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अवध की इस रानी लक्ष्मीबाई ने आजादी के लिए न्यौछावर कर दी रियासत

आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व नयौछावर करने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के जीवन पर आधारित फिल्म मणिकर्णिका दुनिया भर के 50 देशों में हिंदी, तमिल और तेलगू भाषा में रिलीज हुई और इस फिल्म को भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दर्शकों ने खूब पसंद किया।

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Published on: 2 Aug 2020 5:01 AM GMT
अवध की इस रानी लक्ष्मीबाई ने आजादी के लिए न्यौछावर कर दी रियासत
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तेज प्रताप सिंह

गोंडा: आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व नयौछावर करने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के जीवन पर आधारित फिल्म मणिकर्णिका दुनिया भर के 50 देशों में हिंदी, तमिल और तेलगू भाषा में रिलीज हुई और इस फिल्म को भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दर्शकों ने खूब पसंद किया। भारत देश में शौर्य, बलिदान और त्याग की पराकाष्ठाओं के अनेक उदाहरण मौज़ूद हैं। तमाम ऐसे नायक नायिकाओं को वह पहचान नहीं मिल पाई, जिसके वह हक़दार हैं।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही आजादी के लिए अवध क्षेत्र में हिमालय की शिवालिक पर्वत माला से सटे राज्य तुलसीपुर की एक ऐसी ही क्षत्राणी वीरांगना और अवध में रानी लक्ष्मीबाई के नाम से मशहूर रानी राज ऐश्वरी देवी उर्फ ईश्वरी कुमारी देवी भी ने भी सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। लेकिन इतिहासकार और सरकारों की उपेक्षा से तुलसीपुर के गौरवशाली रियासत का इतिहास आज धूल धुसरित है। रानी ईश्वरी देवी भले ही अपनी मातृभूमि को दोबारा न पा सकीं, लेकिन उनके द्वारा छेड़ी गई जंग कालान्तर में इतनी तेज़ हुई कि अंग्रेज़ों को भारत छोड़ना पड़ा।

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अवध की रानी लक्ष्मीबाई बनीं ईश्वरी देवी

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह अवध की रानी लक्ष्मीबाई के नाम से मशहूर रहीं तुलसीपुर की रानी राज ऐेश्वरी देवी उर्फ ईश्वरी देवी ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के सामने झुकने से इनकार कर दिया था। रानी ने ठान ली थी कि वे जीते जी तुलसीपुर को अंग्रेजों के हवाले नहीं करेंगी। उन्होंने अंग्रेजों की अधीनता से अच्छा अपने को न्यौछावर कर देना समझा। यही कारण था स्वाधीनता के प्रथम संग्राम सन 1857 में तुलसीपुर का राज महल ब्रिटिश हुकूमत के विद्रोहियों की शरण स्थली बना था। अंग्रेजी हुकूमत के बढ़ते प्रभाव से कई रियासतें अंग्रेजों के भय से दासता स्वीकार कर रहीं थी। लेकिन अंग्रेजों की नजर गोंडा जिले की रियासतों पर थी। तुलसीपुर रियासत उनकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा थी जहां स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी पहले से ही ज्वाला बन चुकी थी। तुलसीपुर के राजा दृग नारायण सिंह प्रारंभ से ही अंग्रेजों के खिलाफ थे। इसलिए वह उनकी आखों में खटक रहे थे। महाराजा उस समय अपने ननिहाल डोकम जिला बस्ती में थे और उनकी सेना राज्य के कमदा कोट में थी। इसी बीच अंग्रेज अफसर बिंग फील्ड ने वहां पहुंचकर सैनिकों को बताया कि राजा ने अधीनता स्वीकार कर ली है। इस छल से जब सेना कब्जे में हो गई तो बिंग फील्ड ने राजा के ननिहाल पर आक्रमण कर उन्हें बंदी बना लिया और लखनऊ के बेलीगारद बंदीगृह में डाल दिया। जानकारी मिलते ही महारानी ईश्वरी देवी ने आंदोलन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। गोंडा के अंग्रेज कलेक्टर ब्वायलू तुलसीपुर राज्य पर अमानवीय अत्याचार करने लगा। तब रानी के समर्थक स्वतंत्रता सेनानी नवयुवक फजल अली ने 10 फरवरी 1857 ई. को कमदा कोट के पास ब्वायलू का सिर कलम कर दिया।

