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History Of Bauddha Dharma: दुनिया का सबसे पहला संगठित और सुव्यस्थित धर्म बौद्ध धर्म, जानिए कैसे मुगल आक्रांताओं ने बौद्ध स्थलों का किया विध्वंस
Bauddha Dharma Ka Itihas in Hindi: दुनिया का सबसे पहला संगठित और सुव्यस्थित धर्म था बौद्ध धर्म, मुगल आक्रांताओं ने इस तरह भारत की धरती पर किया बौद्ध स्थलों का विध्वंस
History Of Buddhism: भारत में बौद्ध धर्म का जन्म ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी में हुआ था और तब से यह भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत का एक अभिन्न अंग बन गया है। वर्षों से, सम्पूर्ण भारत में हिन्दु और बौद्ध संस्कृतियों का एक अद्भुत मिलन होता आया है । भारत के आर्थिक उदय और सांस्कृतिक प्रभुत्व में बौद्धों ने महती भूमिका निभाई है। मौर्य साम्राज्य के सम्राट अशोक ने भारत में बौद्ध धर्म का प्रसार शुरू किया। उत्तरः कुषाण साम्राज्य के राजा कनिष्क ने उत्तरी भारत, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और मध्य एशिया के कुछ हिस्सों पर शासन किया, जिसमें मुख्य रूप से चीन शामिल था। उन्होंने मध्य एशिया में बौद्ध धर्म के प्रसार को प्रोत्साहित किया। मुगल साम्राज्य स्थापित होने से पूर्व धरती का एक अफगानिस्तान के हिन्दूकुश से लेकर भारत के अरुणाचल तक और भारत के कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक जो भी जाति, धर्म, समाज और भाषा के लोग निवास करते हैं वे सभी पंचनंद और ऋषि कश्यप की संतानें हैं। हालांकि अब भारतीयों के धर्म अलग-अलग होने से उन्होंने अपनी भाषा, संस्कृति और इतिहास को भी बदल लिया है। यहां के हिन्दू, जैन, बौद्ध, ईसाई, पारसी, मुसलमान, सिख आदि सभी एक ही कुल और धर्म के हैं। लेकिन अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं। रोमन, यूनानी, पुर्तगाली, अरब, तुर्क और अंग्रेजों ने इस देश में बहुत कुछ बदलकर रख दिया।
दुनिया का सबसे पहला संगठित और सुव्यस्थित धर्म था बौद्ध धर्म
भगवान बुद्ध के समय के बाद भारत में हिन्दू एवं जैन, चीन में कन्फ्यूशियस तथा ईरान में जरथुस्त्र विचारधारा का बोलबाला था। बाकी दुनिया ग्रीस को छोड़कर लगभग विचारशून्य ही थी। ईसा मसीह के जन्म के पूर्व बौद्ध धर्म की गूंज जेरुशलम तक पहुंच चुकी थी। ईसा पूर्व की 6ठी शताब्दी में ही बौद्ध धर्म का पूर्ण उत्थान हो चुका था। दुनिया का सबसे पहला संगठित और सुव्यस्थित धर्म बौद्ध धर्म ही था। कहना चाहिए कि पहली बार भगवान महावीर और बुद्ध ने धर्म को एक व्यवस्था दी थी। बौद्ध धर्म को मगध नरेश महान सम्राट अशोक ने इसे पूरी दुनिया में फैलाने में मुख्य भूमिका निभाई थी। अशोक महान के काल में ही बौद्ध धर्म भारत की सीमाओं को लांघकर दुनिया के कोने-कोने में पहुंचना शुरू हो गया था। चीन, श्रीलंका और सुदूर पूर्व में अशोक महान के शासनकाल में बौद्ध धर्म स्थापित हो चुका था, वहीं कुषाण शासक कनिष्क के काल में तो यह और द्रुत गति से स्थापित हुआ और संपूर्ण एशिया पर छा गया। इतिहासकारों अनुसार अरब और मध्य एशिया में बौद्ध धर्म को स्थापित करने का श्रेय कनिष्क को ही जाता है।
