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धन की देवी का निवास कहांः नौ वर्षीय मासूम भाऊ और उसकी मां के सवाल जवाब में छिपा है लक्ष्मी के ठिकाने का पता

ये कहानी की मुंबई की स्लम बस्ती में रहने वाले 9 वर्षीय भाऊ और उसकी मां कांता भाई की है। जो घरों में झाड़ू-पोछा कर अपना जीवन व्यतीत करती है।

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Newstrack NetworkPublished By Deepak Kumar
Published on: 1 May 2022 10:03 AM GMT
diwali 2022
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diwali 2022 (Image credit: social media) 

हमारा समाज और एक उच्चवर्गीय परिवार का जीवन हमेशा से आमजन की मेहनत और उनके द्वारा बरसों से किए जा रहे अथक परिश्रम पर निर्भर करता है। इसके बावजूद सबसे मुश्किल जीवन इसी मध्यमवर्गीय या निम्नवर्गीय परिवार का रहा है। इसी सापेक्ष में एक कहावत है कि 'यदि किसान खेती करना छोड़ दे तो दुनिया खाएगी क्या' लेकिन दुनिया के लिए अन्न पैदा करने वाला यही किसान आज भूखे मरने और अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटाने का मोहताज है। यही हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना है, घर बनाने वाले मजदूर के पास खुद का पक्का मकान नहीं है, बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम करने वाले एक मध्यमवर्गीय शख्स के पास कोई ऐशो-आराम नहीं है।

9 वर्षीय भाऊ और उसकी माँ की कहानी

इसी परिदृश्य में हम आपके के लिए नौ वर्षीय भाऊ और उसकी माँ कांता बाई की कहानी लेकर आए हैं। 9 वर्षीय भाऊ जो कबाड़ बीनने का काम करता है और उसकी माँ कांता बाई लोगों के घरों में नौकरानी का काम करती है। इस कहानी को दीपावली त्योहार के इर्दगिर्द बुना गया है। ऐसा माना जाता है कि साफ-सुथरे घर में ही माता लक्ष्मी का वास होता है लेकिन क्या दूसरों के घरों को साफ-सुथरा रखने वाली कांता बाई की खोली में माँ लक्ष्मी कभी निवास करेंगी? कांता बाई द्वारा बेटे के एक सवाल पर बोले गए यह शब्द कि-"माता लक्ष्मी गरीब के पतरे के बक्से में नहीं, अमीर की मजबूत लोहे की तिजोरी में रहना पसंद करती है।" हमारे समाज की असलियत सामने लाने के साथ ही आपको अंदर से झकझोर देंगे।

भाऊ के इसी तरह के मासूम सवालों का जवाब है यह कहानी-

इस कहानी की शुरुआत 9 वर्षीय भाऊ से होती है जो मुंबई की स्लम बस्ती में अपनी खोली के सामने बैठा अपनी मां कांता बाई के आने का इंतजार कर रहा था। हर रोज घरों में झाड़ू-पोछा कर वह नौ-दस बजे के आस-पास लौट आती थी। आज साढ़े बारह बज चुके थे। भाऊ ने उठ कर गंदगी और कचरे से अटी संकरी गली में दूर-दूर तक निगाह दौड़ाई। लेकिन उसे मां की कहीं झलक न पड़ी। वह निराश होकर वापस खोली के सामने बैठ गया। उसे जोरों की भूख लगी थी।पेट से 'घुरड़-घुरड़' की आवाज आ रही थी। उसे भूख ने बेचैन कर दिया था। अन्य दिनों में तो वह इस वक्त खाना खाकर कब का कचरा बीनने जा चुका होता था। लेकिन आज तो अभी तक उसकी मां झाड़ू-पोछा करके वापस भी नहीं लौटी है।वह कब आएगी, कब खाना पकाएगी, कब खाने को मिलेगा कुछ मालूम नहीं...

