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Kashmir Ka Itihas in Hindi: 50 वर्षों तक कश्मीर को एक मजबूत, स्थिर और संगठित शासन देने वाली लंगड़ी रानी, जिसने दो बार मोहम्मद गजनवी को युद्ध में दी थी मात
Kashmir Ki Maharani Queen Didda History: आज हम इस आर्टिकल के जरिए आपको रानी दिद्दा के बारे में बताने जा रहे हैं, जो कश्मीर की सबसे शक्तिशाली महिला शासिकाओं में से एक थीं।
Queen Didda (फोटो साभार- सोशल मीडिया)
Kashmir Ki Maharani Didda: मध्यकालीन भारतीय समाज में, जहां महिलाओं को शासन में अधिक भूमिका नहीं मिलती थी, वहां दिद्दा ने न केवल शासन किया, बल्कि अपनी शक्ति को उप मजबूती से स्थापित किया। उन्होंने अपने शत्रुओं और विद्रोहियों को कुशलता से हराकर सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखी। उनके शासन में कश्मीर का प्रशासनिक ढांचा और अर्थव्यवस्था मजबूत हुई। उनकी नीतियों और शासन प्रणाली ने कश्मीर के भविष्य की नींव रखी। रानी दिद्दा एक दूरदर्शी और साहसी शासिका थीं, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी सत्ता को सुरक्षित रखा।
रानी दिद्दा (लगभग 958-1003 ईस्वी) कश्मीर की सबसे प्रभावशाली महिला शासिकाओं (Most Powerful Female Ruler Of Kashmir) में से एक थीं। उन्होंने लगभग 50 वर्षों तक कश्मीर पर शासन किया। उनकी कहानी भारतीय इतिहास में एक प्रेरणादायक उदाहरण है कि किस प्रकार एक महिला शासक ने अपनी क्षमता, बुद्धिमत्ता और दृढ़ संकल्प से शासन किया और कश्मीर के इतिहास में अपना नाम अमर किया।
बात जब कश्मीर की सबसे शक्तिशाली महिला शासक रानी दिद्दा (Rani Didda) की आती है, तो गिनती के लोगों के बीच ही आज के दौर में इनके योगदान और उनके व्यक्तित्व से जुड़ी जानकारी सुनने को मिलती है। आइए आज जानते हैं इस एक बहादुर वीरांगना की कहानी जिसे उसके जन्म के समय अपशकुनी या अशुभ माना जाता था, लेकिन उन्होंने इस मान्यता को गलत साबित कर एक महान योद्धा के तौर पर अपनी पहचान कायम की-
क्यों इन्हें जन्म से ही अपशकुनी“ या अशुभ माना जाता था?
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
रानी दिद्दा के जन्म के समय उन्हें “अपशकुनी“ या अशुभ माना जाता था क्योंकि वे अपंग (पोलियोग्रस्त या विकलांग) थीं। उनके एक पैर में कमजोरी थी, जिससे वे सही से चल नहीं पाती थीं। पुस्तक राजतरंगिणी के अनुसार, दिद्दा लोहार राजवंश के सिंहराजा (Simharaja, King of Lohara) की बेटी थीं, जिन्होंने पुंछ के दक्षिण के कुछ पहाड़ी रियासतों पर शासन किया था।
दिद्दा बहुत सुंदर थीं, लेकिन उनका एक पैर खराब था जिसकी वजह से वह लंगड़ाकर चलती थीं। कल्हण के अनुसार, हमेशा उनके साथ एक लड़की रहती थी, जो उन्हें अपनी पीठ पर ढोकर एक जगह से दूसरी जगह ले जाती थी। दिद्दा हर समय अपने एक हाथ में लोहे का कवच बांधकर रखती थीं। उस समय के समाज में किसी शारीरिक विकलांगता को अक्सर अशुभ संकेत माना जाता था, और इसी कारण उनके जन्म को भी अपशकुन की तरह देखा गया।
