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History Of Nawab Siraj-ud-Daulah: भारत के आखरी आज़ाद नवाब सिराजुद्दौला का इतिहास
Nawab Siraj-ud-Daula Ka Itihas: क्या आप जानते हैं कि भारत के आखरी आज़ाद नवाब सिराजुद्दौला का इतिहास क्या है आइये विस्तार से जानते हैं।
Nawab Siraj-ud-Daula Ka Itihas: मिर्ज़ा मुहम्मद सिराजुद्दौला, जिन्हें सिराजुद्दौला के नाम से भी जाना जाता है, बंगाल के अंतिम स्वतंत्र नवाब थे। अप्रैल 1756 में, मात्र 23 वर्ष की आयु में, सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब बने। उन्होंने अपने नाना अलीवर्दी खान के बाद नवाब का पद संभाला। हालांकि उनका शासनकाल अप्रैल,1756 से जून, 1757 तक मात्रा 14 महीने का रहा। जो प्लासी युद्ध में हार के साथ दुखद मोड़ पर समाप्त हुआ। भारत के आखिरी स्वतंत्र नवाब के रूप में प्रसिद्ध सिराजुद्दौला की महज 24 वर्ष की आयु में हत्या कर दी गई थी।
सिराजुद्दौला का प्रारंभिक जीवन
सिराज-उद-दौला का परिवार एक प्रतिष्ठित राजसी परिवार था। जन्म के तुरंत बाद ही उनके नाना अलीवर्दी ख़ान को बिहार के उपराज्यपाल के तौर पर नियुक्त किया गया था। सिराज-उद-दौला का जन्म मिर्ज़ा मुहम्मद हाशिम और अमीना बेगम के परिवार में 1733 को हुआ था। अमिना बेगम अलीवर्दी खान और शरफुन्निसा बेगम की सबसे छोटी बेटी थीं। राजकुमारी शरफुन्निसा मीर जाफर की पितृ पक्षीय चाची थीं। उनके पिता, मिर्ज़ा मुहम्मद हाशिम, अलीवर्दी ख़ान के भाई हाजी अहमद के छोटे बेटे थे।
सिराज-उद-दौला के परदादा मीरज़ा मुहम्मद मदानी थे, जो अरबी या तुर्की वंश के थे और उन्होंने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब के बेटे आजम शाह के दरबार में कप-बेयरर(प्याला -वाहक या कप-बेयरर शाही दरबारों में उच्च पद का अधिकारी होता था) के रूप में कार्य किया था। सिराज-उद-दौला की परदादी खुरासान के तुर्की अफ़शार क़बीले से थीं। उन्हीं के जरिये सिराज-उद-दौला, शुजा-उद-दीन मुहम्मद ख़ान के परपोते लगते थे, क्योंकि दोनों का संबंध एक ही पूर्वज नवाब आक़िल ख़ान से था।
सिराज-उद-दौला को परिवार का भाग्यशाली बच्चा माना जाता था। उन्हें अपने नाना अलिवर्दी खाँ से विशेष प्रेम प्राप्त होता था | इसीलिए अलिवर्दी खाँ ने सिराज-उद-दौला को अपने जीवनकाल में ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।बंगाल के भावी नवाब के तौर पर सिराजुद्दौला को बचपन से ही नवाबी परिवार के अनुरूप पालन-पोषण और शिक्षा दी गई थी। जो भविष्य के नवाब के लिए आवश्यक था। युवा सिराजुद्दौला 1746 में मराठों के खिलाफ अलिवर्दी के सैन्य अभियानों में भी शामिल हुआ था। तथा सिराजुद्दौला ने 1750 में अपने दादा के खिलाफ विद्रोह किया और पटना पर कब्जा कर लिया। लेकिन शीघ्र ही उन्हें माफ़ करके आत्मसमर्पण भी कर दिया था।
महज 23 वर्ष की आयु में मिला बंगाल का तख़्त
