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जयंती पर विशेषः वरिष्ठ पत्रकार मधुसूदन वाजपेयी, जो कर्मयोग को रहे समर्पित

पिताजी का साहित्यिक योगदान सामने लाना अभी बाकी है। दिक्कत ये है कि उस दौर के लोग लिखते चले जाते थे लेकिन संग्रह नहीं करते थे। अब ढूंढना पड़ेगा तब उनका साहित्यिक योगदान सामने आएगा। ये मेरे ऊपर पितृऋण है जिसे उतारने का मै भरसक प्रयास करूंगा।

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Published on: 7 July 2020 7:14 AM GMT
जयंती पर विशेषः वरिष्ठ पत्रकार मधुसूदन वाजपेयी, जो कर्मयोग को रहे समर्पित
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रामकृष्ण वाजपेयी

आज मेरे पिताजी स्वर्गीय मधुसूदन वाजपेयी की जयंती है। लिखत पढ़त के हिसाब से 7 जुलाई 1930 को पिताजी का जन्म मध्य प्रदेश के विलासपुर में हुआ था। पिताजी के जन्म के समय मेरे बाबा आचार्य किशोरीदास वाजपेयी लगभग 35 वर्ष के थे। वह उस समय देश सेवा यानी क्रांति की अलख जगाने में लगे थे इसलिए पिताजी का बचपन बहुत अधिक अभावों में गुजरा।

अट्ठारह साल की उम्र में बने संपादक

बाबा की नौकरी का कोई ठिकाना नहीं था उनका एक पैर घर में तो दूसरा जेल में रहा करता था। अभावों के इस दौर में पिताजी की पढ़ाई भी प्रभावित हुई लेकिन वह प्रखर मेधा के धनी थे। संकटकालीन दौर में भी उन्होंने स्वाध्याय से खुद को शिक्षा पर केंद्रित रखा।

और एफए की परीक्षा में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में सम्मिलित हुए लेकिन रिजल्ट आने से पहले परिवार की जिम्मेदारियां कंधे पर आ गईं और कोलकाता में जनवाणी प्रकाशन में नौकरी के जाना पड़ा।

यहां वह 1948 में जीवन पत्रिका के संपादक बने। वेतन था दो सौ रुपये प्रतिमाह जिसमें सौ रुपये घर भेज दिये जाते थे और सौ रुपये उनके रहने खाने के कट जाते थे। यानी कुल मिलाकर वेतन सौ रुपये ही थी।

वैद्यनाथ परिवार के ये डायरेक्टर रहे घर में

यहां एक बात उल्लेखनीय है कि वैद्यनाथ आयुर्वेद भवन के मालिक वैद्य रामनारायण शर्मा से बाबा के मित्र, सखा या भाईवत संबंध थे।

ये संबंध इतने घने थे कि उन्होंने अपने बच्चों बिरजू (स्व. वैद्य ब्रजेंद्र स्वरूप शर्मा), रामौतार (वैद्य रामौतार शर्मा) और गिरिवर (स्व. वैद्य गिरिवर शर्मा) को पढ़ने के लिए बाबा के पास कनखल भेज दिया था और बाबा के कड़े अनुशासन में उनकी शिक्षा दीक्षा हुई।

वैद्य रामनारायण शर्मा ने ही पिताजी को कोलकाता कमाने के लिए काम पर लगाया था। अपनी पढ़ाई लिखाई पूरी करने के बाद इन तीनों चाचाजी लोगों ने जब अपना काम संभाल लिया तो बाबा को अयाचित मदद गुरुदक्षिणा के रूप में उनके जीवन भर देते रहे।

इंटर में प्रांत में तीसरी पोजिशन

इधर पिताजी कोलकाता में नौकरी कर रहे थे उधर रिजल्ट आया पिताजी को पत्र भेजकर पूछा गया रोल नंबर बताओ। पिताजी को जो रोल नंबर याद था लिख दिया। उस रोल नंबर का छात्र फेल था। इसलिए पिताजी को लिख दिया गया कि तुम फेल हो गए हो।

लेकिन कोई बात नहीं माता पिता की सेवा में अव्वल नंबरों में पास हुए हो। पिताजी ने मान लिया कि फेल हो गया हूं। इस बीच पिताजी की एक सहपाठी घर आई उसने कहा मिठाई खिलाइये। कहा गया किस बात की मिठाई।

उसने कहा भैया ने प्रांत में टॉप किया है तीसरी पोजिशन आयी है। कहा गया भग। टॉप किया है कि फेल हुआ है वह दौड़ कर गई अखबार लेकर आयी उसमें पिताजी की फोटो छपी थी। तब पिताजी को लिखा गया कि भाई तुम पास हो गए हो।