हालांकि, दिद्दा ने इस सामाजिक धारणा को गलत साबित किया। उन्होंने अपनी शारीरिक कमजोरी को अपनी शक्ति का अवरोध नहीं बनने दिया और एक सशक्त, बुद्धिमान, और कुशल शासिका बनकर इतिहास में अपना स्थान बनाया। उनकी शासन क्षमता और दृढ़ संकल्प ने यह सिद्ध कर दिया कि व्यक्ति की सफलता उसकी शारीरिक शक्ति पर नहीं, बल्कि उसकी बुद्धिमत्ता, साहस और नेतृत्व क्षमता पर निर्भर करती है।
राजतरंगिणी पुस्तक में किया गया है इनका जिक्र
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
कल्हण 12वीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध इतिहासकार थे, जिन्होंने ‘राजतरंगिणी’ नामक ग्रंथ में कश्मीर के प्राचीन राजाओं और रानियों का विस्तार से वर्णन किया है। इस ग्रंथ को कश्मीर के इतिहास का सबसे पुराना और प्रमाणिक स्रोत माना जाता है।
कल्हण ने अपनी किताब ‘राजतरंगिणी’ में कई शासकों का उल्लेख किया है, लेकिन उन्होंने रानी दिद्दा को विशेष रूप से अधिक स्थान दिया है। इसके पीछे कई कारण थे-
दिद्दा का प्रभावशाली शासनकाल
उन्होंने लगभग 50 वर्षों तक (958-1003 ईस्वी) कश्मीर पर शासन किया। यह काल राजनीतिक स्थिरता और प्रशासनिक दक्षता का समय था, जिसमें उन्होंने विद्रोहों को कुचला और शासन को संगठित किया।
एक शक्तिशाली महिला शासक
उस युग में, जब महिलाओं की शासन में बहुत सीमित भूमिका होती थी, दिद्दा ने स्वयं राजकाज संभालकर एक उदाहरण प्रस्तुत किया। कल्हण ने इसे असामान्य और प्रभावशाली माना, इसलिए उनके शासन का विस्तृत वर्णन किया।
राजनीतिक चतुराई और शक्ति संघर्ष
दिद्दा ने अपने विरोधियों को पराजित किया और कुशल कूटनीति से सत्ता को मजबूत किया। उन्होंने दरबार में षड्यंत्रों को समझदारी से संभाला और प्रशासनिक स्थिरता बनाए रखी।
कश्मीर के इतिहास में योगदान
उन्होंने कश्मीर की समृद्धि के लिए कई कार्य किए और शासन व्यवस्था को मजबूती दी। उनके शासन में कश्मीर की अर्थव्यवस्था और सामाजिक ढांचा सशक्त हुआ।
कल्हण की दृष्टि में दिद्दा
हालांकि कल्हण ने दिद्दा की राजनीतिक कुशलता को सराहा, लेकिन उन्होंने उनके व्यक्तिगत जीवन को आलोचनात्मक दृष्टि से भी देखा। उन्होंने दिद्दा के कुछ फैसलों की आलोचना की। जिनमें कहा गया कि, दिद्दा द्वारा अपने सत्ता-लोभी स्वभाव के कारण अपने ही परिवार के लोगों को हटाना या मारना शामिल था। अपने कुछ प्रेम संबंधों को लेकर इनकी छवि विवादास्पद रही। फिर भी, दिद्दा की शक्ति, दूरदर्शिता और शासन क्षमता ने उन्हें कश्मीर के सबसे प्रभावशाली शासकों में स्थान दिलाया, और इसी कारण कल्हण ने ‘राजतरंगिणी’ में उन्हें विशेष महत्व दिया।
रानी दिद्दा की मौत के 145 साल बाद राजतरंगिणी लिखी गई थी। वर्तमान समय ने जब महिला अधिकारों को लेकर आज कानून उनके पक्ष में खड़ा है ऐसे में इस पुस्तक में मौजूद तथ्यों की जांच करना, रानी दिद्दा के सम्पूर्ण चरित्र और उनके योगदान को गहराई से समझने के साथ ये सवाल उठाना भी जरूरी है कि क्या कल्हण पितृसत्तात्मक समाज के कुशल प्रहरी और महिलाओं के प्रति उनकी संकीर्ण विचारधारा से ग्रसित थे, इस बात का प्रमाण उनकी लिखी इस पुस्तक राजतरंगिणी के माध्यम से मिलता है।
सती होने से कर दिया था इनकार
