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World Photography Day: वो यादगार तस्वीरें, जिन्होंने इतिहास रच दिया
अंततः आंखों से दिखाई देने वाले दृश्य को कैमरे की मदद से एक फ्रेम में बांधना, प्रकाश व छाया, कैमरे की स्थिति, ठीक एक्सपोजर तथा उचित विषय का चुनाव ही एक अच्छे फोटो को प्राप्त करने की पहली शर्त होती है। यही कारण है कि आज सभी के घरों में एक कैमरा होने के बाद भी अच्छे फोटोग्राफर गिनती के हैं।
निराला त्रिपाठी
कुछ ऩजर की बात “एक अच्छी तस्वीर हज़ार शब्दों के बराबर होती है। ” फोटोग्राफी का आविष्कार जहां संसार को एक दूसरे के करीब लाया, वहीं साझा संस्कृतियों और इतिहास को समृद्ध बनाने में भी इसने बड़ा योगदान दिया। निसंदेह वैज्ञानिक आविष्कारों ने फोटोग्राफी की दुनिया को समृद्ध किया है किंतु क्या सिर्फ अच्छे साधन या तकनीकी उपकरण ही अच्छी तस्वीर प्राप्त करने की गारंटी दे सकते हैं या फिर मानव दिमाग एवं दृष्टि का बेहतर तालमेल?
तकनीक चाहे जैसी तरक्की करे, उसके पीछे कहीं न कहीं दिमाग ही काम करता है। यही फर्क मानव को अन्य प्राणियों में श्रेष्ठ बनाता है। फोटोग्राफी में भी अच्छा दिमाग ही अच्छी तस्वीर प्राप्त करने के लिए जरूरी है।
हर प्राणी के पास कैमरा है उसकी आँख
वैसे तो प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी को जन्म के साथ ही एक कैमरा दिया है जिससे वह संसार की प्रत्येक वस्तु की छवि अपने दिमाग में अंकित करता है। वह कैमरा है उसकी आंख।
इस दृष्टि से देखा जाए तो प्रत्येक प्राणी एक फोटोग्राफर है। आदिम युग में जब कोई तकनीक ना होने के कारण इंसान के पास किसी तरह के हाईटेक कैमरे नहीं थे, तब भी वह तस्वीरें उकेरा करता था।
प्राचीन गुफाओं में बनाए गए भित्तीय चित्र इस बात के गवाही देते हैं। इन चित्रकारियों के ज़रिये वो आने वाली पीढ़ियों के लिए बहुमूल्य सौगात छोड़ गए हैं। इसी प्रयास में मिलने वाली सफलता के दिन को हम विश्व फोटोग्राफी दिवस के रूप में मनाते हैं।
19 अगस्त विश्व फोटोग्राफी दिवस क्यों
1839 में सर्वप्रथम फ्रांसीसी वैज्ञानिक लुईस जेकस तथा मेंडे डाग्युरे ने फोटो तत्व को खोजने का दावा किया था। ब्रिटिश वैज्ञानिक विलियम हेनरी फॉक्सटेल बोट ने नेगेटिव-पॉजीटिव प्रोसेस ढूंढ लिया था।
1834 में टेल बॉट ने लाइट सेंसेटिव पेपर का आविष्कार किया जिससे खींचे चित्र को स्थायी रूप में रखने की सुविधा प्राप्त हुई।
फ्रांसीसी वैज्ञानिक आर्गो ने 7 जनवरी 1839 को फ्रेंच अकादमी ऑफ साइंस के लिए एक रिपोर्ट तैयार की। फ्रांस सरकार ने यह प्रोसेस रिपोर्ट खरीदकर उसे आम लोगों के लिए 19 अगस्त 1939 को फ्री घोषित किया। यही कारण है कि 19 अगस्त को विश्व फोटोग्राफी दिवस मनाया जाता है।
पहली पत्रिका जिसमें फोटो छपे