कनिष्क के काल में चौथी और अंतिम बौद्ध परिषद हुई थी। इस परिषद का उल्लेख ह्वेनसांग व तिब्बत निवासी तारानाथ ने अपनी पुस्तकों में किया है। नागसेन व मिलिंद के प्रसिद्ध वार्तालाप से अनुमान होता है कि ग्रीक शासक मिनांडर जिसे बाद में मिलिंद कहा गया, ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। इसके बाद तत्कालीन ग्रीक साम्राज्य भी बौद्ध धर्म के प्रभाव में आ गया था। यानी बौद्ध धर्म भारत से चलकर पूर्व में तिब्बत, चीन, जापान, बर्मा, जावा, लंका और सुमात्रा तक फैला, जहां आज भी विद्यमान है, तो दूसरी ओर पश्चिम व मध्य एशिया से होते हुए अरब और ग्रीक तक फैल गया, जहां से आज वह मिट चुका है।
बौद्ध की प्रतिमाओं और मठों का हुआ तेजी से विस्तार
गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद उनकी मूर्तियां बनाने के दौर बहुत ही तेज गति से चला। उनकी खड़ी आकृति के अलावा उनके जन्म-जन्मांतर की कथाओं वाली मूर्तियां पूरे पश्चिमी व मध्य एशिया में निर्मित हुईं। इसमें मथुरा और गांधार शैली में विकसित और ईरानी कलाकारों द्वारा बनाई गई मूर्तियां अफगानिस्तान, ईरान के साथ अरब के केंद्र मक्का तक विस्तृत होती चली गईं। कुषाण काल में गांधार व मथुरा कला से बुद्ध की मूर्ति निर्मित हो रही थी। गांधार उत्तर-पश्चिमी में एक विशिष्ट क्षेत्र है जिसमें वर्तमान का रावलपिंडी, पेशावर और पूर्वी अफगानिस्तान का क्षेत्र आता है। यहां निर्मित मूर्तियां पश्चिमी यूनानी प्रभाव वाली कला और देशी बौद्ध परंपराओं के मध्य संश्लेषण का परिणाम थी। इसे ग्रीक-बौद्ध कला शैली भी कहा जाता है। गांधार के कलाकार अपोलो के ग्रीक आदर्श से प्रेरित थे। उसी शैली में भगवान बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण किया गया था। वर्ष 2000 में अफगानिस्तान में कट्टरपंथी इस्लामिक तालिबान द्वारा बामियान में तोड़ी गई बुद्ध की सबसे विशालकाय मूर्ति गांधार शैली में ही निर्मित की गई थी। यह ग्रीक-रोमन व भारतीय रूपों का अदभुत मिश्रण थी।
अपने चरमोत्कर्ष पर थी बौद्धकाल में विद्यालय की शिक्षा पद्वति
बौद्धकाल में विद्यालय की शिक्षा अपने चरमोत्कर्ष पर थी। गुरुकुलों के ही विकसित रूप थे बड़े-बड़े महाविद्यालय। बौद्धकाल से हर्षवर्धन (6टी शताब्दी) के काल तक विश्व के लोग भारत में शिक्षा लेने आते थे। किंतु रोम में रोमन कैथोलिक ईसाई धर्म और अरब में इस्लाम के उदय के बाद दुनिया की तस्वीर बदलने लगी।
तक्षशिला था विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय
तक्षशिला को विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय माना जाता है। यहां पर आचार्य चाणक्य और पाणिनी जैसे प्रकांड विद्वानों ने शिक्षा प्राप्त की थी। अपने समय में तक्षशिला शहर प्राचीन भारत में गांधार जनपद की राजधानी और एशिया में शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। माना जाता है कि इसकी स्थापना 6ठी से 7वीं सदी ईसा पूर्व के मध्य हुई थी। यहां पर भारत सहित चीन, सीरिया, ग्रीस और बेबिलोनिया के छात्र पढ़ते थे। इस विश्वविद्यालय को गांधार नरेश आम्भिक का राजकीय संरक्षण प्राप्त था।
तक्षशिला विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल थे 64 विषय
तक्षशिला विश्वविद्यालय में वेतनभोगी शिक्षक नहीं थे और न ही कोई निर्दिष्ट पाठ्यक्रम था। यहां पर लगभग 64 विषयों का अध्ययन किया जाता था।