रानी दिद्दा का विवाह कश्मीर के राजा क्षेमगुप्त (Kshemagupta) से हुआ था, जो उतना सक्षम शासक नहीं था। क्षेमगुप्त शराब और विलासिता में लिप्त रहता था, जिससे राज्य की स्थिति कमजोर हो रही थी।
958 ईस्वी में राजा क्षेमगुप्त की मृत्यु हो गई। उस समय की परंपरा के अनुसार, रानी को राजा की मृत्यु के बाद सती होने की सलाह दी गई, यानी उन्हें राजा के साथ चिता में जलकर प्राण त्यागने की उम्मीद थी।
लेकिन दिद्दा ने इस प्रथा को मानने से इनकार कर दिया और अपने बेटे अभिमन्यु की संरक्षिका बनकर शासन संभालने का निर्णय लिया। यह एक साहसिक कदम था, क्योंकि उस समय सती प्रथा का सामाजिक दबाव अत्यधिक था, और इसे विधवाओं के लिए सम्मानजनक माना जाता था।
सती प्रथा को ठुकराने के पीछे कारण
दिद्दा स्वयं को एक शासक के रूप में देखती थीं और उन्होंने राज्य की जिम्मेदारी लेने का निश्चय किया। रानी दिद्दा का सती न होने का निर्णय न केवल उनके व्यक्तिगत साहस का प्रतीक था, बल्कि एक ऐतिहासिक मोड़ भी था, जिसने साबित किया कि महिलाएं सशक्त, बुद्धिमान और सक्षम शासक हो सकती हैं। उनके इस कदम ने कश्मीर के इतिहास को नया स्वरूप दिया और उन्हें एक सशक्त शासिका के रूप में अमर कर दिया।
वह जानती थीं कि अगर वे सती हो जाएंगे, तो कमजोर प्रशासन और बाहरी शक्तियां कश्मीर पर कब्जा कर सकती हैं। उन्होंने यह भी साबित किया कि महिलाएं केवल परंपराओं का पालन करने के लिए नहीं बनीं, बल्कि वे शासन भी कर सकती हैं।
शासन में उनकी भूमिका
अपने बेटे अभिमन्यु के अल्पायु में निधन के बाद, दिद्दा ने स्वयं राज्य की कमान संभाल ली और करीब 50 वर्षों तक शासन किया। उन्होंने कश्मीर को मजबूत प्रशासन दिया और अपनी राजनीतिक सूझबूझ से कई विद्रोहों को कुचलकर सत्ता पर पकड़ बनाए रखी।
सत्ता के प्रति कठोर नीतियों के चलते कहा गया चुड़ैल रानी
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
रानी दिद्दा को “चुड़ैल रानी“ कहने के पीछे मुख्यतः पितृसत्तात्मक समाज की सोच और उनकी सत्ता के प्रति कठोर नीतियां थीं। उन्होंने जो भी किया, वह सत्ता को बचाने और कश्मीर को मजबूत बनाने के लिए किया। आज के दृष्टिकोण से, उन्हें एक साहसी, कुशल और दूरदर्शी महिला शासक के रूप में देखा जाता है, जिसने इतिहास में अपनी छाप छोड़ी। उन्हें महिला शासक होने के नाते स्थानीय सरदारों और राज्य के मंत्रियों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। उस समय सरदार रानी दिद्दा को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे और उन्होंने उन्हें चुड़ैल और बदचलन कहना शुरू कर दिया था। जिसकी वजह से रानी दिद्दा का नाम चुड़ैल रानी भी पड़ गया।
असल में रानी दिद्दा को “चुड़ैल रानी“ कहे जाने के पीछे कई कारण थे, जिनमें उनका सत्ता के प्रति कठोर रुख, राजनीतिक विरोधियों का निर्ममता से दमन, और उनके निजी जीवन से जुड़े विवाद शामिल हैं। जो कि इस प्रकार हैं -
सत्ता के लिए निर्मम निर्णय
दिद्दा ने अपने शासन को सुरक्षित करने के लिए कई विरोधियों और प्रतिद्वंद्वियों को कठोर दंड दिया। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए अपने ही रिश्तेदारों, मंत्रियों और असंतुष्ट दरबारियों को मरवा दिया। उन्होंने अपने शासन के प्रारंभिक वर्षों में कई प्रभावशाली ब्राह्मणों और कुलीनों को दरबार से बाहर कर दिया या दंडित किया।