फोटोग्राफी से सज्जित पहली पत्रिका का प्रकाशन 1842 में सप्ताहिक दि इलस्ट्रेटेड लन्दन न्यूज के प्रकाशन से हुआ। इसका प्रकाशन आरम्भ होने के बाद आबजरवर, सन्डे टाइम्स और विकली क्रोनिकल में धीरे-धीरे रेखाचित्रों का प्रकाशन बंद हो गया।
फोटो पत्रकारिता में फोटो के प्रयोग से पत्रकारिता का स्वरूप ही बदल गया हैं। आज का दौर तकनीक का दौर है। इस दौर में भले ही कैमरे डिजिटल हो गये हैं और फोटो की प्रोसेसिंग बेहद तेज और सस्ती हो गई है लेकिन फोटोग्राफी के मूल सिद्धान्त अभी भी जस के तस हैं।
‘फोटोग्राफी का शौक़, अलग नज़रिया, दुनिया की खबर और जोखिम की आदत.... मिलकर एक फोटोजर्नलिस्ट को सर्वश्रेष्ठ बनाते हैं।’
फोटोग्राफी मात्र तकनीक आधारित व्यवसाय नहीं है यह एक कला भी है। आज भी एक अच्छी तस्वीर तकनीक पर कम, फोटो खींचने के हुनर और अनुभव पर ज्यादा निर्भर करती है। जहां तक इस दौर में फोटोजर्नलिस्म का सवाल है तो अब यह कला, तकनीक और न्यूजसेंस तीनों का संगम है।
तकनीक जहां काम को आसान बना रही है और समय व संसाधन की बचत में सहयोग कर रही है वहीं इस दौर में कला का महत्व और बढ़ गया है वहीं न्यूज़सेंस के बिना फोटो का महत्व ही शून्य हो जाता है।
घंटों मशक्कत अब नहीं
पहले के दौर में जब किसी फोटो पत्रकार को एक अच्छा स्नैप लेने के लिये घंटो मशक्कत करनी पड़ती थी और सेकेंड भर की चूक से उसकी दिन भर की तपस्या पर पानी फिर जाता था।
वहीं अब तकनीक ने फोटो पत्रकारों को इस चिंता से मुक्त कर दिया है कि पता नहीं लिया गया शॉट सही रहा या नहीं। अब बर्स्ट शॉट से एक सेकेंड में तीस फ्रेम उतर आते हैं और आप सबसे अच्छे का चुनाव कर सकते हैं बिना किसी अतिरिक्त लागत के। जबकि पहले किसी इवेंट के चार शॉट लेना भी बेहद महंगा साबित हो जाता था।
इसके बावजूद बिना न्यूजसेंस और आर्टिस्टिक एप्रोच के आज भी एक अच्छी फोटो लेना उतना ही मुश्किल है जितना पहले था। बदलाव तकनीक के स्तर पर आए हैं लेकिन उनका सही फायदा तभी उठाया जा सकता है जब आप तकनीक में महरथ रखने के साथ साथ फोटोग्राफी और पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों की भी समझ रखते हों। कहते हैं न लेंस से पहले आंख देखती है।
उदाहरण के लिए, वियतनाम युद्ध के दौरान 1973 में फॉटोग्राफर निक उट के द्वारा खींची गई ‘नेपाम की बच्ची’ का फोटो
बीते बीस बरस में फोटोग्राफी मैनुअल से डिजिटल का सफर तय करती हुई आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस की मंजिल तक पहुंच गई है। मीडिया के अलग अलग प्लेटफार्म ने भी जहां एक तरफ ढेरों मौके दिये हैं वहीं चुनौतियां भी पेश की हैं। इन्ही बदलावों पर चर्चा कर रहे हैं लखनऊ के कुछ वरिष्ठ फोटो पत्रकार जिन्होंने पिछले तीन दशकों में ब्लैक एंड व्हाइट से कलर होते हुए डिजिटल फोटोग्राफी को जिया है।
शुरुआत करते हैं हरफनमौला आर्टिस्ट और बेहद संजीदा लेंस मैन त्रिलोचन सिंह कालरा की
