TRENDING TAGS :
Shri Jagannath Dham Yatra: यात्रा श्री श्री जगन्नाथ धाम, पुरी करे पूरे हर काम
Shri Jagannath Dham: यह तीर्थ ओडिशा राज्य के पुरी जिले में समुद्र तट पर बसा हुआ है। नगर के मध्य क्षेत्र में श्री जगन्नाथ जी का श्री मन्दिर स्थित है।
Shri Jagannath Dham Yatra: हिन्दू धर्म के अनुसार भारत देश में चार धाम प्रसिद्ध है, पूर्व में श्री जगन्नाथ धाम, पश्चिम में द्वारका धाम, उत्तर में बद्रिनाथ धाम, दक्षिण में रामेश्वर धाम। चारों धाम में श्री जगन्नाथ धाम 'पुरी' सर्वश्रेष्ठ धाम माना गया है।श्री जगन्नाथ धाम में श्री हरि का हृदय आज भी धड़कता है । यह ब्रम्ह पदार्थ जागृत रुप में श्री हरि के मूर्ति में विद्यमान हैं । पुराण में वर्णित है कि नारायण श्री हरि विष्णु श्री बद्रीनाथ धाम में तपस्या करते हैं, श्री रामेश्वर धाम में स्नान करते हैं, श्री जगन्नाथ धाम (पुरुषोत्तम क्षेत्र) में अन्न भोग ग्रहण करते हैं एवं श्री द्वारका धाम में शयन करते हैं।
पुरी पावन स्थल
यह तीर्थ ओडिशा राज्य के पुरी जिले में समुद्र तट पर बसा हुआ है। नगर के मध्य क्षेत्र में श्री जगन्नाथ जी का श्री मन्दिर स्थित है। पुरी रेलवे स्टेशन से तीर्थ स्थान लगभग दो मील की दूरी पर स्थित है। उड़ीसा राज्य के राजधानी भुवनेश्वर से साठ कि.मी. की दूरी पर पुरी नगर अवस्थित है। पुरी तीर्थ स्थल के विभिन्न नाम इतिहास में वर्णित है:- (1) श्री जगन्नाथ धाम (2) श्री नीलांचल धाम (3) श्री शंख क्षेत्र (4) श्री पुरुषोत्तम क्षेत्र (5) श्री जमनिक तीर्थ (6) श्री क्षेत्र (7) श्री मर्त्य बैकुण्ठ (8) श्री उच्छिष्ट क्षेत्र (9) श्री उड्डीयान पीठ (10) श्री कुशस्थली (11) श्री भौम क्षेत्र |
कौन है महाप्रभु श्री जगन्नाथ जी
द्वापर युग के अन्त में भगवान श्री कृष्ण , भील (शिकारी) जाराशबर (रामायण काल में वानरराज बाली )के वान लगने से शरीर त्याग किये व पाण्डव पुत्र श्री अर्जुन ने अग्नि दाह किया था । समस्त शरीर के जल जाने पर भी भगवान के हृदय (नाभी कमल) को अग्निदेव जला न सके । आकाश वाणी से अर्जुन को आदेश मिला की हृदय को नीले कवच में रखकर महानदी में विसर्जित कर दो। अर्जुन ने वैसा ही किया | अर्धदग्ध पिण्ड एक विराट ज्योति बनकर तैरने लगा | विराट नील ज्योति बहते हुए कई वर्षों के पश्चात् पुरी जिला के ब्रम्हागरि स्थान पर पूर्व दिशा में जहाँ सबरों (आदिवासी जनजाति ) का वासभूमि था। अर्थदग्ध पिण्ड नील विराट ज्योति इसी स्थान पर तैरते हुए, पहुँच गया | एक दिन सबर राजा 'विश्वावसु' समुद्र किनारे पर जाते समय एक चमकते नील ज्योति को देखकर आश्चर्य से भावमग्न होकर श्री हरि को पाने के उद्देश्य में ध्यान और स्तुति करने लगे । तो नील ज्योति किनारे पर आ गई और यह ज्योति नीलमाधव के परमविग्रह के रुप में बदल