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एवरेस्ट के वरद पुत्र कहलाते हैं शेरपा, ‘नागपा लाॅ’ की ऊंचाई कर देगी आपको हैरान

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Published on: 29 Sept 2016 4:52 PM IST
एवरेस्ट के वरद पुत्र कहलाते हैं शेरपा, ‘नागपा लाॅ’ की ऊंचाई कर देगी आपको हैरान
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लखनऊ: दोस्तों ... एवरेस्ट पर जाने से पहले जितना उत्साह भरा हुआ था, उससे ज्यादा दुःख उसे छोड़ते हो रहा था... एवरेस्ट बेस कैम्प में हिमालय को आत्म सात करते हुए हमने तीन घंटे से ज्यादा समय बिताया था। हमने वहां वह स्थान भी देखा, जहां 2015 में 25 अप्रैल के विनाशकारी भूकंप के बाद आए एवलांच ने 19 पर्वतारोहियों की जान ली थी। ऊपर से चट्टान खिसकने के खतरे के कारण 2016 में उस इलाके में किसी को भी टेंट लगाने की अनुमति नहीं दी गई थी।

नेपाल पर्यटन विभाग के कुछ अधिकारियों ने स्वयं वहां पर उपस्थित रह कर इस बात को सुनिश्चित किया कि कोई भी टीम गलती से भी वहां पर शिविर स्थापित न करने पाए। हालांकि ठंडी हवाओं की मार से बचने के लिए वही इलाका अधिक सुरक्षित माना जाता है।

( राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी। )

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एवरेस्ट बेस कैम्प की दुनिया एक अलग ही दुनिया है। विश्व के अनेक ताकतवर और संपन्न देशों के नागरिक यहां पर नेपाल के गरीब गावों में रहने वाले शेरपाओं की पर्वतारोहण क्षमताओं के सम्मुख नतमस्तक हो जाते हैं। शेरपाओं को शायद इसीलिए 'हिमालय का वरद पुत्र' कहा जाता है। अत्यंत विनम्र, मृदु भाषी और अविश्वसनीय ढंग से शक्तिशाली तथा साहसी इन शेरपाओं के बिना एवरेस्ट का कोई अभियान संभव नहीं।

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एवरेस्ट ही क्यों, हिमालय की किसी भी चोटी के अभियान शेरपाओं के बिना अधूरे माने जाते हैं। हिमालय की कठिन प्राकृतिक परिस्थितियों में सदियों से रहते आए ये शेरपा लोग हिमालय की ऊंचाई, मौसम और अन्य प्राकृतिक प्रतिकूलताओं के प्रति खुद को ढाल चुके हैं। अनुवांशिक रूप से भी इनके खून में ऑक्सीजन के प्रति अधिक अनुकूलता होने की पुष्टि हो चुकी है।

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1953 में तेनजिंग नोर्गे की एडमंड हिलेरी के साथ पहली एवरेस्ट विजय के बाद से शेरपाओं से सम्मान में बहुत वृद्धि हुई और इसी के साथ-साथ पर्वतारोहण के क्षेत्र में उनके महत्व की भी पहचान हुई। बाद के वर्षों में अभियान दलों के साथ शेरपाओं के रिश्तों में भी परिवर्तन होना शुरू हुआ और पश्चिमी देशों के पर्वतारोही उन्हें महज एक भारवाहक समझने के बजाय अपने सहयोगी के रूप में मानने लगे। अब तो अनेक गांवों से शेरपा विदेशों तक पहुंच गए हैं।

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सबसे अधिक 21 बार एवरेस्ट आरोहण करने वाले ‘आपा शेरपा’ अब अमेरिका के प्रतिष्ठित नागरिक हैं, तो उन जैसे अनेक शेरपा फ्रांस, आस्ट्रेलिया, जर्मनी, इंग्लैण्ड आदि देशों में सुविधापूर्ण जिंदगी जी रहे हैं। सिर्फ न्यूयार्क शहर में ही 3000 से ज्यादा शेरपा निवास कर रहे हैं। लेकिन नेपाल के दूर दराज के पहाड़ी गावों में रहने वाले शेरपा लोग अभी भी अपनी बेहद कठिनाईयों भरी जिंदगी जी रहे हैं मगर अपने हाल में खुश हैं।

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इन दिनों सामान्यतः पर्वतारोहण से जुड़े हर नेपाली नागरिक को भ्रमवश शेरपा कहा जाने लगा है। हालांकि शेरपा नेपाल निवासियों की एक अलग नस्ल है, जो तिब्बती मूल की मानी जाती है। तिब्बती में शेरपा का अर्थ होता है पूरब के निवासी। माना जाता है कि करीब 300 से 600 वर्ष पूर्व शेरपा लोग तिब्बत से एवरेस्ट के 30 किलोमीटर पश्चिम में स्थित ‘नागपा ला’ दर्रे के रास्ते नेपाल की खुम्भू घाटी में आए। ‘नागपा लाॅ’ दर्रा 19000 फुट ऊंचा है और नेपाल तथा तिब्बत के बीच पुराने समय में मुख्य व्यापारिक तथा तीर्थ यात्रा मार्ग था। हालांकि तिब्बत पर चीन के अधिपत्य के बाद से यह मार्ग बंद हो गया।