महत्वपूर्ण पाठ्यक्रमों में यहां वेद, वेदांत, जिन सूत्र, धम्मपद, अष्टादस विद्याएं, दर्शन, व्याकरण, अर्थशास्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद, ललित कला, हस्त विद्या, पशुभाषा, अश्व विद्या, मंत्र विद्या, युद्ध विद्या, राजनीति, शल्यक्रिया, शस्त्र संचालन, विविध भाषाएं, हस्त विद्या, गणित आदि की शिक्षा दी जाती थी। इसके अलावा यहां ज्ञान और विज्ञान के मामले में शोध कार्य किया जाता था। यह विद्यालय विस्तृत भू-भाग पर फैला था।
यहां 10 हजार से 500 विद्यार्थी थे शिक्षणरत
कहते हैं कि सिकंदर के आक्रमण के समय यहां पर 10 हजार 500 विद्यार्थी शिक्षणरत थे। यहां के विद्यार्थी उच्च वर्ग से ही होते थे। सिकंदर को आक्रमण के लिए राजा आम्भिक ने ही बुलाया था। तक्षशिला का राजा आम्भिक राजा पुरु का शत्रु था।
बौद्ध ग्रंथ तेलपत्त और सुसीमजातक में तक्षशिला महाविद्यालय की भी अनेक बार चर्चा हुई है। बौद्ध भिक्षु महाविद्यालय को महाविहार कहते थे। यहां अध्ययन करने के लिए दूर-दूर से विद्यार्थी आते थे। भारत और विश्व के ज्ञात इतिहास का यह सर्वप्राचीन विश्वविद्यालय था। कहते हैं कि पाटलीपुत्र से तक्षशिला जाने वाला मुख्य व्यापारिक मार्ग मथुरा से गुजरता था। बौद्ध धर्म की महायान शाखा का विकास तक्षशिला विश्वविद्यालय में ही होने के उल्लेख मिलते हैं।
कई ऐतिहासिक हस्तियों ने यहां से हासिल की थी शिक्षा
तक्षशिला विश्वविद्यालय में बुद्ध काल में कोसल नरेश प्रसेनजित्, कुशीनगर के बंधुलमल्ल, वैशाली के महाली, मगध नरेश बिम्बिसार के प्रसिद्ध राजवैद्य जीवक, एक अन्य चिकित्सक कौमारभृत्य तथा परवर्ती काल में चाणक्य तथा वसुबंधु इसी विश्व प्रसिद्ध महाविद्यालय के छात्र रहे थे। पाणिनी ने अपनी पुस्तकों में तक्षशिला का उल्लेख किया है। 400 ई. पूर्व में यहां के एक विद्वान कात्यायन ने वार्तिक की रचना की थी। यह एक प्रकार का शब्दकोश था, जो संस्कृत में प्रयुक्त होने वाले शब्दों की व्याख्या करता था। तक्षशिला में कई बौद्ध स्तूप, विहार, मंदिर आदि स्थापित थे।
रामायण काल में भी है इसका जिक्र
- तक्षशिला का इतिहास ईसा से 600 वर्ष पहले शुरू होता है। हालांकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार इस नगर को भरत के पुत्र तक्ष ने बसाया था। ऐसा कहा जाता है कि राजा तक्ष को यक्ष खंड का राजा माना जाता था, जो आज के ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान के बीच का क्षेत्र है। वर्तमान में उज्बेक की राजधानी को ताशकंद कहा जाता है, जो तक्ष का बिगड़ा हुआ रुप ही है।
- तक्षशिला पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से लगभग 35 किलोमीटर दूर है। ईसा पूर्व 400 साल पहले ह्वेनसांग ने इसे ता-चा-शि-ले कहकर पुकारा था, ऐसा पाकिस्तान म्यूजियम के ब्रोशर में लिखा है।
- 1863 ई. में जनरल कनिंघम ने तक्षशिला को यहां के खंडहरों की जांच करके खोज निकाला। इसके बाद 1912 से 1929 तक सर जॉन मार्शल ने इस स्थान पर खुदाई की और प्रचुर तथा मूल्यवान सामग्री को खोजकर इस नगरी की वैभवता को प्रकट किया। माना जाता है कि 6ठी सदी के अंत में अरब और तुर्क के मुस्लिम आक्रांताओं ने इस विश्वविद्यालय और नगर का विध्वंस कर दिया था।