सिराजुद्दौला महज 24 वर्ष की आयु में बंगाल के नवाब बने। सिराजुद्दौला के दादा अलिवर्दी ख़ान ने अपनी तीन बेटियों की संतानों में सिराजुद्दौला को बंगाल का उत्तराधिकारी चुना। अलिवर्दी ख़ान की तीन पुत्रियाँ थीं, जिनमें से सबसे बड़ी छसीटी बेगम निःसंतान थीं। जबकि दूसरी का शौकतगंज और तीसरी बेटी को सिराजुद्दौला नामक पुत्र थे । लेकिन अलिवर्दी ख़ान का सिराजुद्दौला पर विशेष स्नेह था। इसीलिए मई 1752 में,अलिवर्दी ख़ान द्वारा सिराज को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया गया।तथा 10 अप्रैल, 1756 को अलिवर्दी ख़ान की मृत्यु हो गई जिसके बाद सिराजुद्दौला को बंगाल की गद्दी पे बिठाया गया।
पारिवारिक संघर्ष का करना पड़ा सामना
सिराजुद्दौला कम उम्र में बंगाल के नवाब तो बन गए । लेकिन उनकी पारिवारिक स्थिति बिगड़ गई। गद्दी पर बैठते ही सिराजुद्दौला को शौकतगंज के खिलाफ संघर्ष का सामना करना पड़ा। शौकतगंज,अलिवर्दी ख़ान की दूसरी बेटी का पुत्र था यानि सिराजुद्दौला के चचेरे भाई थे। शौकतगंज स्वयं बंगाल का नवाब बनना चाहता था लेकिन ऐसा हो न सका और इसीलिए उसने सिराजुद्दौला के खिलाफ षड़यंत्र शुरू किया। इसमें शौकतगंज को छसीटी बेगम (अलिवर्दी खाँ की बड़ी बेटी), उसके दिवान राजवल्लभ और मुगल सम्राट का समर्थन मिला। सिराजुद्दौला की बड़ी खाला (मौसी) घसीटी बेगम उन्हें नापसंद करती थीं।वह ढाका के नवाब की बेगम होने के साथ - साथ बेशुमार दौलत की मालकिन थीं।सिराज-उद-दौला ने घसीटी बेगम से मोतीझील महल से उसकी संपत्ति छीन ली और उसे बंदी बना लिया। इसी कारण शौकतगंज और घसीटी बेगम सिराजुद्दौला से नफरत करते थे और उसके खिलाफ के खिलाफ षड़यंत्र किया करते थे।
नवाब ने अपने शासन में पदों में बदलाव करते हुए अपने पसंदीदा लोगों को नियुक्त किया था। मीर मदन को मीर जाफर की जगह बक्शी (सेना का वेतन भुगतान अधिकारी) के रूप में नियुक्त किया गया।मोहनलाल को उनके दीवान-खाने का पेशकार (कोर्ट क्लर्क) बना दिया गया। परिणामस्वरूप खाला घसीटी बेगम, मीर जाफर, जगत सेठ (महताब चंद) और शौकतजंग (सिराज के चचेरे भाई) के मन में सिराजुद्दौला के खिलाफ दुश्मनी को जन्म दिया।
नाना से मिली थी नसीहत
1960 में लेखक और स्वतंत्रता सेनानी सुंदरलाल द्वारा लिखी गई 'भारत में अंग्रेजी राज' में सिराजुद्दौला को उनके नाना अलिवर्दी ख़ान द्वारा दी गई नसीहत के बारे में जानकारी दी गई है | अलिवर्दी ख़ान ने नसीहत देते हुए कहा "अंग्रेजों की ताकत बढ़ गई है, तुम अंग्रेज़ों को जेर (पराजित) कर लोगे तो बाकी दोनों कौमें तुम्हें अधिक तकलीफ नहीं देंगी, मेरे बेटे उन्हें किले बनाने या फौज रखने की इजाजत न देना. यदि तुमने यह गलती की तो मुल्क तुम्हारे हाथ से निकल जाएगा।”
प्लासी का पहला युद्ध (Plassey First War ) और हार