वह फिर उठा और गली में झांकने की बजाय खोली के अंदर चला गया। उसने मटके से पानी का गिलास भरा और 'गटक-गटक' एक सांस में सारा पानी पी गया।

अमीर के लिए पानी केवल प्यास बुझाने का जरिया है।लेकिन यही पानी गरीब की प्यास के साथ-साथ एक बार तो भूख भी मिटा देता है। गरीब के बच्चों को ऐसी बातें कोई अलग से नहीं सिखायी जाती, वे स्वतः सीख जाते हैं। भाऊ पानी पीकर अब अपने-आप को तृप्त महसूस कर रहा था।

वह वापस खोली के बाहर आकर फिर मां का इंतजार करने लगा।लगभग डेढ़ बजे के आसपास कांताबाई अपनी खोली पर लौटी।वह हाथ में पुराने अखबार की एक पोटली लिये हुए थी।उसने भाऊ के मुरझाये चेहरे की तरफ देखा, "भाऊ, आज तो तू मेरी बाट जोहकर थक गया होगा." भाऊ ने केवल सिर हिला दिया।

"आ अंदर आजा. तू सुबह से भूखा है।देख, मैं तेरी खातिर खाने के लिए क्या लेकर लायी हूं।"

दोनों मां-बेटे खोली के अंदर आ गये।कांता बाई ने चप्पल एक तरफ निकाली, पुरानी साड़ी के पल्लू से अपना मुंह पोंछा और जमीन पर बैठ कर अखबार को खोलने लगी।भाऊ भी उसके सामने बैठकर कौतुक नजरों से अखबार को देखने लगा।अखबार की तहें खुलते ही भाऊ की आंखों में चमक और मुंह में पानी आ गया।उसके सामने हलवा-पूरी थे।कांता बाई बेटे के चेहरे पर चमक देखकर मुस्करायी।बोलीं- "देशी घी के हैं. बासी भी नहीं हैं।मालकिन ने कल शाम को ही बनाये थे।वो मुझे वहीं खाने को बोल रही थीं।लेकिन मुझे मालूम था, तू भूखा है।इसलिए मैं यहीं ले आयी।चल अब जल्दी खा ले।"

भाऊ ने मासूम नजरों से कांता बाई की तरफ देखा, "आई, तूने भी तो सुबह से कुछ नहीं खाया है...?"

"तो क्या हुआ? तू खा ना.."

"जब तू मेरे बिना नहीं खा सकती, तो मैं तेरे बिना कैसे खा सकता हूं? चल दोनों खाते हैं।"

कांता बाई बेटे का प्यार देखकर गदगद हो उठी।आज उसे अपना भाऊ मालकिन के माडर्न कॉर्नवेंट में पढ़ने वाले जिद्दी बंटी से ज्यादा समझदार लग रहा था।कई दफा गरीबी वो सिखा देती है, जो अमीर किसी शिक्षण संस्था को लाखों रुपये देकर भी अपनी औलाद को नहीं सिखा पाते।

दोनों मां-बेटे बड़े प्यार और तल्लीनता से खाना खा रहे थे।अचानक भाऊ ने खाते-खाते चुप्पी तोड़ी, "आई, आज तूने इतनी देर क्यों कर दी..."

कांता बाई निवाला चबाते हुए बोली, "अरे, परसों दिवाली है ना.. मालकिन साफ-सफाई में लगी हुई थी।मैं भी उनका हाथ बटाने लगी।हमें उनकी बख्शिश का भार भी उतारना होता है।इसीलिए देर हो गयी। "

"आई, ये बड़े लोग दिवाली पर सफाई क्यों करते हैं?"

कांता बाई हंसकर बोली, "दिवाली की रात धन की देवी लक्ष्मी आती हैं।जिसका घर सबसे ज्यादा साफ-सुथरा होता है।लक्ष्मी उसी घर में वास करती हैं।"

भाऊ ने कांता बाई की तरफ देखकर बड़ी मासूमियत से पूछा, "आई, फिर तुम कभी अपनी खोली साफ क्यों नहीं करती..?"

भाऊ का सवाल सुनकर कांता बाई के चेहरे की मुद्रा बदल गयी।वह गंभीर स्वर में बोली, "भाऊ, लक्ष्मी खोलियों में नहीं, कोठियों में जाती है।"

"क्यों आई..? ऐसा क्यों..?"

"क्योंकि वह गरीब के पतरे के बक्से में नहीं, अमीर की मजबूत लोहे की तिजोरी में रहना पसंद करती है।"

भाऊ की अबोध आंखों ने मां के चेहरे के पर उभरे बेबसी के भावों को भांप लिया।वह आगे बिना कोई सवाल किये नजरें झुकाकर चुपचाप खाने लगा।

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