गई । श्री विश्वावसु परमविग्रह को लेकर नीलकन्दर पहाड़ की गुफा में स्थापना कर नील माधव की पूजा अर्चना करने लगे। मालव देश के राजा इन्द्रदुम्न विष्णु भगवान के परम भक्त थे। इनको राज पाट में एक सूना- सूना सा लगता था। इससे परेशान होकर राजा ने मंत्रीमण्डल से सारी बात बताई। मंत्रियों के विचार विमर्श से राजा इन्द्रदुम्न विष्णुपूजा में आकृष्ट होकर विष्णु प्रतिमा की खोज में अपने दूतों को राज्य के चारों दिशाओं में भेज दिया । परंतु तीन दिशाओं से विष्णु प्रतिमा न पाकर दूत खाली हाथ लौट आये (एक दिशा में समुद्र था)| राजा इन्द्रदुम्न और रानी गुंडिचा विष्णु भगवान के परम भक्त थे तब एक रात विष्णु भगवान ने मंदिर निर्माण के लिये राजा को स्वप्न में दिशा निर्देश दिया । मंदिर का निर्माण तो हो गया परन्तु भगवान के बिना मंदिर सुना था । एक यात्री राजा से भेट कर भगवान नील माधव के विग्रह रूप की जानकारी दी एवं यह भी बताया की सबर जनजाति (आदिवासी जनजाति) के राजा श्री विश्वावसु भगवान नील माधव के विग्रह का रोज दर्शन करते है और किसी अज्ञात गुफा में उन्हें छुपा कर रखें है। राजा इन्द्रदुम्न ने अबकी अपने पुरोहित के छोटे भाई पं.विद्यापति को ब्राम्हण दूत बनाकर सबर गाँव में भेज दिया। सबर राजा विश्वावसु के अनुपस्थिति के कारण उनकी कन्या ललिता ने नवागत अतिथि का आदर सत्कार भी किया था । विश्वावसु से भेंट के पश्चात् विद्यापति वहाँ ठहर गये । प्रत्येक दिवस राजा विश्वावसु सुबह तड़के अंधेरे में ही जंगल चले जाते थे पूजा अर्चना कर वापस आ जाते थे । एक दिन विद्यापति ने ललिता से पूछा तुम्हारे पिता जी सुबह तड़के कहाँ जाते हैं ? ललिता ने सारी बात बताई, अब विद्यापति ने तुरंत भाप लिया की यह वहीं विष्णु प्रतिमा है। विद्यापति ने ललिता से विग्रह रूप के दर्शन की अभिलाषा जताई परन्तु ललिता ने कहा पिताजी नीलमाधव के विग्रह रूप के दर्शन किसी को भी नहीं कराते । विद्यापति जो स्वयं विष्णु भगवान के परम भक्त थे उन्होंने एक युक्ति लगाई नील माधव के दर्शन के लिये ललिता से प्रेम कर राजा विश्वावसु उनकी पुत्री से विवाह का प्रस्ताव रखा । ललिता के इच्छा से विद्यापति के साथ अपनी एक लौति कन्या से विवाह करा दिया। कुछ दिनों के पश्चात् विद्यापति ने अपनी इच्छा प्रकट की नीलमाधव के दर्शन उन्हें भी कराया जाय परंतु राजा विश्वावसु ने स्पष्ट मना कर दिया। लेकिन अपने एक लौति कन्या के निवेदन पर एक शर्त पर राजी हो गए।