सिराजुद्दौला और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच का तनाव प्लासी युद्ध का मुख्य कारण था। प्लासी का पहला युद्ध जिसे भारत के इतिहास में निर्णायक मोड़ के तौर पर देखा जाता है। भारत के इतिहास में इस युद्ध को दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है क्योकि इस युद्ध के बाद ही भारत अंग्रेजो का गुलाम बना था। 23 जून, 1757 को रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश सैनिक तथा नवाब सिराज़ुद्दौला के सैनिकों के बीच हुआ था। इस युद्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत षड्यंत्र और गद्दारी का परिणाम थी। रॉबर्ट क्लाइव ने युद्ध से पहले ही नवाब सिराजुद्दौला के मीर जाफर और जगत सेठ जैसे सेनानायकों, दरबारियों और व्यापारियों के साथ गुप्त समझौता कर लिया था। जिस कारण उन्होंने इस युद्ध में नवाब का साथ छोड़ दिया और सिराजुद्दौला को हार का सामना करना पड़ा। सिराजुद्दौला के हार के बाद बंगाल ब्रिटिशर्स के अधीन चला गया जो धीरे- धीरे पूरे भारत में फ़ैल गया। और इसीलिए सिराजुद्दौला भारत के आखरी आज़ाद नवाब के तौर पर जाने जाते हैं।
युद्ध के बाद भागे सिराजुद्दौला
युद्ध में हार के बाद सिराजुद्दौला को अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा था। मशहूर इतिहासकार सैयद गुलाम हुसैन खां द्वारा लिखी गई 'सियारुल मुताखिरीं' के मुताबिक "सिराजुद्दौला को आम आदमियों के कपड़े पहनकर सुबह तीन बजे भागना पड़ा | उनके साथ उनके नजदीकी रिश्तेदार और कुछ जन्खे (किन्नर) पत्नी लुत्फ उन निसा और कुछ नजदीकी लोग ढंकी हुई गाड़ियों में बैठकर राजमहल छोड़ भगवानगोला गए थे | सिराजुद्दौला अपने साथ सोना-जवाहरात भी लेकर गए थे।
2 जुलाई,1757 को हुई गिरफ़्तारी
एक फकीर, शाह दाना, ने सिराजुद्दौला के ठिकाने की जानकारी उनके दुश्मनों तक पहुंचाई, जो उन्हें हर संभव प्रयास से ढूंढ रहे थे। मीर जाफर के दामाद, मीर कासिम, ने यह खबर मिलते ही नदी पार कर सिराजुद्दौला को अपने सैनिकों से घेर लिया। सिराजुद्दौला को गिरफ्तार कर 2 जुलाई, 1757 को मुर्शिदाबाद लाया गया। इस समय रॉबर्ट क्लाइव भी वहां मौजूद थे। हालांकि, क्लाइव ने फोर्ट विलियम में अपने साथियों को पहले ही पत्र लिखकर उम्मीद जताई थी कि मीर जाफर नवाब के प्रति सम्मानजनक व्यवहार करेंगे।
दो दिनों बाद रॉबर्ट क्लाइव ने एक और पत्र लिखा, जिसमें सिराजुद्दौला के जीवित ना होने की और उनकी लाश को खोशबाग में दफ़नाने की जानकारी दी गई। उसमें यह भी लिखा था की, मीर जाफर शायद उन्हें जीवनदान देते, लेकिन उनके बेटे मीरान ने यह निर्णय लिया कि देश में स्थिरता और शांति बनाए रखने के लिए सिराजुद्दौला का अंत आवश्यक है।
सिराजुदौला के मौत लेकर अलग-अलग तर्क
सिराजुदौला के मौत को लेकर अलग-अलग किताबों में अलग-अलग तर्क दिए गए है। रॉबर्ट ओर्मे अपनी किताब ‘अ हिस्ट्री ऑफ द मिलिट्री ट्रांसेक्शन ऑफ द ब्रिटिश नेशन इन इंदोस्ता’ में लिखते हैं कि पदच्युत नवाब सिराजुद्दौला को मीर जाफर के सामने लाया गया। सिराज ने घबराते हुए अपनी जान की भीख मांगी। मीर जाफर और दरबारियों ने सिराज के भविष्य पर चर्चा की, जिसमें कैद या मौत की सजा जैसे विकल्प थे। हालांकि, मीरान ने उन्हें जिंदा रखने का विरोध किया। इस मामले में मीर जाफर ने खुद कोई स्पष्ट निर्णय नहीं लिया।
