Love And Battles: सघन लड़ाईयों के बीच प्रेम

Love And Battles: दुनिया में धर्म, जाति, नस्ल, रंग, भाषा इत्यादि को लेकर लोगों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। लोग अपने हित और वर्चस्व के लिए एक दूसरे को दबाने पर आमदा हैं।

Rana Pratap Singh
Updated on: 23 May 2022 8:14 AM GMT
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Love And Battles: सघन लड़ाईयों के बीच प्रेम

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Love And Battles: दुनिया में लगातार नफरत की दीवारें चौड़ी होती जा रही हैं। धर्म, जाति, नस्ल, रंग, भाषा इत्यादि को लेकर लोगों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। लोग अपने हित और वर्चस्व के लिए एक दूसरे को दबाने पर आमदा हैं। ऐसी नफरत भरी लड़ाईयों के बीच भी प्रेम के कुछ दुर्लभ क्षण आते हैं। उम्मीद है दुनिया में मचे इस उथलपुथल पर लिखी ये चंद पंक्तियां आपको काफी पसंद आएंगी।

जानवरों के घटते जाने

और लोगों के बढ़ते जाने के बावजूद

लड़ाइयां कम नहीं हुई

सघन होती जा रहीं हैं लड़ाईयां

सपाट और नंगे मैदानों में।

पहाड़ों को तोड़

वनों को काट

बसाई गयी जो रिहाइशें

उनमें नहीं बन सके घर

न शहर बस सके

जहाँ सब साथ साथ रह लें

बिना लड़ाइयों के।

लड़ाइयों के बीच ही

उन बसावटों में रहने वाले लोग

कभी कभी कर लेते प्रेम

कभी मना लेते उत्सव

प्रेम का या युद्ध का।

लड़ाइयों के बीच ही

लोग खोज लेते अपना परिवार

अपनी जाति

अपना समूह

अपना धर्म

अपनी पूजा पद्धति

अपने लाभ

और अपना शुभ।

लड़ाइयों के बीच ही लोग

खोज लाते अपने अपने भगवान

अपनी रक्षा के लिए

और अपने वर्चस्व के लिए।

लड़ाइयों के बीच

लोग कब्ज़ा लेते अपने खेत

मकान

दुकानें

बाग बगीचे

कारखाने

स्कूल और अस्पताल।

सब चीजें करती रहतीं

अपना अपना काम

अपने अपने मालिकों के लिए

तैनात रहती

लड़ाइयों के बीच

चुपचाप

जीवन में प्रेम की तरह।

ऐसी सघन लड़ाइयों के बीच

कठिन होता प्रेम के लिए ढूढ़ लेना कोई जगह

और धारण किए रहना प्रेम को देर तक

सुख और शांति में बदलने के लिए।

प्रेम के दुर्लभ क्षणों के बीच ही

अचानक हो जाता कोई विस्फोट

हमारे भीतर

या हमारे बाहर

तेज हो जाती लड़ाई

देखते ही देखते.

प्रेम के बीच ही

शामिल हो जाते हम भी लड़ाई में

किसी न किसी मोर्चे पर

तैनात सेना के साथ।

जब जंगल घने थे

तो दुश्मनों को छिपा देते थे।

घने वृक्षों की छाँव

नीची खाईयां और ऊचें पहाड़

रोक देते हैं

युद्धरत काफिलों का फैलाव।

सपाट नंगे मैदानों में नहीं होती कोई रूकावट

लड़ाइयां बार बार शुरू होती रहती

और चलती रहती हैं बिना किसी रोक टोक के .

बहुत दिन हो गए

जानवरों की तरह लड़ते झगड़ते

झुण्ड बनाते

और बढ़ाते हुए परिवार .

चलो युद्ध के बीच ही

मनुष्य की तरह

एक घर बना लें

बसा लें एक गांव

प्रेम के लिए भी

युद्घ रुकने में जाने कितने दिन और लग जाएँ

आओ अहंकार की उफनती नदी के उस पार

बनाएं एक फूलों का बगीचा

और उसके किसी टीले पर बैठ कर

मनुष्यों की तरह तलाशें प्रेम के पानी का उदगम

लेखक: राणा प्रताप सिंह

Deepak Kumar

Deepak Kumar

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