सनातन धर्म स्कूल में अध्यापक

इसके बाद घर की स्थिति कुछ सम्हलने पर कहा गया कि नौकरी छोड़कर आ जाओ पढ़ाई पूरी कर लो। पिताजी वापस कनखल आ गए। उस समय शिक्षक परीक्षार्थी का बीए एक साल में हो जाता था इसलिए पिताजी सनातन धर्म हायर सेंकंड्री स्कूल में अध्यापक हो गए।

और शिक्षक अभ्यर्थी के रूप में आगरा विश्वविद्यालय से बीए का फार्म भर दिया और पं. राधे श्याम कथावाचक के घर में रहकर बीए की परीक्षा दी और बीए पास कर लिया। बीए पास करने के बाद पिताजी की रुचि पत्रकारिता में ही थी लिहाजा लखनऊ से निकलने वाले एक अखबार में पत्रकार हो गए।

फिर वैद्यनाथ की दवाओं का काम देखा

लेकिन इसी बीच इस बीच बाबा ने देहरादून के शिक्षाविद बाबूराम मिश्र की बड़ी लड़की शारदा से पिताजी की शादी तय कर दी। 1955 में माता जी (स्व. शारदा वाजपेयी) की पिताजी (स्व. मधुसूदन वाजपेयी) से शादी हो गई। पिताजी इस समय झांसी में वैद्यनाथ का सचित्र आयुर्वेद मैगजीन व दवाओं के सर्कुलेशन मैनेजर के रूप में काम संहाल रहे थे।

सप्तऋषि आश्रम में संस्कृत विद्यालय में पहले प्रधानाचार्य

लेकिन इस काम में उनका ज्यादा मन रमा नहीं। इस बीच हरिद्वार में सप्तऋषि आश्रम में संस्कृत विद्यालय खुला पिताजी को आध्यात्मिक रुझान था वह इसके प्रथम प्रधानाचार्य बने इस विद्यालय का उद्घाटन देश के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पं. जवाहर लाल नेहरू ने किया।

पिताजी चूंकि आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे वह चले तो गए लेकिन फिर इससे उकता गए। उन्हें किसी चुनौतीपूर्ण भूमिका की तलाश थी। अलबत्ता मेरे बड़े भाई स्व. राजकृष्ण वाजपेयी का जन्म हरिद्वार में ही 31 जनवरी 1957 में हुआ।

भक्त लेखक

दरअसल पिताजी कम उम्र में ही कल्याण के लेखक हो गए थे। उनकी प्रार्थनामय जीवन लेखमाला कल्याण में दो वर्ष तक प्रकाशित हुई। सतयुग कैसे लाएं इसके मूल विचार को उन्होंने ही दिया। वह मधुसूदन वाजपेयी माधव नाम से लिखा करते थे।

प्रेमचंद के उपन्यासों का संक्षिप्तीकरण

इस बीच प्रेमचंद के पुत्रों श्रीपत राय व अमृत राय को प्रेमचंद के उपन्यासों का उन्हीं की शैली में संक्षिप्तीकरण करने के लिए किसी योग्य व्यक्ति की जरूरत महसूस हुई। पिताजी ने इस चुनौती को स्वीकार किया और प्रधानाचार्य की नौकरी छोड़कर इलाहाबाद सरस्वती प्रेस में आ गए। पिताजी ने यहां प्रेमचंद के उपन्यासों रंगभूमि, सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, गोदान का प्रेमचंद की शैली में संक्षिप्तीकरण किया।

मुखर वक्ता

इलाहाबाद मेरे पिताजी के करियर का स्वर्णकाल कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। पिताजी का यहां हिन्दू महासभा के नेताओं से संपर्क हुआ और वह मुखर वक्ता रहे। उन्होंने चीन हमले के दौरान विजय के स्वर नामक काव्य संग्रह लिखा जिसे मैथिलीशरण गुप्त ने सराहना करते हुए उन्हें राष्ट्र कवि कहा। उत्तर प्रदेश शासन ने ये पुस्तक प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम में लगाई।

माताजी भी सक्रिय रहीं

मेरी माताजी के लिए भी इलाहाबाद राजनीतिक सक्रियता का रहा वह ललिता शास्त्री के साथ राजनीति में सक्रिय रहीं। पुरुषोत्तम दास टंडन स्मारक की उपाध्यक्ष रहीं। पिताजी ने इलाहाबाद में अपना राजकृष्ण प्रकाशन भी शुरू किया। पिताजी ने ये प्रकाशन मेरे भैया के नाम पर शुरू किया था। मेरा जन्म 5 अक्टूबर 1966 को यहीं डफरिन अस्पताल में हुआ।

फिर पत्रकारिता में वापसी

इस बीच 1967 में मेरे फूफा के बड़े भाई ने अखबार शुरू किया और पिताजी को कानपुर बुला लिया लेकिन ये अखबार चला नहीं। इसी बीच दैनिक जागरण में उपसंपादक की जगह निकली। पिताजी ने आवेदन किया।