इससे क्रोधित अंग्रेजों ने सैकड़ों निरीह लोगों की नृशंस हत्या कर दिया। नौ जून 1857 ई. को जब सकरौरा की छावनी में सैनिकों ने विद्रोह किया तो महारानी ईश्वरी देवी ने रानी लक्ष्मीबाई की तरह इस विद्रोह का बागडोर संभाला और अंग्रेजी फौजों से मोर्चा लेती रहीं। उनके पराक्रम से अंग्रेज पीछे भी हट गए। इसी बीच गोंडा के राजा देवी बख्श सिंह घाघरा और सरयू के मध्य क्षेत्र मंहगूपुर के समीप अंग्रेज सेनापति कर्नल वाकर से युद्ध में पराजित हुए और उतरौला के रास्ते राप्ती नदी पार कर तुलसीपुर की रानी के शरण में आ गए। दूसरी ओर अंग्रेजों द्वारा पीछा किए जाने पर बेगम हजरत महल, बिरजिस कद्र, नानाजी व बालाजी राव ने भी तुलसीपुर में शरण ली। 25 वर्षीय रानी अपने ढाई वर्षीय दुधमुंहे राज कुमार तीर्थराम सिंह के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोले हुए थीं, लेकिन शरणार्थियों को की जान बचाने के लिए वे युद्ध से पीछे हटीं और सभी को लेकर नेपाल के दांग-देवखुर स्थित घाटियों में चली गईं। दांग-देवखुर की घाटियां उन दिनों बिरजिस कदर व बेगम हजरत महल समेत अवध के हजारों पराजित बागियों का अभयारण्य बनी थी।

जहां मलेरिया बीमारी फैलाने वाले कीटाणुओं की भरमार रहती थी। प्रसिद्ध साहित्यकार और लेखक डा. जगदेव सिंह ने अपनी पुस्तक ‘गोंडा अतीत एवं वर्तमान‘ में लिखा है कि दांग में कौओं को भी जूड़ी आती थी। दांग की अपेक्षा देवखुर की जलवायु कालापानी के समान प्राण घातक थी। इसी डर से अंग्रेज सेनाएं दांग देवखुर में प्रवेश नहीं करती थीं। लेकिन अवध की इस रानी लक्ष्मीबाई का देहावसान कब हुआ इस विषय में इतिहास मौन है। रानी ऐश्वर्य राजेश्वरी देवी की वीरता की कहानी इतिहासकार पवन बख्शी ने अपनी पुस्तक बलरामपुर सार संकलन में प्रस्तुत किया है। किताब के अनुसार नेपाल में रानी द्वारा बसाया गया तुलसीपुर नगर उप महानगर पालिका और दांग का मुख्यालय है। महारानी ईश्वरी देवी की वीरता का गवाह उनके द्वारा बनवाया गया जोड़ग्गा पोखरा भी मौजूद है।

राज्य का भय भी रानी को नहीं डिगा पाया

बिरजिस कदर और बेगम हजरत महल को दबोचने के लिए अंग्रेज सेनापतियों जनरल होपग्रांट व ब्रिगेडियर रोक्राफ्ट ने तुलसीपुर का रुख किया तो यह विकल्प खुला रखा कि ईश्वरी देवी अवध की बेगम हजरत महल व उनके पुत्र बिरजिस को उन्हें सौंप दें और निर्भय राज करें। रानी को बहुत प्रलोभन दिए गए कि वह हथियार डाल दे व ब्रितानियों की सत्ता स्वीकार कर ले। तब उनका जब्त किया हुआ राज्य उन्हें वापस कर दिया जाएगा। पर रानी ने आत्म समर्पण के बजाय बेगम हजरत महल की तरह देश के बाहर निर्वासित जीवन बिताना स्वीकार किया।

ईश्वरी देवी ने उनके प्रस्ताव का जवाब देने में भी अपनी तौहीन समझी और सहयोगियों मेंहदी हसन व बालाराव के साथ उन्हें रोकने निकल पड़ीं। यह जानते हुए भी कि उनके मुट्ठी भर सैनिक विशाल अंग्रेजी सेना का कुछ बिगाड़ नहीं पाएंगे, उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक बिरजिस और बेगम हरत महल अचवागढ़ी से सुरक्षित निकल नहीं जाते, वे फिरंगियों को तुलसीपुर में घुसने नहीं देंगी। युद्ध के दौरान जैसे ही संदेशवाहकों ने ईश्वरी कुमारी को बताया कि बिरजिस व बेगम गढ़ी से सकुशल निकल गए हैं, उन्होंने अचानक सैनिकों के साथ कदम पीछे खींचे नेपाल स्थित दांग-देवखुर की घाटियों में चली गईं।

