया कि 'उसे भी मुझसे प्यार है या नहीं?' खैर, चाहे जो भी कुछ रहा हो, वो समय मेरे लिए सबसे ख़ुशनुमा था। मैं आज भी उन पलों के सहारे ही ज़िंदा हूं। अपने आपको उस दौर में जब-जब ले जाता हूं, ख़ुद को, ख़ुश करने की वजह देता हूं।
दिल की तख़्ती...
अब धीरे-धीरे नये सेशन की तैयारी शुरू हो चुकी थी, मैंने उसके साथ मिलकर एक साज़ छेड़ दिया था। नये दौर, नये इम्तिहान शुरू हो चुके थे। पर, मैं ख़ुश था, कहीं न कहीं उसे अपने आस-पास पाकर। मुझे अब यही चाहिए था। मेरे ऐसे कोई ख़्वाब नहीं थे, जिनको मैं मुक्कमल करना चाहता। ज़ाकिर ख़ान की शायरी जैसी मेरी मुहब्बत थी...
'वो तितली बनकर आई और मेरे दिल को बाग कर गई,
जितने नापाक थे इरादे, सबको पाक कर गई।'
मेरी ज़िंदगी के सबसे ख़ुशनुमा लम्हों में ये पूरा सेशन शुमार है। मैंने इस साल को ख़ूब एन्जॉय किया। उसका बर्थडे मनाया। उसके साथ ख़ुद को हर जगह पाया। उसको ख़ुद में और ख़ुद को उसमें ढ़लता पाया। मेरे हर ख़्वाब को ताबीर में बदलते देखा। सिवाय एक ख़्वाब के, कि 'उसे भी मुझसे प्यार है।' हमने कई नादानियां भी साथ में की। कई सजाएं भी साथ में काटीं। कई बातों को आपस में साझा भी किया। दिल की तख़्ती पर उस साल ख़ूब कलम चली, ज़िंदगी भर में जितने ख़ुशी के पल थे, सारे के सारे एक साथ ही लिख दिए गए थे। मग़र, कहते हैं न कि इस 'अपितु संसार में सब अस्थायी है।'
'बिन तेरे...'
वो अब जा चुकी थी दिल्ली। मैं बिन उसके लखनऊ में था। शहर में कांटे लगे हुए लग रहे थे। शहर पराया-सा लगने लगा था। मैं ख़ुद को तन्हा महसूस कर रहा था और उन पलों को मनहूस। मद्धम-मद्धम ज़िंदगी ने अपने नये कलेवर से रूबरू कराया। अपनी ताबीर दिखाई। मैं बिन उसके जी नहीं पा रहा था। इसलिए, मैं भी उससे दिल्ली मिलने पहुंच गया। वो मुझसे मिली वहां पर। मुझे देखकर शॉक्ड थी, पर कहीं न कहीं ख़ुश भी। मैं भी काफी दिनों के बाद अपने लबों पर आई तबस्सुम को टटोल रहा था। उसने मुझसे हाल-चाल पूछे। मैंने भी। एक अरसे बाद मिल रहे हों, ऐसा लग रहा था। फिर, मैं लौट कर लखनऊ आ गया। पूरा साल बिता दिया, उसके बिना। अब वो मेरी ज़िंदगी और मेरी पहुंच से दूर थी। एक अनकही से दास्तां जैसी रह गई मेरी कहानी।
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'मैं ऐसा कुछ नहीं फील करती...'
दिल पर पत्थर रखकर, अपने आप को तसल्ली देने के इरादे से, मिलने वाले जवाब को जानते हुए भी मैंने उससे वो ढ़ाई अक्षर कह दिये, जिसे मैं करीब दो साल से कहने की जद्दोजहद में था। मेरे दोस्तों ने मुझे इसके लिए काफी उकसाया भी था। फिर, उसने कुछ ऐसा कहा, जो मुझे नागवार गुज़रने लगा। उसने कहा-'मैं ऐसा कुछ नहीं फील करती...' ये लाइन आज तक मेरे दिल-ओ-ज़ेहन में नश्तर की तरह गड़ी हुई है। ये लाइन मुझे मजबूती भी देती है और कहीं न कहीं तोड़ कर भी रख देती है। कई लोगों ने मुझे ख़ूब समझाने-बुझाने की कोशिश की, मगर उनके कहने-सुनने का मेरे ऊपर कोई असर नहीं पड़ना था। मुझे मनोज मुंतशिर के एक शे'र पर नाज़ है, जिसे उन्होंने दूसरी वजह से लिखा था, लेकिन वो मेरी मुहब्बत को हौसला देने के लिए काफी था।
'तसल्ली अपनी अपने पास रखो, मुझे तो दर्द की रातें हैं प्यारी
ये मेरा इश्क़ है मेरा ही रहेगा, ज़रूरत ही नहीं मुझको तुम्हारी।'
'सूनी बालकनी...'
