खूबसूरती है इसकी दुनिया में सबसे बेस्ट, दिल बोले सबके- वाह माउंट एवरेस्ट

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Published on: 20 Sep 2016 7:14 AM GMT
खूबसूरती है इसकी दुनिया में सबसे बेस्ट, दिल बोले सबके- वाह माउंट एवरेस्ट
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govind pant raju Govind Pant Raju

लखनऊ: ज़िंदगी कि असली उड़ान बाकी है, जिंदगी के कई इम्तेहान अभी बाकी है,

अभी तो नापी है मुट्ठी भर ज़मीन हमने, अभी तो सारा आसमान बाकी है...

जैसे-जैसे हमारे कदम एवरेस्ट की ओर बढ़ रहे थे, वैसे-वैसे हमारे मन में और भी उत्साह जाग रहा था। खैर आगे की यात्रा का रोमांच आपको सुनाते हैं। गोरखशेप की सुबह रोज जैसी नहीं थी। हमारे दिलों में बड़ी उथल-पुथल थी। धड़कनें तेज थीं, इसलिए नहीं कि हमें ऊंचाई के कारण कोई दिक्कत हो रही थी बल्कि इसलिए कि हम आज अपने एक सपने को पूरा करने जा रहे थे। एवरेस्ट को स्पर्श करने का सपना! एवरेस्ट जो दुनिया के हर पवर्तारोही का सपना होता है।

( राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी।)

एवरेस्ट किशोरावस्था से ही मेरे सपनों का शिखर रहा है और भी बहुतों का रहा होगा, मगर मेरे और मेरे साथियों के लिए उसका एक अलग तरह का ही आकर्षण रहा है। पिछले करीब 15 साल से राजेन्द्र, अरूण और मैं एवरेस्ट की ओर जाने की योजना बनाते रहे थे और अब साक्षात एवरेस्ट हमारे सामने था। गोरखशेप में देर शाम तक हम उस पर डूबते सूर्य की किरणों का नृत्य देखते रहे थे और हमने उस पर सुबह की पहली किरण का जादुई असर भी देखा था।

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एवरेस्ट की महानता हमने तब देखी, जब सूर्य की पहली किरणों ने एवरेस्ट को नमन किया और सारे पहाड़ों के पीछे छिपे एवरेस्ट पर सुनहरी आभा आलोकित हो उठी। अद्भुत आनंद की अनुभूति के क्षण थे वह। उस समय हमारे सामने की ऊंचे शिखरों की कतार हल्के अंधियारे में डूबी हुई थी और उनके ऊपर मुकुट की तरह सुनहरी आभा में दमक रहा था धरती का मुकुट यानी माउंट एवरेस्ट। दुनिया के इस सबसे ऊंचे शिखर ने अनेक रूपों से मनुष्य को आकर्षित किया है। भारतीय परम्परा में एवरेस्ट को गौरीशंकर कहा जाता था और एवरेस्ट को उसका ‘एवरेस्ट’ नाम भी भारत की भूमि से मिला है। इसके नामकरण की कहानी भी काफी रोचक है।

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माना जाता है कि एवरेस्ट को दुनिया का सर्वोच्च शिखर मानने का किस्सा कोलकाता से शुरू हुआ। वस्तुतः विश्व के सबसे ऊंचे शिखर का नामकरण हुए अभी 164 वर्ष ही हुए हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक तो यह माना जाता था कि एंडीज पर्वत श्रंखला विश्व की सबसे ऊंची पर्वत श्रंखला है, लेकिन 1802 में ब्रिटिश सरकार ने भारत और आस पास के देशों के सर्वेक्षण के लिए ‘ग्रेट टिग्नोमैट्रिकल सर्वे’ के नाम से एक योजना शुरू की। इसके लिए ग्रेट टिग्नोमैट्रिकल सर्वे नाम का एक विभाग भी बनाया गया।

इस विभाग के लोगों ने बहुत प्रतिकूल परिस्थितियों में जब हिमालय क्षेत्र का प्रारम्भिक सर्वेक्षण शुरू किया तो यह ज्ञात हुआ कि विश्व की सबसे ऊंची पर्वत श्रंखला एंडीज नहीं बल्कि हिमालय है। इसी विभाग के लगातार प्रयासों से हिमालय की चोटियों की ऊंचाई मापने का कार्य भी आरम्भ किया गया। यह कार्य बहुत ही दुष्कर और श्रम साध्य था। विभाग के पहले मुखिया