बेहतरीन तसवीरों में से एक तस्वीर और उसकी दास्तान, उन्हीं की जुबानी -
“अखबार की लाइफ में कब आपको किस समय किस खबर का सूत्र मिल जाए कहा नहीं जा सकता। ये तस्वीर तब की हैं जब राष्ट्रीय सहारा से 1996 में छोड़कर हिन्दुस्तान अखबार में काम शुरू किया था।
रात्रिकालीन ड्यूटी कर एक बजे आवास जा रहा था। कपूरथला मोड़ से मुड़ा तो विपरीत दिशा वाली सड़क पर दूर से आते एक वाहन की अगेंस्ट लाइट में कोहरे के बीच स्याह नज़र आते हुए दो इंसानी सायों को सड़क पार करते देखा और सोचा की ये मौसम की अच्छी ऑफ बीट हो सकती है।
जीप थी मगर आगे जा चुकी थी। जैसे ही रोका, संयोग से ड्राइवर राष्ट्रीय सहारा के ब्रज किशोर जी थे। हैरानी में पूछा कि इतनी रात तुम कहाँ? हम तो आपकी जीप की लाइट में तस्वीर के लिए रोक रहे थे।
जुनून से हाथ लगा अवसर
तब तक गाडी की बैक लाइट जली तो देखा अंदर मेरे राष्ट्रीय सहारा के अन्य पूर्व सहकर्मी भी हैं और कानपुर के छायाकार दीपचंद, रिपोर्टर नितेन्द्र लाल दास, कलामखान भी बैठे दिखे। यह समझते अब देर न लगी कि कोई न कोई हादसा या घटना हुई जरूर हैं तभी टीम रात में जा रही है।
थोड़ा टालमटोल करने के बाद टीम ने बताया की आलम नगर के पास कोई ट्रेन दुर्घटना हुई है। टीम के साथ जल्दी हम भी कोहरे में धीरे -धीरे आलम नगर स्टेशन पहुँच गए।
वहां स्टेशन मास्टर साब ने बताया की एक्सीडेंट यहाँ नहीं बल्कि हरदोई के करना और मसीत स्टेशन के पास हुई है। तब तक रात के सवा दो बज चुके थे। तब तक स्टेशन मास्टर बोले कि एक विशेष रेस्क्यू ट्रेन अभी आने वाली है बस उस पर जाएँ तो सबसे पहले पहुँच जायेंगे।
विचित्र आकार के डिब्बों की ट्रेन
निराश होकर हम सब जब बाहर आये तो प्लेटफार्म पर एक विचित्र आकार वाले डिब्बों की ट्रेन सरक रही थी। देखते देखते हम उस ट्रेन के खुले डिब्बे में बैठ कर चल दिए।
रात भर ठण्ड में कुड़कुड़ाते हम तीनों जब बालामऊ पहुंचे तो लखनऊ के डीआरएम श्री भट्टाचार्य ने उस ट्रेन के इंजन में बैठने की जगह दिलाई तब जाकर अलस्सुबह हम इस दुर्घटना स्थल पर पहुंचे।
हर तरफ लाशें ही लाशें
वर्ष 1998 के जनवरी में हुई बरेली-बनारस पैसेंजर पर पीछे से काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस चढ़ गई थी और बड़ी संख्या में यात्री हादसे का शिकार हुए थे। इतनी भीषण दुर्घटना के साक्षी बनने का ये हमारा पहला मौका था। हर तरफ लाशें ही लाशें थीं।
सुबह होते होते उजाला हुआ तो और भयावह हालात दिखे। खून खराबे की तस्वीरें मुख्यपृष्ठ पर तब तक नहीं जाती थीं जब तक कोई बाध्यता न हो, इसलिए मैं किसी ऐसे दृश्य को ढूंढ रहा था जो हादसे का प्रतीकात्मक प्रतिनिधि बन सके।
तभी एक डिब्बे के भीतर से एक हाथ बाहर लटका हुआ था, मैंने मन मन इसी को अपना प्रतिनिधि चित्र मान लिया और साथ के ही लोगों की दृष्टि बचा कर फुजी फिल्म पर शूट किया। दिन चढ़ते लखनऊ से और मीडिया भी आ गया तब तक मैं प्रार्थना करता रहा कि इस दृश्य पर प्रभु किसी की नज़र न पड़ने देना।