सबर राजा विश्वावसु ने आँखों पर पट्टी बांधकर विद्यापति को ले जाने के लिये राज़ी हो गये। जब विद्यापति के आखों पर पट्टी बांधी गयी और जब वे दर्शन के लिये निकले तब विद्यापति ने पोटली में सरसों के दाने रख लिये रास्ते में न देख पाने कारण वे पोटली से समय-समय पर सरसों के दाने गिराते गये। थोड़े ही दिनों में वहाँ पर पौधे उग आये । इससे रास्ता भूलने का प्रश्न ही न रहा । इसी प्रक्रिया में सबर राजा विश्वावसु ने अपने दामाद विद्यापति के आखों पर पट्टी बांधकर नीलमाधव को दर्शन करा कर घर ले आए। कुछ दिनों के पश्चात विद्यापति ने ललिता व विश्वावसु से अपने घर जाने की इच्छा प्रकट की और कहा की मैं शीघ्र वापस आऊँगा । मालव प्रदेश के राजा इन्द्रदुम्न को विद्यापति ने सारी घटनाओं का वृतान्त सुनाया | राजा ने अपनी सेना को तैयार कर विद्यापति के साथ नीलकन्दर की गुफा सबर क्षेत्र की ओर निकल पडें । दूसरी ओर सबर राजा विश्वावसु को भय उत्पन्न हुआ की कहीं विद्यापति गुप्तचर तो नहीं थे । इस भय से विश्वावसु ने श्री हरि के विग्रह को किसी अन्य अज्ञात स्थान पर ले जाकर छुपा दिया । जब राजा इन्द्रदुम्न ने नीलकन्दर गुफा में प्रवेश किया तो देखा की वहाँ पर नीलमाधव विग्रह अंतर्ध्यान हो गये थे | तब राजा ने विश्वावसु को बंदी बनाकर इस रहस्य के विषय में पूछा । तब विश्वावसु ने कहा मुझे नहीं मालूम। सबर राजा विश्वावसु मन ही मन अपनी मन स्मृति करने लगे- हे महाप्रभु राजा इन्द्रद्युम्न ने मुझे किस अपराध से पकड़ लिया हैं।
उसी रात राजा इन्द्रदुम्न को स्वप्न में श्री हरि विष्णु भगवान ने कहा कि हे इन्द्रदुम्न विश्वावसु को छोड़ दो पिछले जन्म (जारा शबर)भील शिकारी को नीलमाधव क़े रूप में आजीवन उसके साथ रहने का वचन मैंने उसे दे रखा है। तुम भी मेरे परम भक्त हो तुम अपने राज्य मालव वापस जाओ और द्वारीका से समुद्र में बहते हुए एक काष्ट लकड़ी का बड़ा सा पेड़ हुआ आयेगा, नीम के पेड़ की लकड़ी होगी । उस पर शंख, चक्र, ध्वज आदि के चिन्ह बने होंगे । पूरी के बांकीमुहाण के पास समुद्र में जो दारूब्रम्ह(काष्ट, लकड़ी) तैरते हुए आयेगी उसे शीघ्रताशीघ्र विग्रह बनाने का प्रयत्न करो। यह कार्य श्री विश्वावसु के ही हाथों से सम्पन्न होगा। और उनसे आग्रह कर इसी विग्रह में ब्रम्ह पदार्थ की स्थापना करवाओ । जगन्नाथ जी के आदेशानुसार राजा इन्द्रदुम्न विश्वावसु को साथ में लेकर दारु (लकड़ी) को पहले गुण्डिचा मन्दिर में रखा तत्पश्चात् कोयल वैकुण्ठ में मूर्ति बनवाया था। श्रीमन्दिर का क्षेत्रफल 10 एकड़ का है। दो बेढा और चार दरवाजा श्री मन्दिर के भीतर प्रवेश और प्रस्थान करने के लिये है। ये है पहला सिंहद्वार (पूर्वदिशा)द्वार, दूसरा व्याघ्र (पश्चिम दिशा) द्वार, तीसरा हाथी द्वार उत्तर दिशा में , चौथा अश्व द्वार (दक्षिण दिशा) । जिनमें आमभक्त गण दक्षिण व उत्तर द्वार से प्रवेश नहीं कर सकते । दक्षिण द्वार से पुरी के महाराजा व महाराणी तथा नेपाल, के राजा, तान्त्रिक व विशेष व्यक्तिगण ही यहाँ से श्रीहरि मन्दिर में प्रवेश कर सकते हैं। वहीं उत्तर दिशा का प्रयोग प्रायः श्री हरि के नवकलेवर