तुलसीपुर राज्य की भौगोलिक स्थिति

तुलसीपुर राज्य की उत्तरी सीमा वर्तमान नेपाली प्रदेशों और दक्षिणी सीमा वर्तमान भारतीय क्षेत्रों में शामिल रही है। नेपाल में यह 22 राज्यों में से एक राज्य तुलसीपुर-दांग के रूप में और भारत में इसे तुलसीपुर परगना के रूप में जाना जाता था। जो अवध के सबसे बड़े तालुकों में से एक था। तुलसीपुर के चौहानों ने भारत में अवध के सबसे बड़े तालुकों में से एक पर शासन किया, जिसमें तब नेपाल की दांग और देवखुरी घाटियां शामिल थीं। सन 1760 ई. में गोरखाली राजा पृथ्वी नारायण द्वारा छीने जाने से पहले और 1857 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उद्घोषणा के बाद तुलसीपुर के राजा ने कगारे (वर्तमान चौघेरा नेपाल) से शासन किया था। उनके राज्य में डांग-देवखुरी-तुलसीपुर (वर्तमान दांग तुलसीपुर, नेपाल), मिर्च (वर्तमान में छिली नेपाल), फलाबंग (वर्तमान नेपाल), कागरे (वर्तमान में चौघेरा, नेपाल) और तुलसीपुर (वर्तमान भारत) सहित विस्तृत क्षेत्र शामिल थे। इसके उत्तर में बाल्यान (वर्तमान नेपाल) और दक्षिण में बलरामपुर (वर्तमान भारत) की सीमा के साथ यह राज्य लगभग 150 मील की दूरी पर था।

तब तुलसीपुर-डांग के राजा का ग्रीष्मकालीन महल उत्तर में और सर्दियों का महल दक्षिण में होता था। दक्षिणी महल के चंद अवशेष अभी भी बलरामपुर के पास तुलसीपुर गांव के दक्षिणी भाग में हैं। उसी रियासत को नेपाल में डांग-तुलसीपुर राज्य के नाम से जाना जाता था। पुराने उत्तरी महल महल के किले की शेष दीवारें तुलसीपुर-डुंगौरा-देवखुरी-काओगेरा क्षेत्र (वर्तमान चौघेरा तुलसीपुर, नेपाल) में हैं। तुलसीपुर राजा गर्मियों के महीनों में उत्तरी महल और सर्दियों के महीनों के दौरान दक्षिणी महल का उपयोग करते थे। बलरामपुर के उत्तरी सीमा पर वर्तमान में 25 हजार किमी ऊंचाई पर बसे नेपाल देश के भीतरी मधेश का जिला दांग पहले तुलसीपुर राज्य क्षेत्र में आता था। जो नवाब आसफुद्दौला के शासनकाल तक कायम रहा। वर्तमान बांके और वर्दिया जिले तुलसीपुर के परगने हुआ करते थे, जिन्हें सुगौली संधि के पश्चात साल 1860 में ब्रिटिश सरकार ने विद्रोहियों को कुचलने में सहयोग करने वाले अपने मित्र नेपाल के राजा जंग बहादुर राणा को पुरस्कार स्वरुप दे दिया था। वर्तमान भारत में तुलसीपुर रियासत अवध के बलरामपुर जिले की एक तहसील है।

तुलसीपुर-दांग साम्राज्य की स्थापना

मध्यकालीन इतिहास के अनुसार पिता सोमेश्वर चौहान की 1177 ई. में मृत्यु के बाद पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) उर्फ राय पिथौरा 1178 में दिल्ली और अजमेर के राजा हुए। 1192 ई. में मुगल सुलतान शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी के साथ हुए तराइन के द्वितीय युद्ध में बंदी बनाए गए पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) उर्फ राय पिथौरा की मौत हो गई। लेकिन लड़ाई जीतने के बाद गौरी ने अधिक मालगुजारी देने के वायदे पर राजा पिथौरा के पुत्र गोविन्द राय उर्फ कोलाराव को अजमेर का राजा बना दिया। गौरी के गजनी चले जाने के बाद उसके सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने गोविन्द राज को निकाल दिया और उसके पूरे खानदान को खत्म करने की योजना बनाने लगा। इसकी भनक मिलते ही राय पिथौरा के भतीजा और हरिराज का पुत्र मेहवाराव उर्फ भूराराव चित्तौड़गढ से भागकर शिवालिक की पहाड़ियों में आकर नेपाल नरेश की शरण में पहुंच गया। नेपाल नरेश ने शिवालिक की पहाड़ियों के कुछ हिस्से पर कब्जा कर उसे आबाद करने के लिए दांग, देवखुर, भालादांग, झबरीदांग, समाधी कोट आदि का इलाका भूराराव को दे दिया। भूराराव ने यहां अपना राज्य स्थापित किया।