पहले पन्नों पर थी हाथ वाली फोटो
अगले दिन के अखबार में हादसे का फोटो फीचर तथा वही हाथ वाली फोटो को ही हिंदी इंग्लिश अखबारों ने मुख्य पृष्ठ पर छापा। यह ईनाम ऐसा था कि इसने छत्तीस घंटों की मेहनत और थकान भुला कर और ऊर्जा भर दी।
इस फोटो को एक राष्ट्रीय फोटो प्रतियोगिता में ‘द हेल्पलेस् हैंड’ के शीर्षक से भेजा तो इस चित्र ने राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाया। बताने का मक़सद सिर्फ इतना है कि अखबार की फोटोग्राफी में पैशन नहीं लेंसमैंन की दुम पर तीतर के बाल होने चाहिए जो बिना घडी देखे मस्त होकर काम करे।
आलसी न हों, नहीं तो क्या जरूरत पड़ी थी कि एक जीप को रोक कर कोहरे से गुजरते हुए लोगों की फोटो करने का ख़याल मन में आता, न जीप रोकता, न इस हादसे के बारे में आपसे बात करता।”
बातचीत के इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए लखनऊ शहर के बेहद संजीदा और सौम्य एवं वरिष्ठ छायाकार मनोज छाबड़ा
अपनी फोटो के संदर्भ में कहते हैं, “ यह जीपीओ पार्क में एक धरने का दृश्य है जिसमें महात्मा गांधी के चित्र के पास जूते चप्पल उतरे पड़े हैं। दिलचस्प ये है कि राष्ट्रपिता के बारे में बहुजन समाज पार्टी की सुश्री मायावती की टिप्पणी के विरोध में धरने का आयोजन काँग्रेस पार्टी ने किया था।
इस तस्वीर के प्रकाशित होने का असर ये हुआ कि देश की कई विधानसभाओं में गांधीजी के अपमान को दर्शाते इस चित्र को लेकर काफी हो-हल्ला हुआ।”
न्यूज़ फोटोग्राफी के पिछले तीन दशकों के बारे में मनोज छाबड़ा जी कहते हैं,
“1975 से 2005 तक जिन फोटोग्राफरों ने मेरे ख्याल से ब्लैक एंड वाइट, कलर व डिजिटल फोटोग्राफी की होगी उनको तीनों तरह की फोटोग्राफी में काम करना पड़ा। निगेटिव फोटोग्राफी अंधेरी दुनिया थी, डिजिटल फोटोग्राफी कलर दुनिया है।
यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि निगेटिव के दौर की फोटोग्राफी में हमें तब तक कुछ नहीं मालूम पड़ता था जब तक कि निगेटिव डिवेलप होकर हमारे सामने नहीं आ जाता था और उस पिक्चर को खींचने के लिए हम चाहे कितने भी कॉन्फिडेंट हों लेकिन एक डर बना रहता था।
लेकिन आज डिजिटल फोटोग्राफी में इधर हमने क्लिक किया और तुरंत देखने को मिल जाता है। इसलिए मैंने ऊपर कहा कि निगेटिव की दुनिया अंधेरी दुनिया थी और डिजिटल की दुनिया त्वरित है।”
वरिष्ठ फोटो जर्नलिस्ट अजय सिंह
जिन्होंने दिल्ली से लखनऊ तक का सफर फोटोग्राफी के विभिन्न आयामों के साथ तय किया है, अपनी 1993-94 के दौरान खींची गई इस तस्वीर की बाबत कहते हैं -
“राज्य में कल्याण सिंह जी की सरकार थी एवं केंद्र में काँग्रेस की। श्रम संगठनों की हड़ताल में राज्य सरकार भी शामिल थी। सुबह सुबह प्रदर्शकारियों ने बर्लिंग्टन चौराहे को घेर रखा था।