स्व. नरेंद्र मोहन ने इंटरव्यू के लिए बुलाया। उस समय कोई भी समाचार हिन्दी में नहीं आता था। अंग्रेजी में ही एजेंसी से टेलीप्रिंटर पर आते थे। उन्होंने पिताजी को अंग्रेजी के कुछ टेक दिये। पिताजी उनसे बात करते हुए लिखते चले गए।

बात खत्म हुई तो पिताजी ने अपना अनुवाद सामने रख दिया। नरेंद्र मोहन ये देख कर चकित रह गए। उनहोंने कहा आप क्या वेतन लेंगे। पिताजी ने कहा 250 रुपये महीना।

नरेंद्र मोहन जी ने कहा इतना तो हम नहीं दे सकते हैं हम तो ट्रेनी सब एडीटर को 150 रुपये और कन्फर्म सब एडीटर को 200 रुपये देते हैं। पिताजी ने कहा लेकिन मै इससे कम में नहीं काम कर सकता हूं। और नरेंद्र मोहन ने पिताजी की शर्त मानते हुए उन्हें जागरण में रख लिया।

जागरण से इस्तीफा

इसके बाद पिताजी 1967 से 1976 तक जागरण में रहे। नरेंद्र मोहन जी के शब्दों में इस दौरान वह इस्तीफे वाले वाजपेयी के रूप में मशहूर थे। अगर कोई नेता या मंत्री आता था तो नरेंद्र मोहन जी पिताजी का परिचय यही कह कर कराते थे कि ये वाजपेयी जी हैं जिनकी जेब में हमेशा इस्तीफा रहता है। 1976 में पिताजी को गोरखपुर का प्रभारी संपादक नियुक्त कर भेजा गया। लेकिन अगस्त में बाबा के आग्रह पर उन्होने इस्तीफा दे दिया और हम लोग कनखल चले गए। इस बीच मेरी दो बहनों 30 जून 1971 को प्रतिभा और 20 फरवरी 1974 को प्रज्ञा का जन्म हो चुका था।

कनखल में पिताजी ने एक बार फिर पाणिनि प्रकाशन शुरू किया इससे पहली किताब बाबा के ऊपर छापी गई आचार्य किशोरीदास वाजपेयी और हिन्दी शब्द शास्त्र। लेकिन 1979 में अम्मा की हालत बहुत खराब हो जाने के कारण हमें कानपुर आना पड़ा। (1976 से 1979 की कहानी फिर कभी विस्तार से)

जागरण में पुनः वापसी

यहां हालात कुछ ऐसे हुए कि पिताजी को नौकरी के लिए एक बार फिर नरेंद्र मोहन जी के पास जाना पड़ा। हम सब जागरण के बाद खड़े थे। नरेंद्र मोहन पिताजी से बहुत प्रेम से मिले और जैसे ही पता चला हम लोग बाहर हैं वह उठकर मिलने आए।

और अम्मा से कहा भाईसाहब को मना करता रहा कि नौकरी मत छोड़िए लेकिन ये नहीं माने इन्होंने अपना बहुत नुकसान किया है लेकिन अब इन्हें वरिष्ठता नहीं मिलेगी नए सिरे से नौकरी करनी होगी।

उन्होंने पिताजी को वापस रख लिया और कुछ दिन बाद लखनऊ भेज दिया जहां जरूरत थी।

अंतिम क्षण तक पत्रकारिता

लखनऊ जागरण में पिताजी 1980 से 1992 निधन होने तक रहे। इस बीच वह पुनः मुख्य उपसंपादक हुए और न्यूज एडीटर तक रहे। 1988 में वह रिटायर हो गए लेकिन अंतिम वेतन पर वह काम करते रहे।

इसमें लखनऊ के स्थानीय संपादक स्व. विनोद शुक्ल का बहुत अधिक सहयोग मिला। इस दौरान वह पार्किंसन रोग के शिकार भी हो गए थे लेकिन कार्यालय जाते रहे। 10 दिसंबर 1992 को छत से गिर जाने से उनका निधन हो गया।

बाबा का साहित्य तो मै सामने ले आया और वाणी प्रकाशन आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ग्रंथावली का प्रकाशन कर रहा है। लेकिन पिताजी का साहित्यिक योगदान सामने लाना अभी बाकी है। दिक्कत ये है कि उस दौर के लोग लिखते चले जाते थे लेकिन संग्रह नहीं करते थे। अब ढूंढना पड़ेगा तब उनका साहित्यिक योगदान सामने आएगा। ये मेरे ऊपर पितृऋण है जिसे उतारने का मै भरसक प्रयास करूंगा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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