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'भूख की नहीं है कोई जात, पेट तो चाहे केवल भात'
नगर मजिस्ट्रेट द्वारा रचित समसामयिक रचना
कातर आंखें सजल नयन
कह गए मन की सारी बात
आपने भी तो देखी होगी
बे मौसम होती बरसात
अंधियारे से चौराहे पर
बैठे थे वो दोनों साथ
कुछ दे जाते कुछ झिड़काते
मांगते वह फैलाए हाथ
किससे कहें वह मन की बात
पेट तो चाहे केवल भात
आज उसे फिर देर हुई है
नहीं मिली फिर से रोजी
बूढ़ी अम्मा के सपनों में
जूठन वाली ही रोटी
भूख की नहीं है कोई जात
पेट तो चाहे केवल भात
भवनों में कल जो रहते थे
आज खड़े हैं चौराहे पर
दुनिया को जो खुद देते थे
मांग रहे हैं आंसू भर भर
वक्त बड़ी सबसे है बिसात
अपनों ने ही दी है मात
क्या वह दिन फिर से आएंगे
खुशियां फिर से लौट आएंगे
डाली से जो दूर फूल है
प्रेम हार बन मुस्काएगे
क्या बदलेंगे फिर हालात
पेट तो चाहे केवल भात
यह तो फिर से लहक उठेंगे
बच्चों जैसे चहक उठेंगे
अच्छे दिन की खुशबू पाकर
बाहर भीतर महक उठेंगे
जिनके घायल थे जज्बात
पेट तू चाहे केवल भात
इस कठिन समय में मुझे अपनी यह कविता याद आ गई। आप सभी से विनम्र अनुरोध है कि आपके आसपास कोई भूखा ना रहे आपके स्तर से जो भी सहायता हो सके करने का प्रयास करें।
वन्दना त्रिवेदी
नगर मजिस्ट्रेट गोंडा
(स्वरचित)
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