प्रदर्शन ज़ोरों पर था। बाएँ हाथ पर प्लास्टर होने के बावजूद मैं घटनास्थल पर पहुंचा तो देखा कि एक बीमार व्यक्ति रिक्शे पर अपने तीमारदारों के साथ सिविल हॉस्पिटल पहुँचने के लिए आंदोलनकारियों से विनती कर रहा था।
किसी तरह एक हाथ से अपर्चर एवं वाइड लेंस की फोकल लेंथ को फिक्स करके एक हाथ से दृश्य को अपने कैमरे मे कैद किया। आंदोलनकारियों एवं अखबार नवीसों के प्रयास से इस परिवार को हस्पताल पहुँचने का मौका मिला।
अगले दिन तस्वीर छपने के बाद आम जन मानस में यह बहस आम हुई कि आंदोलनों, हड़तालों से कैसे जूझता है आम आदमी।”
आज के दौर के बारे में अजय सिंह कहते हैं “निस्संदेह साधन, संसाधन, तकनीक उत्कृष्ट हुई है, किन्तु फोटोग्राफर और फोटो की विश्वसनीयता अवश्य कहीं न कहीं कम हुई है।”
आर.बी. थापा
बातचीत के क्रम को आगे बढ़ाते हुए बात करते हैं शहर के एक ऐसे फोटोजर्नलिस्ट की जिससे उसके सहयोगी फॉटोग्राफर और आम जन मानस ये जानने की कोशिश में रहता था की थापा जी कल क्या छाप रहे हैं।
लगभग 19 साल की उम्र से, वरिष्ठ छायाकार संजीव प्रेमी के शागिर्द रहे आर. बी. थापा, जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस से ले कर उत्तरप्रदेश की राजनीति को बहुत नजदीक से देखा है।
थापा जी बताते हैं – “1993 में के. डी. सिंह बाबू स्टेडियम में भारत-इंग्लैंड के मैच के दौरान जब एक पतंग कट कर मैदान पर आ गिरी, तत्कालीन क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धधू ने पहले तो कुछ देर इस पतंग को उड़ाने का लुत्फ उठाया और फिर पवेलियन में खड़े दर्शकों को थमा दिया।”
वैसे तो कई संस्थानों के छायाकार मौके पर मौजूद थे लेकिन कुछ भी घटित होने पर नज़र रखने के हुनर ने इस तस्वीर को एक्सक्लूसिव और थापा जी को चर्चित बना दिया।
आयाम बदल गए
आज के दौर की न्यूज़ फोटोग्राफी के बारे में वे कहते हैं, “एक अच्छा फोटो पत्रकार बनने के आयाम अब बदल से गए हैं। पहले के समय में लोग कम अच्छे उपकरण होने के बावजूद अपनी लगन और नज़र के दम पर अच्छी तस्वीर निकाल लेते थे। अब लाख अच्छे कैमरे एवं लेंस पर अत्यधिक निर्भरता के कारण लगन एवं नज़र का सामंजस्य कम दिखता है।”
वरिष्ठ साथी आजम हुसैन
मेरे खुद के लखनऊ के दौर के वरिष्ठ साथी आजम हुसैन की यह तस्वीर एक फोटो पत्रकार के संघर्षों को बखूबी बयान करती है। उनके अनुसार “हम छायाकारों को रोज़मर्रा के जीवन में कई सघर्षों का सामना करना पड़ता है। ये हमारी लगन और अपने काम के प्रति हमारा जुनून ही होता है जो सर्दी, गर्मी, बरसात, भीड़भाड़ एवं अनेक विपरीत परिस्थितियों में भी बेहतरीन तस्वीरें निकलवा लेता है।”
“सन 2002 में टीले वाली मस्जिद पर दंगे के दौरान अचानक दंगाई मीडिया पर पथराव व वाहनों को आग लगाने लगे, तभी हमारे वरिष्ठ छायाकार त्रिलोचन जी भी दंगाइयों से अपने वाहन को बचाने के चक्कर में वाहन लेकर गिर गए और देखते ही देखते दंगाई त्रिलोचन जी पर ताबड़तोड़ पथराव करने लगे।