पहली सदी से लेकर 10वीं सदी तक है बौद्ध दार्शनिकों का जिक्र
पहली सदी से लेकर 10वीं सदी के बीच अश्वघोष, नागार्जुन, आर्यदेव, मैत्रेय, असंग, वसुबन्धु, दिग्नाग, धर्मपाल, शीलभद्र, धर्मकीर्ति, देवेन्द्रबोधि, शाक्यबोधि, शान्त रक्षित, कमलशील, कल्याणरक्षित, धर्मोत्तराचार्य, मुक्तकुंभ, रत्नकीर्ति, शंकरानंद, शुभकार गुप्त तथा मोक्षकार गुप्त आदि अनेक बौद्ध दार्शनिक पैदा हुए। चौथी सदी के पेशावर निवासी असंग अद्वैत विज्ञानवाद के प्रवर्तक थे। उनके छोटे भाई वसुबन्धु थे जिन्होंने अयोध्या में रहकर बौद्ध त्रिपिटक के सार के रूप में ‘अभिधम्म कोश’ की रचना की थी। दिग्नाग 5वीं सदी के दार्शनिक थे। वे बौद्ध तर्कशास्त्र तथा ज्ञान मीमांसा के सबसे महान प्रवर्तक थे। इस तरह भारत में बौद्ध धर्म 7वीं सदी तक प्रमुख रूप से विद्यमान था।
इस्लाम के अभ्युदय से बहुत पहले अरब तक पहुंच चुका था बौद्ध धर्म
12वीं शताब्दी में पाल शासन की समाप्ति के बाद बौद्ध धर्म से राजकीय संरक्षण छिन गया। इसके बाद मुसलमान सेनापति बख्तियार खिलजी ने चुन-चुनकर सभी बौद्ध मठों को नष्ट कर दिया। नालंदा जैसा विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय उसी ने नष्ट किया था। यही नहीं, नालंदा में स्थित सभी बौद्ध साहित्य को उसने आग के हवाले कर दिया था।
इस्लामिक चरमपंथियों ने भारत में चुन-चुनकर हिन्दुओं के प्रमुख मंदिरों, बौद्ध स्तूपों, मठों और विद्यालयों को निशाना बनाया। आज भी तक्षशिला, दिल्ली, नालंदा, सांची, मथुरा आदि जगहों पर दिखाई देने वाले भग्नावशेष और खंडहर इस बात का सबूत हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बौद्ध धर्म को मिटाकर ही इस्लाम का अभ्युदय हुआ। इस्लाम के अभ्युदय से बहुत पहले बौद्ध धर्म अरब में पहुंच चुका था और जगह-जगह बुद्ध की मूर्ति की पूजा या उसके समक्ष ध्यान किया जाता था। विध्वंश की इस अग्नि में तक्षशिला के बाद नालंदा विश्वविद्यालय की चर्चा होती है। बिहार की राजधानी पटना से करीब 120 किलोमीटर दक्षिण-उत्तर प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। इस विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त काल के दौरान 5वीं सदी में हुई थी, लेकिन 1193 में एक इस्लामिक आक्रांता ने इसे नेस्तनाबूद कर दिया। इसके अतिरिक्त बौद्ध संप्रदाय से जुड़े स्थलों को चुन-चुन कर जमीदोज किया गया था। जिसमें सबसे पहला नाम पेशावर का आता है।
पेशावर
पश्चिमी पाकिस्तान में प्रसिद्ध नगर है जिसे बौद्धकाल में ’पुरुषपुर’ कहा जाता था। यहां सबसे बड़े और ऊंचे स्तूप के नीचे से बुद्ध भगवान की अस्थियां खुदाई में निकाली गई थीं। इतिहास में दर्ज है कि यह स्तूप सम्राट कनिष्क ने बनवाया था जिसे इस्लामिक आक्रांताओं ने पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था। आज भी उसके खंडहर हैं।
बामियान
अफगानिस्तान में बामियान क्षेत्र बौद्ध धर्म प्रचार का प्रमुख केंद्र था। इसे बौद्ध धर्म की राजधानी माना जाता था। बौद्ध काल में हिन्दूकुश पर्वत से लेकर कंदहार तक अनेक स्तूप थे जिन्हें इस्लामिक आक्रांताओं ने नष्ट कर दिया। यहां बौद्ध धर्म से संबंधित अनेक गुफाएं हैं, जहां भगवान बुद्ध की विशालकाय मूर्तियां आज भी विद्यमान हैं। तालिबानियों ने इन मूर्तियों को तोप से तोड़कर खंडित कर दिया था।
