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सड़ती रही पति-पत्नी की लाश, कुछ ऐसा भयानक महामारी का खौफ
आज शहरों से पलायन करके गांव आ रहे लोगों में यदि कोई कोरोना पाजिटिव निकल आता है तो उसे अपराधी नहीं मानना चाहिए वह किसी के भी घर का हो सकता है। हां हमें बाकी नियमों सामाजिक दूरी का पालन करना चाहिए और लोगों से करवाना भी चाहिए।
रामकृष्ण वाजपेयी
कोरोना-कोरोना-कोरोना। हर तरफ से एक ही आवाज आ रही है। कुछ लोग दहशत से मर रहे हैं, तो कुछ निर्द्वंद्व होकर कोरोना को आगोश में लेकर मरने और दूसरों को मारने के लिए कोरोना बम बनकर घूम रहे हैं। इन्हें सरकार के लॉकडाउन से कोई सरोकार नहीं। कुछ दुकानदार भी गलियों में अपनी दुकानों पर भीड़ लगाकर पांच से दस गुना दाम पर गुटखा सिगरेट, सुर्ती खैनी और पान मसाला बेच रहे हैं।
वहीं कुछ ऐसे भी हैं मास्क पहनकर जान जोखिम में डालकर घर परिवार से दूर रहकर गरीबों और भूखों तक भोजन पहुंचा रहे हैं। वहीं अस्पतालों में हमारे स्वास्थ्य कर्मी कोरोना पॉजिटिव मरीजों की जान को बचाने में लगे हैं। दहशत में उनका परिवार भी है लेकिन कोई लॉकडाउन का उल्लंघन नहीं कर रहा है।
ये है 2020 का लॉकडाउन जिसमें शहरों में महामारी के रूप में कोरोना आया है। शहरों से गांव की ओर लोग भाग रहे हैं। लेकिन इससे करीब सवा सौ साल पहले 1890-1910 के बीच भी देश में एक महामारी आयी थी जिसमें सबसे पहले चूहे मरने शुरू हुए थे। ये महामारी गांव गांव में फैली थी उस समय गांव के गांव उजड़ गए थे।
तब गांव से शहरों को पलायन हुआ था
आज हम शहरों से गांव की ओर पलायन देख रहे हैं उस समय गांव से शहरों की ओर पलायन हुआ था। मेरे बाबा आचार्य किशोरी दास वाजपेयी बताते थे कि उस समय उस महामारी को ताइन या ताउन नाम दिया गया था। इसमें बुखार आता था गिलटियां निकलती थीं और आदमी की डेथ हो जाती थी।
मेरे परबाबा परदादी कानपुर जनपद के मंधना स्टेशन के पास रामनगर गांव में रहते थे। गांव में उनका रुतबा और रुआब था। उनका नाम सत्तीदीन था लोग उन्हें शूरमा भाई कहा करते थे। वह घोड़े पर सवार होकर चला करते थे उनके साथ दस बारह घुड़सवारों का दस्ता हर वक्त रहा करता था। रामनगर में आज भी लोग हमें शूरमा भाई का खानदानी कहकर ही बुलाते हैं।
खैर मेरे बाबा उस समय दस बारह साल के रहेंगे जब प्लेग फैली। प्लेग रामनगर में नहीं आयी थी लेकिन कानपुर के तमाम गांवों को उसने अपनी चपेट में ले लिया था। इन्हीं गांवों में एक गांव में मेरे बाबा की बहन की ससुराल थी।
बेटी के गांव में प्लेग फैलने की बात सुनकर मेरे परबाबा अपनी बेटी को लिवाने उसके गांव गए और लौटते समय उन्हें प्लेग ने जकड़ लिया। दो दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई। इस बीच उनकी सेवा करते हुए मेरी परदादी को भी प्लेग ने जकड़ लिया और दो दिन बाद उनकी भी मृत्यु हो गई।
सड़ती रहीं पति-पत्नी की लाशें
सोशल डिस्टेंसिंग टर्म भले आज हो लेकिन उस समय भी इसका पूरी कट्टरता से पालन होता था। मेरे परबाबा परदादी की लाशें गांव में पांच दिन पड़ी रहीं कोई उन्हें श्मशान ले जाने वाला नहीं था। इसबीच गांव में रहने वाले बाबूराम नामके एक सज्जन ने हिम्मत जुटाई और बैलगाड़ी पर दोनो की लाशों को डालकर गंगा जी तक पहुंचाया।
लेकिन इस सोशल डिस्टेंसिंग का लोगों के मन पर क्या प्रभाव पड़ता है। मेरे बाबा जो उस समय बच्चे थे उनके बालमन पर कुछ ऐसा असर हुआ कि फिर वह पलटकर कभी गांव नहीं गए। गांव में जो भी संपत्ति थी उसके प्रति कभी मोह नहीं हुआ।
आज भी जो लोग कोरोना में अपने परिवार के सदस्यों को खो रहे हैं हमें उनके प्रति विनम्र रुख अपनाना चाहिए। कोरोना प्लेग जितना खतरनाक नहीं है। इन लोगों की अंत्येष्टि में कोई विवाद नहीं होना चाहिए।
आज शहरों से पलायन करके गांव आ रहे लोगों में यदि कोई कोरोना पाजिटिव निकल आता है तो उसे अपराधी नहीं मानना चाहिए वह किसी के भी घर का हो सकता है। हां हमें बाकी नियमों सामाजिक दूरी का पालन करना चाहिए और लोगों से करवाना भी चाहिए।