त्रिलोचन का जज्बा
पुलिस भी अचानक हुए पथराव से निपटने के लिए तैयार नहीं थी। हमने चिल्लाकर पुलिस अधिकारियों से त्रिलोचन जी की मदद करने के लिए कहा। लेकिन पुलिस और दंगाइयों के बीच काफ़ी दूरी थी और उन दोनों के बीच त्रिलोचन जी गिरे हुए स्कूटर की आड़ में अपने को बचाते हुए अपने कैमरे में दंगाइयों की तस्वीर भी क्लिक कर रहे थे।
उनके इस जज़्बे और हिम्मत को देखकर हम त्रिलोचन जी की मदद करने के लिए अपने कैमरे से दंगाइयों की तस्वीर क्लिक करते हुए आगे बढ़े और उसी दौरान हमारे कैमरे पर दंगाइयों से घिरे त्रिलोचन जी की भी तस्वीर क्लिक हो गई। लपककर हमने त्रिलोचन जी की स्कूटर उठाई। पुलिसकर्मियों ने त्रिलोचन जी को संभाला लेकिन इस आपाधापी में मेरा स्कूटर दंगाइयों की भेंट चढ़ चुका था।”
वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र- अच्छी फोटो पर बधाई जरूर देता था
फोटो को अखबार में कितनी और कैसी जगह देने का नज़रिया एक संपादक का होता है। पिछले चार दशकों से देश की राजनीति, सामाजिकता एवं घटनाओं पर पैनी नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार और संपादक श्री योगेश मिश्र जी से फोटो पत्रकारिता के बारे में विमर्श कुछ इस तरह से निकल कर आया
“फ़ोटोग्राफ़ी के डिजिटलीकरण ने फ़ोटोग्राफ़रों में हुनर होने के दावे को ख़त्म कर दिया है। पहले कोई भी अच्छी तस्वीर दिखती थी, छपती थी तो फ़ोटोग्राफ़र को फ़ोन करके मैं ज़रूर बधाई देता था।
लगता था उसका कौशल, हुनर बोल रहा है। उसके पास लिमिटेड फ़ोटो खिंचने का अवसर होता था। वह बेहतर एंगिल का इंतज़ार व सटीक समय पर क्लिक करता था। फ़ोटोग्राफ़ी उसके धैर्य की परीक्षा थी।
अब दावे के साथ कोई नहीं कह सकता कौन सी फोटो छपेगी
अब तो वह क्लिक करता रहता है उसे खुद पता नहीं चलता है कि कौन सी फ़ोटो कितनी जँच जायेगी। अब वह इतने क्लिक करता है कि दावे के साथ यह कहना उसके लिए मुश्किल हो जाता है कि यही छपेगी।
फ़ोटोग्राफ़र दावा नहीं कर सकता। वह फ़ोटो के लिए लड़ नहीं सकता। पहले फ़ोटोग्राफ़र रूटीन के साथ ही साथ ऑफ़बीट फ़ोटो पर भी काम करता था। कई बार ऑफ बीट फ़ोटो पहले पेज और प्रायः फ़ीचर पेजों पर जगह पाती थी। अब तो ऑफ बीट फ़ोटो का चलन ही ख़त्म हो गया। हमने बहुत नामचीन फ़ोटो जर्नलिस्ट के साथ काम किया है। राष्ट्रीय सहारा के दिनों में संजय तिवारी जी होते थे। बाद में त्रिलोचन सिंह कालरा जी जुड़े। दोनों ने अपने समय में खूब नाम कमाया।
निराला त्रिपाठी का साथ
आउटलुक के दिनों में निराला त्रिपाठी जी के साथ लंबा साथ रहा। उसने कई यादगार फ़ोटो उतारी। मैगज़ीन के कवर पेज पर फ़ोटो लगना बड़ा नाम व काम माना जाता है।
निराला ने कई बार कवर पर जगह हासिल की। जगह बनाई। हिंदी की आउटलुक में ही नहीं अंग्रेज़ी के आउटलुक को उसकी फ़ोटो को कवर बनाना पड़ा।