के समय चतुद्धआमूर्ति के द्वार (काष्ट) इस द्वार से होकर कोयल बैकुण्ठ को लिया जाता है। मन्दिर का मुख्य द्वार सिंहद्वार है जो पूर्व दरवाजा कहलाता है। पूर्व दिशा से सामान्य जन प्रवेश करते हैं। इस द्वार में प्रवेश करते ही समुद्र तट की ध्वनि तरंग गायब हो जाती है । दूसरा व्याघ्र दरवाजा पश्चिम द्वार जो कि पश्चिम दिशा से आम जनमानस प्रवेश करते हैं। पश्चिम द्वार के पास मन्दिर की ओर से चप्पल, जूता, मोबाइल स्टैण्ड है, जहाँ पर आप इसे नि:शुल्क जमा करके दर्शन के लिये अन्दर जा सकते हैं। मन्दिर प्रांगण में भीतर दर्शन करने के क्रमश: स्थान:- पूर्व दिशा से प्रवेश करते समय अरुण स्तंभ पतितपावन (श्री जगन्नाथ जी) को प्रणाम करते हुये 22 सीढ़ियां चढ़ने के पश्चात् मन्दिर परिसर में प्रवेश कर श्री हरि के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है। मन्दिर परिसर के अन्य मन्दिर पावन स्थान है - फते महावीर चार दिशाओं में चार हनुमानजी मन्दिर की सुरक्षा करते हैं। काशीविश्वनाथ मन्दिर, कूर्मबेढ़ा (पूर्व द्वार), श्री सत्यनारायण मन्दिर, कल्पवट वृक्ष , श्री वटगणेश मन्दिर, श्री रसोई घर, श्री रामचन्द्र मन्दिर ,शङ्भुज गौरांग मन्दिर, बाराह भाई हनुमान मन्दिर, बट मंगला मन्दिर, अनन्त बासुदेव मन्दिर, मुक्तिमण्डप, आदि नृसिंह महाविष्णु मन्दिर, रोहिणी कुण्ड, बिमला देवी मन्दिर, साक्षी गोपाल मन्दिर, एकादशी मन्दिर , काँचि गणेश मन्दिर, नीलाचल उपवन, चारधाम मन्दिर, कानपता हनुमान नीलाद्रि विहार, शिरचोरागोपीनाथ मन्दिर, भुवनेश्वरी, माँ सत्यभामा मन्दिर, नीलमाधव मन्दिर, भद्रकाली मन्दिर, महालक्ष्मी मन्दिर, नवग्रह मन्दिर, सूर्यनारायण मन्दिर, श्री पातालेश्वर महादेव, गरुड स्तम्भ, जय-विजय द्वार , कला घाट द्वार रत्नसिंहासन , श्री मन्दिर के विग्रह, कोयल बैकुण्ठ, शीतला देवी मन्दिर, ईशानेश्वर महादेव मन्दिर, इन सभी मन्दिर परिसर के स्थलों का दर्शन क्रमश: करने के पश्चात अन्ततः महाप्रसाद ग्रहण करने का पुण्य समय आता है । यानी की मन्दिर परिसर का आनन्द बाजार परिसर उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित है । यहाँ पर श्रद्धालुओं के लिए श्री जगन्नाथ जी के सभी भोग का विक्रय होता है। महाप्रसाद ग्रहण करने के लिये यहाँ बहुत सारे मण्डप है। यहाँ भक्तग्ण महाप्रसाद को क्रय कर मंडप में आराम से बैठकर भगवान श्री जगन्नाथ जी का महाप्रसाद ग्रहण कर सकते हैं। यह प्रसाद पचास रुपये से लेकर सौ, दो सौ जितने में चाहें प्राप्त कर सकते हैं। यहीं से सूखा महाप्रसाद आप घर ले जाने के लिए क्रय कर सकते हैं। एवं सुबह मंगला आरती के पश्चात इसी प्रांगण में श्री हरि को चढ़ाया गया खिचड़ी महाप्रसाद खाने का सौभाग्य भी प्राप्त कर सकते हैं। तीर्थयात्रा के समय भक्त गण दोनों समय