अब मेरे नसीब में सिर्फ और सिर्फ एक ही चीज़ है और वो है उसकी गलियों में जाना। मुझे वाकई वहां जाकर बहुत अच्छा महसूस होता है। मैं वहां जाकर ख़ुद को साहिर समझता हूं। लगता है कि अभी उसकी सुंदरता पर कोई नज़्म लिख दूंगा। लगता है कि वो अभी अपनी बालकनी पर आकर मुझे कहेगी कि 'नीचे क्यों खड़े हो, ऊपर आओ।' मैं ख़्यालों में भी खोने लगता हूं, बिल्कुल साहिर लुधियानवी की नज़्मों की तरह। मैं सोचता हूं...
'मैं फूल टांक रहा हूं तुम्हारे जूड़े में,
तुम्हारी आंख मसर्रत से झुकती जाती है,
बताओ आज मैं क्या कहने वाला हूं,
ज़बान ख़ुश्क है, आवाज़ रुकती जाती है।'
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं।।
मेरे दिल में एक ख़लिश है, जिसे मैंने अपनी लिखी हुई एक नज़्म में ज़ाहिर किया है। ये सिर्फ और सिर्फ उसके लिए है, जिसे मैं यह पढ़वाना चाहता हूं। इसका उनवान है, 'सूनी बालकनी।'
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माना मेरी बातों से तुम्हें ऐतराज़ होगा,
मुझसे तुम्हारा कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं होगा,
पर, कसूर इसमें तुम्हारी बालकनी का क्या है?
वो क्यों सूनी खड़ी रहती है?
गर्मियों की लू क्यों लगती है?
क्यों लगती है पतझड़ के पेड़ों सी?
क्यों लगती है बिन रूह जैसे इंसान सी?
क़भी उस पर तुम आया करो,
अपने आपको वहां रखकर सोचा करो,
ये बालकनी मेरे आने से कितनी शादाब हो जाती है,
जैसे बिन मौसम की बारिश से बहार आ जाती है,
तब तुम्हें पता चलेगा,
कि किसी ने सालों तक कौन-सा दर्द झेला है,
सूनी बालकनी देखते-देखते,
आंखों पे नश्तर गाड़ा है।
वो तुम्हें यहां देखकर कितना ख़ुश होगा,
मानो ख़ुदा की रहमत मिल गयी हो,
उसकी कोई हसरत पूरी हो गई हो,
वो जिस अक़ीदत से रोज़ाना उस मंदिर आता था,
उस मंदिर के भगवान उसे साक्षात मिल गए हों।
तुम्हारे वहां बस खड़े होने से,
किसी का दिन पूरा हो सकता है,
किसी का जन्म लेना सफ़ल हो सकता है,
किसी के लिए वो शाम सहर हो सकती है,
आँखों को रोशनी तक मिल सकती है,
बस तुम्हारे वहां खड़े होने से सोचो,
क्या-क्या हो सकता है?
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तो आओगी न अब शफ़क़ को निहारने,
ढ़लते आफ़ताब को देखने,
उगते माहताब का दीदार करने,
आओगी न, आओगी न?
और,
अग़र नज़रों को मंज़ूर हो,
तुम्हें ये कुबूल हो,
तो दो पल नीचे ज़रूर देखना,
एक लम्हा ज़रूर मिलेगा,
वो तुम्हें देखकर ख़ुश होगा,
तुम भी शायद उसे देखकर।
~शाश्वत
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