सुदीप चक्रवर्ती की पुस्तक प्लासी: द बैटल दैट चेंज्ड द कोर्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री में लिखा है कि मीरान ने अपने पिता मीर जाफर की सहमति का मतलब सिराज का मामला खुद संभालने से लिया। उसने पिता से कहा, "आप आराम करें, मैं देख लूंगा।" मीर जाफर ने इसे हिंसा न करने का संकेत समझा और दरबार खत्म कर सोने चले गए।
सैयद गुलाम हुसैन खां के अनुसार, मीरान ने मोहम्मदी बेग को सिराजुद्दौला की हत्या का आदेश दिया। जब मीरान सिराज के पास पहुंचा, सिराज को अंदेशा हो गया और उन्होंने वजू और नमाज पढ़ने की अनुमति मांगी। हत्यारों ने जल्दबाजी में उनके सिर पर पानी उड़ेल दिया। प्यास बुझाने की गुहार भी अनसुनी रही। रॉबर्ट ओर्मे लिखते हैं कि मोहम्मदी बेग ने सिराज पर कटार से वार किया, जिसके बाद अन्य हत्यारों ने तलवारों से हमला किया और कुछ ही पलों में सिराज की हत्या हो गई।
सिराजुद्दौला के शव को मुर्शिदाबाद के गलियों घुमाया
सैयद गुलाम हुसैन खां इस घटना के बारे में लिखते अगले दिन सिराजुद्दौला के शव को हाथी पर लादकर मुर्शिदाबाद की गलियों में घुमाया गया, जो उनकी हार का प्रतीक था। हाथी को जानबूझकर हुसैन कुली खां के घर के पास रोका गया,दो साल पहले इन्हीं हुसैन कुली खां की सिराजुद्दौला ने हत्या करवा दी थी।
अलीवर्दी खान के परिवार की महिलाओं से बर्बरता
मीरान में इतनी बर्बरता थी की कि उसने अलीवर्दी खान के परिवार की महिलाओं की भी हत्या करवा दी। करम अली की किताब द मुजफ्फरनामा ऑफ करम अली में लिखा है कि करीब 70 महिलाओं को नाव में बैठाकर हुगली नदी में डुबो दिया गया, और उनके शव खुशबाग के बाग में दफनाए गए। सिराजुद्दौला की बहुत ही सुंदर पत्नी, लुत्फ-उन-निसा को छोड़कर बाकी सभी महिलाओं को मार दिया गया। मीर जाफर और उनके बेटे मीरान लुत्फ-उन-निसा से शादी करना चाहते थे और उन्होंने उसे शादी का प्रस्ताव भी भेजा था।
हालांकि लुत्फ-उन-निसा ने "पहले हाथी की सवारी कर चुकी मैं अब गधे की सवारी करने से तो रही" यह कहते हुए दोनों के प्रस्ताव ठुकरा दिए।
मौत और विरासत
ऐसा कहा जाता है, सिराजुद्दौला को 2 जुलाई, 1757 को मीर जाफर के बेटे मीर मीरान के आदेश पर मोहम्मद अली बेग द्वारा नमक हराम ड्योढ़ी में फांसी दी गई । यह फांसी मीर जाफर और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुए समझौते का हिस्सा थी। सिराजुद्दौला की कब्र खुसबाग, मुर्शिदाबाद में स्थित है। यहां उनकी सादगी भरी लेकिन सुंदर एक मंजिला मजार है, जो एक बगीचे से घिरी हुई है।
सिराजुद्दौला के शासन का अंत बंगाल की स्वायत्तता के अंत और भारत में ब्रिटिश सत्ता के आरंभ का प्रतीक है। बंगाली दृष्टिकोण में, मीर जाफर और रॉबर्ट क्लाइव को खलनायक और सिराज को पीड़ित के रूप में देखा जाता है। भले ही सिराज को आकर्षक व्यक्तित्व के रूप में नहीं दर्शाया गया हो, उन्हें अन्याय का शिकार माना गया है। सिराजुद्दौला ने भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में सकारात्मक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है क्योकि उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन की शुरुआत का विरोध किया था |