महाप्रसाद मन्दिर परिसर में ग्रहण कर महापुण्य का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं। श्री नीलचक्र का दर्शन, श्रीमन्दिर के शिखर में जो चक्र है जिसमें ध्वजा बांधा हुआ हैं। इसी ध्वज को पतितपावन ध्वजा कहते हैं। दूर से नीलचक्र के दर्शन मात्र से श्रीजगन्नाथ जी के दर्शन का पुण्यफल का लाभ मिल जाता है। प्रतिदिन चाहे आंधी हो या तुफान पुराना ध्वजा निकाल के नया लगाया जाता है। प्रतिदिन मार्च महीने से लेकर अक्टूबर महीने तक सायंकाल पांच बजे से छ: बजे तक और नवम्बर महीने से फरवरी महीने में चार बजे सायंकाल से पांच बजे तक ध्वजा बांधने का कार्य होता है।
इस समय श्रीमन्दिर के आंगन में हजार-हजार भक्तों के एक साथ हरिबोल ध्वनि बोलने से मन्दिर परिसर गंूज जाता है। यह दृश्य देखकर भक्तगण अपने नेत्र और आत्मा को पवित्र करते हैं। प्रत्येक माह के एकादशी तिथि में नीलचक्र के ऊपर महादीप प्रज्वलित किया जाता है। प्रत्येक दिवस पांच बजे मन्दिर का द्वार खुल जाता है। मन्दिर परिसर के दर्शन का नियम इतना सरल है, की सामान्य व्यक्ति बड़े ही सरलता से ईश्वर का दर्शन प्राप्त कर पुण्य मोक्ष पाते हैं।
यात्रा कब करें
पुरीकी यात्रा हर साल ज्येष्ठ पूर्णिमा (देव स्नान पूर्णिमा ) "मासि जौषठे च संप्राप्ते नक्षत्रे चन्द्र दैवते, पौर्णमास्यां तदा स्नानं सर्वकालं हरेर्द्विजाः।" इस दिन से लेकर रथयात्रा आरंभ होने के पूर्व तक (पंद्रह दिन) श्री जगन्नाथ महाप्रभु चतुद्धामूर्ति बुखार से पीड़ित रहने के कारण भक्तों को दर्शन नहीं देते हैं। भक्त गण इस समय न जाकर आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि पर जायें। प्रतिवर्ष श्री श्री जगन्नाथ जी की सर्वश्रेष्ठ रथयात्रा जून- जुलाई के महीने में होता है। सुप्रसिद्ध जगन्नाथ यात्रा को देखने के लिये विदेशों से भी लोग आते हैं। क्योंकि श्री मन्दिर में मात्र हिन्दुओं को ही दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। अन्य लोगों को इसी समय यात्रा के दौरान श्री जगन्नाथ जी, श्री बलभद्र जी, श्री सुभद्रा देवी सभी अन्य भक्तों को दर्शन देने के लिये श्री मन्दिर से बाहर रथयात्रा करते हैं। श्री हरि के पावन दर्शन पाकर भक्तगण अपने पापों से मुक्ति पाते हैं।
पुरी नगर के अन्य प्रमुख तीर्थ स्थल
दूसरा तीर्थ स्थल है श्री गुण्डिचा मन्दिर (जनकपुर): श्री पुरी मन्दिर के पश्चात सबसे महत्वपूर्ण स्थानों में इस तीर्थ स्थान का नाम आता है। इसे जगन्नाथ जी का जन्मस्थान जनकपुरी भी कहा जाता है। पुराण के अनुसार पहले इस स्थान पर अश्वमेघ यज्ञ का पीठस्थल था । यहाँ यज्ञवेदी चार फिट ऊँची 13 फिट लम्बी पत्थर से बनी हुई थी। वर्तमान में यहाँ श्री गुण्डिचा मन्दिर है। राजा इन्द्रद्युम्न महाराजा की पत्नी का नाम गुण्डिचा देवी के नामानुसार इस मन्दिर का नामकरण हैं। यहाँ पर रानी गुण्डिचा देवी के द्वारा दारू (लकड़ी) से चतुर्द्धामूर्ति का निर्माण कराया गया था। श्री जगन्नाथ यात्रा श्री मन्दिर से चलकर रथों पर सवार होकर महाप्रभु को इसी श्री गुण्डिचा मन्दिर (जनकपुर) जन्म स्थान पर लाया जाता है। यहाँ पर प्रभु सात दिन रहकर दशमी के दिन श्री मन्दिर वापस आते हैं।