पुत्र और पोतों की मौतों पर संदेह
दिद्दा का बेटा अभिमन्यु अल्पायु में मर गया, जिसके बाद उन्होंने अपने पोतों को गद्दी पर बैठाया। लेकिन जब वे भी जल्दी मरते गए, तो यह संदेह बढ़ा कि दिद्दा ने स्वयं ही उन्हें सत्ता से हटाने के लिए मरवा दिया। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि उन्होंने अपने पोतों की हत्या करवाई ताकि वे स्वयं सीधे कश्मीर की शासक बन सकें।
प्रेम संबंधों और दरबार में प्रभाव
दिद्दा के कुछ दरबारी पुरुषों, विशेष रूप से तात्परिक नामक व्यक्ति, के साथ उनके गहरे संबंध थे। उनके प्रति अत्यधिक लगाव और उन्हें सत्ता में उच्च स्थान देने के कारण उनके विरोधियों ने उन्हें नकारात्मक छवि दी। यह भी कहा जाता है कि उन्होंने कुछ पुरुषों को सत्ता के लिए इस्तेमाल किया और बाद में उन्हें हटा दिया।
समाज में बनी उनकी नकारात्मक छवि
चूंकि वह एक महिला थीं और पुरुषों की तरह शासन कर रही थीं, इसलिए कई लोगों को यह स्वीकार्य नहीं था। तत्कालीन समाज में एक महिला का इतनी निर्दयता से शासन करना असामान्य था, इसलिए लोगों ने उनके लिए “चुड़ैल रानी“ जैसे विशेषण गढ़े।
विरोधियों और पितृसत्तात्मक सोच रखने वाले इतिहासकारों ने उनके शासन को क्रूरता और चालाकी से भरा बताया। हालांकि उन्हें “चुड़ैल रानी“ कहा जाता था, लेकिन इतिहासकार यह भी मानते हैं कि उन्होंने एक मजबूत, स्थिर और संगठित शासन दिया। उन्होंने कश्मीर को बाहरी आक्रमणों से बचाया।
उन्होंने प्रशासनिक सुधार किए और अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाया। उनके बिना कश्मीर संभवतः कमजोर हो जाता और बाहरी आक्रमणकारियों के हाथ में चला जाता। कहा जाता है कि उस समय कश्मीर के दरबार में रानी के खिलाफ कई तरह की साजिशें रची जा रही थीं। उन्होंने जिसे राज्य का प्रधानमंत्री बनाया था, वह भी पुंछ भाग गया था। रानी दिद्दा को अपनी ननद के बेटे महिमान और पटाला का विरोध झेलना पड़ा था, क्योंकि वह कश्मीर का राजा बनाना चाहते थे।
एक समय ऐसा आया था कि रानी दिद्दा ने कश्मीर पर राज करने के लिए सामंतों को घूस दी थी और बड़े-बड़े पदों का लालच दिया था। कल्हण कहते हैं कि रानी ने अपने विद्रोह को बड़ी निर्दयता से दबा दिया था।
रानी दिद्दा के बसाए कई स्थल आज भी हैं मौजूद
रानी दिद्दा ने अपने बेटे अभिमन्यु की मृत्यु के बाद अभिमन्युपुरा शहर का निर्माण करवाया था, जिसे आज में बिमयान कहा जाता है। इसके अलावा, रानी ने दिद्दा मठ की स्थापना की जिसे श्रीनमगर में दिद्दमार इलाका कहते हैं। इतिहासकारों के मुताबिक, रानी दिद्दा का छोटा बेटा भी ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रहा और उसकी बीमारी के चलते मृत्यु हो गई।
इसके बाद, रानी दिद्दा ने अपने पोते त्रिभुवनगुप्त को सत्ता पर बैठाकर एक बार फिर सत्ता की कमान अपने हाथों में संभाल ली। रानी दिद्दा ने 1003 ईस्वी तक कश्मीर पर शासन किया और आखिरी में गद्दी अपने भाई के बेटे संग्रामराज को सौंप दी।