वैशाली
वैशाली गंगा घाटी का नगर है, जो आज के बिहार एवं बंगाल प्रांत के बीच स्थित है। वैशाली नगर की स्थापना इक्ष्वाकु वंश के राजा विशाल ने की थी इसलिए इसे ’विशाला’ कहा जाता था जिसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण में है। बाद में इसे वैशाली कहा जाने लगा। प्राचीन नगर वैशाली के भग्नावशेष वर्तमान बसाढ़ नामक स्थान के निकट स्थित हैं, जो मुजफ्फरपुर से 20 मील दक्षिण-पश्चिम की ओर है। इसी स्थान पर अशोक ने एक प्रस्तर स्तंभ स्थापित किया था। यहां पर बौद्ध धर्म के प्रमुख चैत्यगृह थे। बुद्ध को यह स्थान बड़ा ही प्रिय था। जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी का जन्म इसी नगरी में हुआ था अतः वे लोग इस पुरी को ’महावीर-जननी’ कहते थे।
कश्मीर था बौद्ध गढ़
प्राचीनकाल में कश्मीर बौद्ध धर्म का पालनहार रहा है। यहां से होकर गए सिल्क रूट से ही बौद्ध धर्म के अनुयायी और भिक्षु चीन, तिब्बत और दूसरी ओर मध्य एशिया में आया-जाता करते थे। चतुर्थ बौद्ध संगीति कश्मीर में हुई थी। प्रथम बौद्ध संगीति 483 ईपू राजगृह में, द्वितीय बौद्ध संगीति वैशाली में, तृतीय बौद्ध संगीति 249 ईपू को पाटलीपुत्र में हुई थी। चतुर्थ और अंतिम बौद्ध संगीति कुषाण सम्राट कनिष्क के शासनकाल (लगभग 120-144 ईपू) में हुई। यह संगीति कश्मीर के ’कुंडल वन’ में आयोजित की गई थी। इस संगीति में 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और त्रिपिटक का पुनः संकलन व संस्करण हुआ। कश्मीर के बारामूला, गुलमर्ग, परिहास पोरा, हार वन, कानिसपोरा-उशकुरा में बौद्ध मठों के खंडहर आज भी मौजूद हैं। इन स्थानों का ऐतिहासिक महत्व है और विश्व में फैले बौद्ध समुदाय का इनसे लगाव है। बौद्ध मठ परिहास पोर कस्बे में है, जो श्रीनगर से मात्र 26 किलोमीटर की दूरी पर है।
नालंदा
कुमारगुप्त ने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। बौद्ध विश्वविद्यालय नालंदा को देश का प्राचीनतम विश्वविद्यालय माना जाता है, यह पटना के निकट है। भगवान बुद्ध अपने जीवन में कई बार नालंदा आए थे। यह स्थान न केवल ज्ञान बल्कि विभिन्न कलाओं का केंद्र भी रहा है। यहां एक ओर बौद्ध विहारों की कतार है तो दूसरी ओर छोटे स्तूपों से घिरे कुछ मंदिर हैं। नालंदा में पुरातत्व संग्रहालय में भी बौद्ध धर्म के देवी-देवता तथा भगवान बुद्ध की प्रतिमा अत्यंत दर्शनीय है। इनके अलावा भागलपुर के निकट विक्रमशिला के अवशेष, फर्रुखाबाद जिले में काली नदी के तट पर प्राचीन संकाश्य के स्मारक, लखनऊ से 134 किमी दूर श्रावस्ती के स्तूप एवं विहारों के खंडहर तथा इलाहाबाद से 54 किमी दूर प्राचीन शहर हैं यहां कौशांबी के अवशेष आज भी बौद्ध स्थलों के तौर पर लोकप्रिय हैं।
अफगानिस्तान से लेकर पाकिस्तान तक गांधार राज्य का था वर्चस्व
पश्चिम भारत के शिक्षा का केंद्र तशशिला ही हुआ करता था। तक्षशिला व्यापार और राजनीति का भी प्रमुख केंद्र था इसीलिए आक्रमणकारियों का पहले से ही इस पर ध्यान केंद्रित था। भारत पर आक्रमण की शुरुआत तो यूनानियों से पूर्व की रही है, लेकिन जब यूनानियों ने भारत पर आक्रमण किया तब भारत की पश्चिम सीमा पर प्रमुख रूप से भारतीय जनपद गांधार और कम्बोज राज्य थे। उक्त राज्यों को मिलाकर आज अफगानिस्तान है। अफगानिस्तान के पहले के क्षेत्र में सौवीर, खांडव, कैकय, यदु, तृसु, वाल्हिक आदि जनपद थे जिसे मिलाकर आज पाकिस्तान है। गांधार राज्य या जनपद की राजधानी तक्षशिला हुआ करती थी। यह तक्षशिला अब पाकिस्तान का हिस्सा है।
