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देवदूत दिनकर की उंगलियों के पोर पर खड़े प्रश्न, आनंद जी की कलम से

Admin
Published on: 24 April 2016 6:58 AM GMT
देवदूत दिनकर की उंगलियों के पोर पर खड़े प्रश्न, आनंद जी की कलम से
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anand-vardhan-ojha आनंद वी. ओझा

लखनऊ: आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की 107वीं जयंती है। उनकी स्मृति से ही मन पवित्र हो जाता है। मैं उनका स्नेहभाजन रहा हूं। उन्होंने अपने जीवन के चौथेपन में पुत्रवत स्नेह-जैसी प्रीति की जो अजस्र वर्षा मुझ अकिंचन पर की थी, उसे भुला पाना असंभव है।

मैंने बाल्यकाल से ही उनके अनेक रूप निकट से देखे हैं- मित्र-वत्सल स्वरूप, चिंतन-मग्न स्वरूप, कवि-कर्मी स्वरूप और रौद्र स्वरूप भी। उनकी अनेक मुद्राएं भी देखी हैं- तैल-मर्दन की मुद्रा, काव्य-पाठ की मुद्रा, शैयाशायी मुद्रा, लेखन-निमग्न मुद्रा, भावोद्वेग झेलती मुद्रा और अधलेटी लेखन करती मुद्रा। वह अपूर्व पुरुष थे। पिताजी से उनकी पुरानी और घनिष्ठ मित्रता थी। पटना में एक साथ रहते हुए भी कई-कई दिनों पर उन दोनों का मिलना होता था, लेकिन जब मिलते, बड़ी आत्मीयता से मिलते और जो एक बार बातें शुरू होतीं, तो वे ख़त्म होने का नाम न लेतीं, जाने किन-किन वीथियों से गुजरती बातें...!

पिताजी ने भी जीवन भर कलम घिसने का काम ही किया था। उन्हें राइटर्स क्रैम्प नाम की एक बीमारी भी थी। वह मुट्ठियों में भींचकर कलम को अपने वश में करते, फिर लिखते। ऐसा करते हुए कलम का सारा दबाव उनके दाहिने हाथ के अंगूठे पर पड़ता। लेखन की जीवनव्यापी असाध्य पीड़ा झेलते हुए उनकी अंगुष्ठा के मध्य पोर के दोनों उभारों पर घट्ठे पड़ गए थे। कभी-कभी उसमें खराश भी उत्पन्न होती, ज्यादातर गर्मियों के दिनों में। वह उसपर एक-दो बूँद शुद्ध घी लगा लेते थे।

मई-जून 1972 में मैंने 'दिनकर की डायरी' का काम उनके कक्ष में बैठकर डेढ़-दो महीने किया था। उन्हीं दिनों की बात है। एक दिन मैंने गौर किया कि जब वह लिखते हैं तो उनकी कनिष्ठा का पहला पोर कागज पर घिसटता हुआ चलता है। मैंने उनसे जिज्ञासा की तो उन्होंने मुझे अपनी कनिष्ठा दिखाई और कहा, लिखते-लिखते अब तो यहां घट्ठा पड़ गया है, देखो", मैंने देखा तो वहां सचमुच वैसा ही घट्ठा पड़ा हुआ था, जैसा पिताजी के अंगूठे पर था। मैंने उनसे कहा, ऐसे ही दो घट्ठे बाबूजी के अंगूठे पर पड़ गए हैं, वह तो अपनी मुट्ठी में कलम पकड़कर लिखते हैं न, इसीलिए। दिनकरजी मुस्कुराये, फिर किंचित गंभीरता से उन्होंने कहा, "रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान। मैं उनके कथन का अभिप्राय समझ गया था, मौन रहा।

थोड़ा रुककर उन्होंने ही कहा, मैंने और मुक्तजी ने जीवन भर कलम-घिसाई की है, यह तो होना ही था। मुझे तो कनिष्ठा पर एक ही घट्ठा पड़ा है, मुक्तजी के अंगूठे पर दो-दो-घट्ठे। राइटर्स क्रैम्प भी अजब बीमारी है, आदमी खुरपी-कुदाल चला सकता है, कलम नहीं। यह बीमारी उन्हें ही होती है, जिन्हें लिखना और लिखते ही जाना है। प्रभु की यह कैसी माया है ?

1995 में जब पिताजी का निधन हुआ तो उनके पार्थिव शरीर पर यथाविधान शुद्ध घृत का मुझे लेपन करना था। यह कठिन कर्म करते हुए मैंने उनके अंगूठे पर बहुत सारा घी लगाया और भावावेश में उसे देर तक सहलाता रहा। वह मेरी चेतनाशून्य सी दशा थी। यदि पंडितजी ने हस्तक्षेप न किया होता, मैं यही सेवा करता जाता। जाने कब तक। इस प्रसंग का जब कभी स्मरण हो आता है, एक प्रश्न मेरी चेतना पर आकर ठहर जाता है, क्या दिनकरजी के पार्थिव शरीर पर घृत-लेपन करते हुए केदार भैया (कविवर केदारनाथ सिंह, दिनकरजी के कनिष्ठ पुत्र) ने भी उनकी कनिष्ठा की अतिरिक्त सेवा की होगी? क्या उनकी चेतना भी वहां ठहरी होगी? क्या उनकी मनोपीड़ा और भावोद्वेलन अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा होगा?

जानता हूँ, यह अत्यंत भावुकतापूर्ण एक निरीह प्रश्न है। इसकी कोई युक्तिसंगत व्याख्या भी नहीं है, लेकिन भावुकतापूर्ण ही सही, प्रश्न तो है और वह बार-बार उठ खड़ा भी होता है मेरे मन के निभृत एकांत में, मुझे उद्वेलित करता हुआ। अपनी इस मनोदशा और इस प्रश्न का क्या करूं

लिहाज़ा, यह प्रश्न आपके सामने रखकर आज भार-मुक्त होता हूं। पूज्य दिनकरजी को बारम्बार प्रणाम करता हूँ, नमन करता हूं।

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