दिद्दा से दो बार युद्ध में मात खाया योद्धा मोहम्मद गजनवी
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
रानी दिद्दा का शासनकाल कश्मीर के लिए सुरक्षा और शक्ति का काल था। उन्होंने न केवल आंतरिक षड्यंत्रों को कुचला, बल्कि गजनवी जैसे शक्तिशाली आक्रमणकारी को भी दो बार हराया। इसीलिए, उन्हें भारत की वीरांगनाओं में गिना जाता है, जिन्होंने अपने साहस, बुद्धिमत्ता और सैन्य शक्ति से कश्मीर को बचाया।
रानी दिद्दा को मुख्य रूप से महमूद गजनवी (971-1030 ई.) के पहले आक्रमणों का सफलतापूर्वक सामना करने के लिए जाना जाता है। यह घटना कश्मीर के इतिहास में महत्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि उन्होंने गजनवी के आक्रमणों को दो बार विफल किया और कश्मीर को बचाया।
कश्मीरी लेखक आशीष कौल की ’दिद्दाः कश्मीर की योद्धा रानी’ की किताब में जिक्र है कि 1025 ईस्वी में मोहम्मद गजनवी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण किया था। उसके बाद, उसने कश्मीर पर कब्जा करने की योजना बनाई, लेकिन शायद उसे नहीं पता था कि उसका सामना किससे होने वाला था। रानी दिद्दा ने गजनवी की सेना से लड़ाई लड़ी और उन्होंने ऐसी रणनीति अपनाई की गजनवी को अपने राज्य में घुसने तक नहीं दिया। ऐसा केवल एक बार नहीं, बल्कि रानी दिद्दा ने दो बार किया। कश्मीर की भूगोलिक स्थिति (पहाड़ों और घाटियों से घिरा हुआ इलाका) भी एक बड़ा कारण था, जिससे गजनवी की सेना को भारी नुकसान हुआ।
उन्होंने अपने शासनकाल में कश्मीर की सेना को मजबूत किया और रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण किलों की सुरक्षा बढ़ाई। उनकी कूटनीति इतनी प्रभावशाली थी कि उन्होंने न केवल आंतरिक विद्रोहों को कुचला, बल्कि बाहरी आक्रमणकारियों को भी हराया। वह अपने विरोधियों को समझदारी से मात देने के लिए जानी जाती थीं और उन्होंने गजनवी की सेना को दो बार हराकर यह साबित कर दिया।
"गुरिल्ला युद्ध तकनीक से घंटे भर में फ़ते किया था युद्ध"
पैरों से विकलांग लेकिन इनकी नसों में जोश और साहस लहू बनकर दौड़ता था। ये युद्ध कौशल में बेहद निपुण थीं। कहा जाता है कि रानी दिद्दा ने अफगानिस्तान की लड़ाई में गुरिल्ला युद्ध तकनीक का इस्तेमाल करते हुए राजा वुशमेगीर की सेना के 38,000 सैनिकों को धूल चटा दी थी। मात्र एक घंटे से भी कम समय में सैनिकों को वापस भागने के लिए मजबूर कर दिया था।
दिद्दा ने राजा वुशमेगीर के जनरल को हाथी के पैरों के नीचे कुचल दिया था। रानी ने ये युद्ध शत्रुओं के 38,000 सैनिकों की तुलना में केवल 500 सैनिकों की एक छोटी सी सेना के साथ लड़ा था और एक ऐतिहासिक जीत हासिल की थी।
रानी दिद्दा को केवल “चुड़ैल रानी“ या “सत्ता-लोभी महिला“ कहना उनके व्यक्तित्व को अधूरा चित्रित करना होगा। वे कश्मीर की सबसे प्रभावशाली शासिकाओं में से एक थीं, जिन्होंने राजनीति, सैन्य रणनीति और प्रशासन में कुशलता दिखाई। उन्हें एक साहसी, सशक्त और कुशल महिला शासिका के रूप में याद किया जाना चाहिए, जिन्होंने न केवल अपने राज्य को मजबूत किया, बल्कि इतिहास में अपनी एक अलग पहचान बनाई।