ईसा सन् 7वीं सदी तक गांधार के अनेक भागों में बौद्ध धर्म काफी उन्नत था। 7वीं सदी के बाद यहां पर अरब और तुर्क के मुसलमानों ने आक्रमण करना शुरू किए और कुछ इतिहासकारों के अनुसार 870 ई. में अरब सेनापति याकूब एलेस ने अफगानिस्तान को अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद यहां के हिन्दू और बौद्धों का जबरन धर्मांतरण अभियान शुरू हुआ। सालों तक लड़ाइयां चलीं और अंत में काफिरिस्तान को छोड़कर सारे अफगानी लोग मुसलमान बन गए।
लगभग 632 ई. में हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात (मृत्यु) के बाद 6 वर्षों के अंदर ही उनके उत्तराधिकारियों ने सीरिया, मिस्र, उत्तरी अफ्रीका, स्पेन एवं ईरान को जीत लिया। इस समय खलीफा साम्राज्य फ्रांस के लायर नामक स्थान से लेकर आक्सस एवं काबुल नदी तक फैल गया था।
ईरान के पारसियों ने जान बचाने के लिए किया इस्लाम धर्म का अनुकर
वफात के बाद ’खिलाफत’ संस्था का गठन हुआ, जो इस बात का निर्णय करती थी कि इस्लाम का उत्तराधिकारी कौन है? हज. मुहम्मद स.अ.व के दोस्त अबू बकर को उनका उत्तराधिकारी घोषित किया गया। पहले 4 खलीफाओं ने हज. मुहम्मद साहब से अपने रिश्तों के कारण खिलाफत हासिल की। उनमें से उमय्यदों और अब्बासियों के काल में इस्लाम का विस्तार हुआ। अब्बासियों ने ईरान और अफगानिस्तान में अपनी सत्ता कायम की। ईरान के पारसियों को या तो इस्लाम ग्रहण करना पड़ा या फिर वे भागकर सिन्ध में आ गए। जब सिन्ध में भी आक्रमण बढ़ने लगे तो वे गुजरात में बस गए।
17 वर्ष की अवस्था में कासिम ने किया था सिन्ध और बलूच के अभियान का सफल नेतृत्व
भारत में इस्लामिक शासन का विस्तार 7वीं शताब्दी के अंत में मोहम्मद बिन कासिम के सिन्ध पर आक्रमण और बाद के मुस्लिम शासकों द्वारा हुआ। लगभग 712 में इराकी शासक अल हज्जाज के भतीजे एवं दामाद मुहम्मद बिन कासिम ने 17 वर्ष की अवस्था में सिन्ध और बलूच के अभियान का सफल नेतृत्व किया। 7वीं सदी के बाद अफगानिस्तान और पाकिस्तान भारत के हाथ से जाते रहे।
मुगलों द्वारा भारत के सिंध क्षेत्र पर 15 बार आक्रमण कर पाई थी फतह
इस्लामिक आक्रांताओं ने सिन्ध फतह के लिए कई अभियान चलाए। 10 हजार सैनिकों का एक दल ऊंट-घोड़ों के साथ सिन्ध पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया। सिन्ध पर ईस्वी सन् 638 से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में 9 खलीफाओं ने 15 बार आक्रमण किया। 15वें आक्रमण का नेतृत्व मोहम्मद बिन कासिम ने किया।
मुहम्मद बिन कासिम के बाद महमूद गजनवी और उसके बाद मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण कर अंधाधुंध कत्लेआम और लूटपाट मचाई। इस दौरान उन्होंने हिन्दू मंदिरों, बौद्ध मठों और स्तूपों का विध्वंस किया। 7वीं शती ईस्वी के तृतीय दशक में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने तक्षशिला को पूरी तरह से उजड़ा हुआ देखा था।
बेहद मार्मिक है राजा दाहिर की कहानी