कर्नल विलियम लोबस्टन ने इस कार्य के लिए बहुत ही परिश्रम किया।

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उनके कार्यों का महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि 1823 में सत्तर वर्ष की उम्र में जब उनकी मौत हुई उस वक्त भी वो सर्वे के कार्य के लिए एक टेंट में मौजूद थे। उनके बाद आने वाले अधिकारियों ने भी अपने काम में कोई कोताही नहीं की। टिग्नोमैट्री के आधार पर हो रहे इस सर्वेक्षण में 1843 से हिमालयी क्षेत्र में कार्य शुरू हुआ। हिमालय में सर्वेक्षण का कार्य करना और भी कठिन एवं चुनौती पूर्ण था। 1849 में कुछ छोटी हिमालयी चोटियों के सर्वेक्षण के दौरान एक शिखर आस-पास के शिखरों में सबसे ऊंचा प्रतीत हुआ, हालांकि अलग अलग स्थानों से की गई गणना में उसकी ऊंचाई में अंतर आ रहा था। इस शिखर को इसके क्रम के अनुसार ‘पीक फिफ्टीन’ का नाम दिया गया।

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बाद में इस फील्ड सर्वे के आंकड़े कोलकाता में विभाग के कार्यालय में गणितीय गणना के लिए भेज दिए गए। गणितीय गणना विभाग में मुख्य गणक के पद पर एक भारतीय राधानाथ सिकंदर कार्यरत थे। ऐसा कहा जाता है कि 1852 में एक बार गणना करते हुए वे आश्चर्य चकित होकर अपने मुखिया एंड्रयू वा के पास पहुंचे और उनसे कहा, ‘‘श्रीमान मैंने विश्व का सर्वोच्च शिखर खोज लिया है।’’ इस बात में चाहे जितनी सच्चाई हो पर यह तय है कि राधानाथ सिकंदर की एवरेस्ट की ऊंचाई का आकलन करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी।

एंड्रयू वा ने इस जानकारी को और चार वर्ष तक पुष्ट किया और अन्ततः 1856 में ‘पीक फिफ्टीन’ को विश्व का सबसे ऊंचा शिखर घोषित कर दिया गया। इस शिखर को वा के पूर्ववर्ती सर्वेयर जनरल रहे जार्ज एवरेस्ट का नाम दिया गया। जार्ज एवरेस्ट भी अत्यंत परिश्रमी थे। भारत के सर्वेक्षण में उनका योगदान बेहद महत्वपूर्ण है। 1830 में वे महासर्वेक्षक बनाए गए और 1832 में उन्होंने मसूरी में एक घर खरीदा जो अब एवरेस्ट हाउस के नाम से जाना जाता है। गर्मियों में वे वहीं से सर्वेक्षण का काम करते थे।

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अथक परिश्रम से उनके स्वास्थ पर प्रतिकूल असर पड़ा और उनके कूल्हे की हड्डियां खराब होने से उनका चलना तक बन्द हो गया। वे रॉयल सोसाइटी के सदस्य भी बनाए गए थे और रॉयल सोसाइटी के विवरणों के अनुसार ‘‘कई महीनों तक टाइफाइड के ज्वर के कारण वे इतने दुर्बल हो गए थे कि जब वे थियोडोलाइट उपकरण के जरिए सर्वेक्षण का काम करते थे, तो दो व्यक्तियों को उन्हें सहारा दे कर खड़ा रखना पड़ता था। वे उस यंत्र के पेंच तक नहीं घुमा पाते थे’’।

जार्ज एवरेस्ट के परिश्रम का अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि उनके साथी उन्हे एवरेस्ट के बजाय ‘नेवर रेस्ट’ कह कर संबोधित करते थे। उन्हें जार्ज एवरेस्ट के नाम पर सारी दुनिया में सिरमौर बना सगरमाथा शिखर आज हमारे इतने करीब था कि हम उसे छू सकते थे। इसलिए हम बेहद रोमांचित थे और इसी लिए हमारे दिल की धड़कनें तेज होती जा रही थीं।

गोविंद पंत राजू

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