पिथौरा चौहान के वंशज राजा सिंहराज के पुत्र राजा मेघराज सिंह ने 1325 ई. में हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों में तुलसीपुर-दांग राज्य की पुर्नगठन किया। हिंदू शास्त्रों में भगवान शिव का अवतार माने गए गुरु गोरखनाथ की तीसरी पीढ़ी के संत योगी बाबा रतन नाथ के मठ में उपलब्ध अभिलेख 13 वीं शताब्दी की शुरुआत में पृथ्वीराज चौहान (राय पिथौरा) के भतीजे भूरा राव के वंशजों में मेघराज सिंह चौहान को तुलसीपुर के राजा के रूप में दर्शाता है। 1325 ई में जन्मे राजा मेघराज सिंह ने 1385 ई तक निचले हिमालय में दांग, देवखुर और राप्ती की तीन घाटियों सहित विशाल भूमि पर शासन किया। कहा जाता है कि बाबा रतन नाथ ने राजा मेघराज और उनके वंशजों द्वारा शासित होने के लिए पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण में 84 कोश (लगभग 150 मील) में राज्य का आशीर्वाद दिया। तब तुलसीपुर साम्राज्य उत्तर में नेपाल का सल्याण और पायुथान राज्य, दक्षिण में बलरामपुर रियासत, पूर्व में मादी खोला (नेपाल) और अरनाला नदी बस्ती और पश्चिम में बहराइच तक फैला रहा है। 20वीं शताब्दी में तुलसीपुर भारत के अवध क्षेत्र में एक छोटा सा राज्य था जो ब्रिटिश राज के तहत आगरा और अवध का संयुक्त प्रांत बन गया।

मेघराज ने बनवाया रतन नाथ का मंदिर

राजा मेघराज सिंह ने अपने राज्य के उत्तरी भाग में (वर्तमान नेपाल में चौघेरा-तुलसीपुर-दांग) बाबा रतन नाथ के लिए एक मंदिर बनवाया। बाबा रतन नाथ ने गोरखनाथ की इच्छानुसार मेघराज ने राज्य के दक्षिणी भाग (वर्तमान में बलरामपुर के तुलसीपुर गांव) में पाटन देवी मंदिर की स्थापना की। यह मंदिर नेपाल और भारत की सीमा में हिंदुओं द्वारा प्रतिष्ठित 51 शक्ति पीठों में से एक है। कहा जाता है कि जब भगवान शिव अपनी पत्नी सती की लाश को ले जा रहे थे, तब सती का दाहिना कंधा यहां गिरा था। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि देवी सीता ने इस स्थान पर पृथ्वी में प्रवेश किया था। कहा जाता है कि राजा मेघराज को आशीर्वाद देकर बाबा रतन नाथ अपने मिशन पर चले गए।

तुलसीपुर-दांग के शासक

इतिहासकारों के अनुसार, दिल्ली और अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) उर्फ राय पिथौरा के भतीजे और हरिराज के पुत्र मेहवाराव उर्फ भूराराव चित्तौड़गढ से भागकर शिवालिक की पहाड़ियों की में आया और नेपाल नरेश की सहायता से तुलसीपुर-दांग राज्य स्थापित किया। भूरा राव के बाद उनके वंशज हुज्जत राव, पृथ्वीराज, शक्ति सिंह सहाय, शिवजीत, सिकन्दर सहाय, मेघराज, बहादुर सिंह, देव सिंह, अनूप सिंह, उदित सिंह, तेज सिंह के बाद यहां के 40 वें शासक राजा नवल सिंह (1715 से 1790 ईस्वी) ने शासन किया। उस समय राजा नवल के राज्य की सीमाएं मैडी नदी (वर्तमान में मादड़ी खोला के नाम से जानी जाती हैं), दक्षिण में बलरामपुर और उत्तर और पश्चिम में सल्यान था। राजा नवल सर्दियों के महीनों के दौरान दक्षिणी महल में और गर्मियों में पहाड़ों पर बने उत्तरी महल में रहते थे। गोरखाली और साल्यानी राजा ने उन्हें 1786 के युद्ध में पराजित करके अपनी भूमि के दक्षिणी भाग यानी तुलसीपुर जाने के लिए मजबूर कर दिया गया था। तब उन्होंने अपने दक्षिणी महल से तुलसीपुर पर राज्य पर शासन किया। नवल सिंह के बाद उनके पुत्र दलेल सिंह राजा हुए, जिनके दो पुत्र दान बहादुर सिंह और दृगराज सिंह रहे।