तीसरा तीर्थ स्थल है चक्रतीर्थ व चक्रनारायण मन्दिर :
कहा जाता है कि दारु विग्रह (काष्ठ) समुद्र में तैरते हुए सबसे पहले यहीं पर पहुंचे थे |
चौथा तीर्थ स्थल बेड़ी हनुमान मन्दिर:
पुरी रेलवे स्टेशन से समुद्र तट की ओर चक्रतीर्थ मन्दिर के पास मन्दिर है। एक बार हनुमान जी श्री रामनवमी- महोत्सव देखने अयोध्या चले गये थे । इस पर श्री हरि ने हनुमान जी के पैरो में बेड़ी डाल दी, जिससे की वे कहीं न जा सकें क्योंकि हनुमानजी के हटने से समुद्र देव पुरी नगर में प्रवेश कर जाते थे । श्री हरि के दर्शन के लिए और श्री जगन्नाथ जी मौसीमा मन्दिर का दर्शन प्रमुख स्थानों में कर पुण्य प्राप्त कर सकते हैं।
पुरी दर्शन के साक्षी के लिये साक्षीगोपाल मन्दिर का दर्शन करना आवश्यक होता है। यह मन्दिर श्री हरि के मन्दिर से सोलह किमी. की दूरी पर स्थित है। पुरी से निकट चन्द्रभागा, प्रसिद्ध कोणार्क सूर्य मन्दिर, लिंगराज मन्दिर भुवनेश्वर (साठ कि.मी.)लिंगराज मंदिर एक ऐतिहासिक तीर्थ स्थल है । यहां पर माँ पार्वती के मूर्ति की सुंदरता देखते ही बनती है। इतनी सुंदर मूर्ति हरे रंग की छटा लिये माँ का रुप मैंने आज तक और कहीं भी नहीं देखा है । इस स्थल पर श्रद्धालुगण अवश्य जायें । यहाँ का पुराणों में भी उल्लेख मिलता है , और चिलिका झील जैसे घुमने के स्थान है। पुरी नगर से लगभग साठ कि.मी. के दूरी पर सभी तीर्थ स्थल तक पहुचने के लिए गोल्डन बीच (समुद्र तट पर कई ट्रैवेल ऐजेंसी है) जिनसे आप सुबह 7बजे से ए.सी.बस रु.350 से रु.450 तक में ट्रैवेल पैकेज की बुकिंग कराकर इन स्थानों की यात्रा बड़े ही आसानी से कर सकते हैं।
श्री पुरी धाम यात्रा के लिये कम से कम दो महीने पहले ट्रेन कि बुकिंग करवा कर धर्मशाला या होटल की बुकिंग कर सकते हैं। कम से कम दो दिन पूरी के तीर्थ स्थानों एवं समुद्र तट पर जाने के लिये रखें। और एक दिन पुरी से बाहर तीर्थ स्थानों के लिये रखें। तब जाकर आराम से सभी स्थलों का दर्शन कर सकते है । सबसे बड़ी बात हम इस आधुनिक पाश्चात् संस्कृति के समय अपने बच्चों व नई पीढ़ी को अपने सनातन संस्कृति से भेंट कराने का सौभाग्य इन्हें दे सकते है । एवं हम सभी को हिन्दू धर्म के इतिहास, धर्म, पूजा-पाठ, पुण्य-मोक्ष प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। इस स्थान को धरती का स्वर्ग भी कहते हैं । जय श्री श्री जगन्नाथ धाम पुरी ।