अभी आशुतोष त्रिपाठी जी के साथ काम कर रहा हूँ। उनकी एक बूढ़े टाइपिस्ट के टाइपराइटर को पुलिस की लात पड़ने की फ़ोटो ने नाम कमाया। यह न्यूजफोटो थी। न्यूज़ फ़ोटो तो यदि अकेले आप के पास है तब आपकी बल्ले बल्ले। लेकिन सबके पास है तो हिप हिप फुर्रे। न्यूज़ फ़ोटो के लिए श्रेय छायाकार को नही, अवसर को जाता है।
पुराने फोटो जर्नलिस्ट
लखनऊ में सत्यपाल प्रेमी जी, मुन्ने बख्शी जी और बीडी गर्ग, फ़ोटो पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले कह लें या फिर इसका रंग जमाने वाले कह ले, में शामिल थे। मुझे माया में संजीव प्रेमी जी के कई फ़ोटो ख़ूब जँचे। राजू तिवारी जी, आरबी थाबा जी ने भी अपने समय कम कमाल नहीं किया।
अनिल रिसाल सिंह जी, भूपेश लिटिल जी, विशाल श्रीवास्तव जी, मनोज छाबड़ा जी, अनिल शर्मा जी, एरिक जी की कई फ़ोटो जमी और जँचीं। पर इनका सुरूर एक दो दिन ही रहा।
अलबत्ता इंडियन एक्सप्रेस के कई फ़ोटो अभी तक हमारे ज़ेहन में बसे हुए हैं। एक समय शशि थरूर कांग्रेस से नाखुश थे। वह सोनिया गांधी से मिलने पहुँचे शीशे का दरवाज़ा था। सौभाग्य से दोनों दरवाज़े को धक्का देकर खोलना चाह रहे ऑंखें, दोनों के हाथ, एक दूसरे के हाथ पर थे, दोनों धक्का दे रहे थे। पर दरवाज़ा खुल नहीं रहा था।
मैं इंडियन एक्सप्रेस के फ़ोटो का ख़ास। मुरीद हूँ। तकनीकी हमेशा काम आसान करती है , काम छीनती नहीं। पर फ़ोटो जर्नलिस्टों के काम करने के नये तरीक़े ने तकनीकी ने उनका नाम व काम दोनों छीन लिया है।
अंत में भाई संजय त्रिपाठी का जिक्र
कुल मिला कर मेरा यह प्रयास आपको कैसा लगा इस बारे में अपने प्रयास साझा अवश्य करें। बहुत ही कम समय होने के कारण बहुत से साथियों को शामिल नहीं कर पाया लेकिन उन्होंने भी अपनी नज़रों से फोटोग्राफी को समृद्ध किया है। बेहद वरिष्ठ छायाकार और हम सब के दाजू प्रदीप शाह जी की आज की भी सक्रियता और लगन हर नए फॉटोग्राफर को प्रेरित करती है।
वरिष्ठ छायाकार दीपचंद जी, अशफाक़ भाई, विदेशों तक में शहर की फोटो को प्रतिनिधित्व दिलाने वाले पवन कुमार, विशाल श्रीवास्तव, संदीप रस्तोगी, आशुतोष त्रिपाठी, करीबी साथी पी. सी. भाई, मनीष अग्निहोत्री जैसे तमाम हुनरमंद छायाकार अपनी नज़रों से रोज़ फोटोग्राफी को समृद्ध करते रहते हैं।
चलते चलते मैं आज के दिन उस नाम को ज़रूर याद करूंगा जो हरदम कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित करते थे – भाई संजय त्रिपाठी।
अंततः आंखों से दिखाई देने वाले दृश्य को कैमरे की मदद से एक फ्रेम में बांधना, प्रकाश व छाया, कैमरे की स्थिति, ठीक एक्सपोजर तथा उचित विषय का चुनाव ही एक अच्छे फोटो को प्राप्त करने की पहली शर्त होती है। यही कारण है कि आज सभी के घरों में एक कैमरा होने के बाद भी अच्छे फोटोग्राफर गिनती के हैं।