पिता दृगराज सिंह के बाद विद्रोही स्वभाव के दृग नारायण सिंह 1852 ई. में तुलसीपुर के राजा हुए। उन्होंने अंग्रेजों से माफी को खारिज कर दिया था और लगातार युद्ध छेड़ रखा था। ब्रिटिश हुकूमत ने छल से राजा दृग नारायण सिंह को कैद करा लिया और लखनऊ के बेलीगारद में नज़रबंद कर दिया जहां बाद में उनकी गोली मार कर हत्या कर दी गई। अंग्रेजों से युद्ध के बीच ही रानी ईश्वरी देवी दांग देवखुर की पहाड़ियों में चली गईं जहां उनकी मौत हुई। रानी ने अपने पुत्र को दक्षिणी नेपाल के विभिन्न हिस्सों में छिपाकर रखा। रानी के बाद उनके पुत्र राज कुमार तीर्थराम सिंह की भी मृत्यु 1867 ईस्वी में हो गई। 19 वीं शताब्दी में राज कुमार तीर्थराम सिंह के पुत्र हर दयाल सिंह के बाद सरदार ज्वाला सिंह, दिलीप सिंह एवं बीसवीं शताब्दी में बाबूसाहेब ठकुरी प्रचंड सिंह, ज्वाला प्रताप सिंह उनके पुत्र आदिराज वर्धन और सम्राज्य वर्धन वर्तमान में तुलसीपुर राजवंश के कुलदीपक हैं।

साल 1786 में नेपाल का हिस्सा बना दांग

राजा नवल सिंह चौहान के कार्यकाल में तुलसीपुर-दांग रियासत के विशाल राज्य की सीमाएं उत्तर में साल्यान साम्राज्य (नेपाल), दक्षिण में बलरामपुर साम्राज्य (भारत), पूर्व में मड़ी नदी (मादड़ी खोला, नेपाल) और अरनाला नदी (भारत का बस्ती जिला) और पश्चिम में बहराइच था। सन 1760 में जबकि राजा नवल सिंह चौहान सर्दियों के महीनों के दौरान दक्षिणी महल में थे, उनकी उत्तरी भूमि तुलसीपुर-डांग-मिर्च-फलाबंग को गोरखाली राजा पृथ्वी नारायण शाह ने कब्जा कर लिया। राजा नवल ने लगभग 25 वर्ष तक युद्ध जारी रखा लेकिन वह अंततः हार गए। तब 1786 ई. में नेपाली प्रदेशों में स्थित उनकी सभी भूमि नेपाल को सौंप दी गई। नतीजतन राजा नवल सिंह चौहान को बलरामपुर (वर्तमान में भारत में) के पास अपनी भूमि के दक्षिणी भाग में जाने के लिए मजबूर हुए और उन्होंने तुलसीपुर के राजा के रूप में अपने दक्षिणी महल से शासन किया। हालांकि तुलसीपुर के राजा ने इन जमीनों पर अपना दावा जारी रखा। जो 1786 ई में नेपाल के अंतिम एकीकरण के बाद समाप्त हुआ।

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तुलसीपुर रियासत का अंत

रानी ईश्वरी देवी और अन्य विद्रोहियों के पलायन के बाद अंतिम राज्य तुलसीपुर पर भी अंग्रेजों का कब्जा हो गया। मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे सभी विद्रोही राजाओं की रियासतें 10 अप्रैल 1859 ई को ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा जब्त कर ली गईं। इसी के साथ तुलसीपुर रियासत का अंत करके इसके ध्वज को भी नष्ट कर दिया गया और तुलसीपुर राज्य को बलरामपुर के राजा को दे दिया गया। आजाद भारत में तुलसीपुर बलरामपुर जिले की एक तहसील है। इस प्रकार तुलसीपुर साम्राज्य की संप्रभुता खत्म हुई और हजारों वर्षों तक चले इस गौरवशाली चौहान राजवंश का शासन समाप्त हो गया।

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