मुहम्मद बिन कासिम अत्यंत ही क्रूर था। हिंदू परिवार से संबंध रखने वाले सिन्ध के दीवान गुन्दुमल की बेटी के सामने जब मुहम्मद बिन कासिम निकाह का प्रस्ताव रखा तो गुन्दुमल की बेटी ने सर कटवाना स्वीकार किया, पर मीर कासिम की पत्नी बनने से इनकार कर दिया। इसी तरह वहां के राजा दाहिर (679 ईस्वी में राजा बने) और उनकी पत्नियों और पुत्रियों ने भी अपनी मातृभूमि और अस्मिता की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी।राजा दाहिर आठवीं सदी ईस्वी में सिंध के शासक थे. वो राजा चंच के सबसे छोटे बेटे और ब्राह्मण वंश के आख़रि शासक थे। सिंधियाना इंसाइक्लोपीडिया के मुताबिक़ हज़ारों वर्ष पहले कई कश्मीरी ब्राह्मण वंश सिंध आकर आबाद हुए, ये पढ़ा-लिखा तबक़ा था, राजनीतिक असर और रसूख़ हासिल करने के बाद उन्होंने राय घराने की 184 साल की हुकूमत का ख़ात्मा किया और चच पहले ब्राह्मण बादशाह बने। इतिहासकारों के मुताबिक़ राजा दाहिर की हुकूमत पश्चिम में मकरान तक, दक्षिण में अरब सागर और गुजरात तक, पूर्व में मौजूदा मालवा के केंद्र और राजपूताने तक और उत्तर में मुल्तान से गुज़रकर दक्षिणी पंजाब तक फैली हुई थी। सिंध से ज़मीनी और समुद्री व्यापार भी होता था। आज सिन्ध देश पाकिस्तान का एक प्रांत बनकर रह गया है। कहते हैं कि राजा दाहिर अकेले ही अरब और ईरान के दरिंदों से लड़ते रहे। उनका साथ किसी ने नहीं दिया बल्कि कुछ लोगों ने उनके साथ गद्दारी जरूर की।
राजा दाहिर की बेटियों ने इस तरह लिया बदला
राजा दाहिर की मृत्यु के बाद उनकी बेटियों और पत्नी ने भी बलिदान दिया। दाहिर की बेटियों के नाम प्रेमला देवी और सूर्या देवी थे। ऐतिहासिक वर्णन के मुताबिक, मुहम्मद बिन क़ासिम ने राजा दाहिर की बेटियों को तोहफ़ा बनाकर ख़लीफ़ा के पास भेजा था। ख़लीफ़ा ने दोनों बेटियों को एक-दो दिन आराम करने के बाद अपने हरम में लाने का आदेश दिया।
ख़लीफ़ा ने अपने हरम में उन्हें बुलाकर पूछा कि दोनों में कौन सी बेटी बड़ी है। बड़ी बेटी ने अपना नाम सूर्या देवी बताया और अपने चेहरे से नकाब हटा दिया। ख़लीफ़ा उनकी खूबसूरती से दंग रह गए और लड़की को हाथ से अपनी तरफ़ खींचा। लेकिन लड़की ने ख़ुद को छुड़ाते हुए कहा कि वह ख़लीफ़ा की क़ाबिल नहीं। क्योंकि कासिम ने पहले ही उन्हें बेआबरू कर दिया है। जिसे सुनने के बाद ख़लीफ़ा ने मुहम्मद बिन क़ासिम को बैल की चमड़ी में लपेटकर वापस दमिश्क़ मंगवाया और उसी चमड़ी में बंद होकर दम घुटने से वह मर गया। जब ख़लीफ़ा को पता चला कि बहनों ने उस से झूठ कहा था तो उन्हें ज़िन्दा दीवार में चुनवा दिया।
बुद्ध पूजा को गलत उच्चारण के कारण ’बुतपरस्ती’ कहकर उसका किया विरोध
हजरत मुहम्मद अलैहिस्सलाम के समय बौद्ध पश्चिम एशिया में फैल चुका था इसलिए वहां के अरबी भाषी लोगों ने ’बुद्ध पूजा’ को गलत उच्चारण के कारण ’बुतपरस्ती’ कहकर उसका विरोध किया जिसके चलते अरब के इस्लामिक हमलावर जहां भी गए, उन्होंने बुद्ध मूर्तियों को तोड़ डाला। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर अपनी बहुचर्चित पुस्तक ’संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखते हैं कि इस्लाम में बुतपरस्ती (मूर्ति पूजा) का विरोध है और शायद यह ’बुत’ शब्द ’बुद्ध’ का ही अपभ्रंश है।विजेताओं ने अफगानिस्तान से लेकर मध्य एशिया तक फैले बौद्ध धर्म को समूल नष्ट कर दिया।