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2006 में 75 निहत्थे तिब्बती नागरिकों ने नेपाल में शरण लेने के लिए इसी मार्ग का प्रयोग करने का प्रयास किया था। मगर चीन की पीपुल्स आर्म्ड पुलिस ने उन पर गोलीबारी की, जिसमें एक 17 वर्षीय बौद्ध भिक्षु मारा गया और 17 लोग लापता हो गए थे। हालांकि चीन ने इस घटना से इंकार किया लेकिन ‘चो ओयू’ बेसकैम्प में मौजूद पर्वतारोही दलों ने इस घटना की तस्वीरें खीचीं और वीडियो भी बनाए थे।

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5-6 सौ वर्ष पूर्व तिब्बत से आकर प्रारम्भ में खुम्भू घाटी में बसने के बाद ये लोग चार अलग-अलग समूहों में नेपाल के अन्य पर्वतीय इलाकों में फैले और अब शेरपाओं के करीब 20 उपवर्ग हैं जो नेपाल के साथ साथ भूटान तथा भारत के सिक्किम एवं दार्जिलिंग इलाकों में भी शेरपा रहते हैं। नेपाल में शेरपाओं की आबादी लगभग एक लाख 80 हजार के आसपास है।

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पर्वतारोही के रूप में शेरपाओं की पहचान मुख्यतः एवरेस्ट के आंगन यानी सोलखुम्भू घाटी ने ही बनाई। पहले एवरेस्ट विजेता तेनजिंग नोर्गे का जन्म सोलखुम्भू घाटी के ही थामे गांव में अपनी ननिहाल में हुआ था। तेनजिंग की असाधारण पर्वतारोहण प्रतिभा ने थामे गांव को एक हीरो प्रदान किया और इसी का नतीजा है कि आज थामे गांव को इस बात का श्रेय है कि विश्व में सबसे अधिक एवरेस्ट विजेता इसी गांव के हैं। पर्वतारोहण के अनेक विश्व कीर्तिमान शेरपाओं के नाम हैं। सबसे अधिक 21 बार एवरेस्ट पर पहुंचने का अविश्वसनीय रिकॉर्ड आपा शेरपा और पूर्वा ताशी शेरपा के नाम है, तो सबसे अधिक सात बार एवरेस्ट पर पहुंचने वाली महिला होने का लाकपा शेरपा के नाम, जो उन्होने इसी वर्ष बनाया है।

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बाबू चिरी शेरपा ने 1999 में 21 घंटे एवरेस्ट पर बिताने का अनोखा रिकॉर्ड बनाया। तो काजी शेरपा ने 1998 में 20 घंटे और 24 मिनट में बेस कैम्प से एवरेस्ट शिखर तक बिना ऑक्सीजन के चढ़ कर एक और कीर्तिमान बना दिया। लेकिन ऑक्सीजन की मदद से एवरेस्ट आरोहण के कीर्तिमान तो और भी अचंभित करने वाले हैं। 23 मई 2003 को पेम्बा दोर्जी ने 12 घंटे 46 मिनट में बेस कैम्प से शिखर तक पहुंच कर एक रिकॉर्ड बनाया था।

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तीन दिन बाद ही लखपा गेलू ने 10 घंटे 46 मिनट में एवरेस्ट आरोहण का नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया। मगर एक वर्ष बाद 21 मई 2004 को पेम्बा दोर्जी ने 8 घंटे 10 मिनट में एवरेस्ट की ऊंचाई नाप कर फिर से अपना डंका बजा दिया और एक नया असंभव सा रिकॉर्ड बना दिया। वैसे तो शेरपाओं के साहस के आगे हिमालय की ऊंचाइयां नतमस्तक होती रही हैं। मगर एक कड़वा सच यह भी है कि इन ऊंचाइयों में जान गंवाने वाले और अपंग होने वाले लोगों में भी सबसे बड़ी संख्या शेरपाओं की ही है।

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शेरपाओं के लिए हिमालय आराध्य भी है और रोजी रोटी भी, खेल का मैदान है तो अंतिम यात्रा की जगह भी। एवरेस्ट आधार शिविर पर अपने अतुलनीय आनंद की अनुभूतियों में इस कड़वी सच्चाई ने हमें कुछ क्षणों के लिए ग्लानि का अनुभव भी करवाया था। हालांकि वहां से विदा होते वक्त तक हमने खुद को सहज कर लिया था। उस समय राजेन्द्र के चेहरे की चमक बता रही थी कि तमाम दर्द और कष्टों के बावजूद अपने लक्ष्य की सिद्धि हो जाने उसमें से कितना उत्साह और उल्लास भर गया था। अरूण भी अपने आप में प्रमुदित था क्योंकि एवरेस्ट बेस कैम्प हमारे लिए सपनों से हकीकत में बदल चुका था और सपनों का हकीकत बन जाना हमेशा ही आनंदित करता है।

गोविंद पंत राजू

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