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फैरिचे में सर्द हवाओं ने की बढ़ते कदम रोकने की कोशिश, तो दूधकोसी की गति से हुई होड़

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Published on: 10 Jan 2017 4:15 PM IST
फैरिचे में सर्द हवाओं ने की बढ़ते कदम रोकने की कोशिश, तो दूधकोसी की गति से हुई होड़
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govind pant raju Govind Pant Raju

लखनऊ: एवरेस्ट के दर्शन हो चुके थे। जाने की यात्रा को काफी बेहतर रही एवरेस्ट के रास्तों में हमारे साथ क्या-क्या हो रहा था, यह तो आप पढ़ते ही आ रहे हैं। ठंडी हवाएं परेशान कर रही थी पर हमारी ख़ुशी उससे ज्यादा ताकतवर साबित हुई आइए। आपको आगे की यात्रा के बारे में बताते हैं…

(राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी। )

फैरिचे में मेरी नींद सुबह जल्दी टूट गई थी। अभी पांच नहीं बजे थे। मैं उठ कर बाहर आया, तो देखा कि पूरी फैरिचे की घाटी हल्के कोहरे में डूबी हुई थी मगर सामने की एक बर्फीली चोटी के ऊपर सूर्य की पहली किरणें दस्तक दे चुकी थीं। मैं वापस अंदर आ गया। चाय की दरकार थी। मगर डाइनिंग हाॅल में अभी सन्नाटा था। बगल के कमरे में अरूण भी उठ चुका था। उससे पता चला कि रात में राजेंद्र को काफी परेशानी हुई थी और दर्द असह्य होने के बाद पेन किलर खाकर ही वह सो पाया था। नवांग की सक्रियता के कारण साढ़े छह बजे चाय भी मिल गई।

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बाहर हवा अब तेज हो गई थी। इसलिए ठंड भी बढ़ गई थी। हमने अपना सामान समेटना शुरू कर दिया था। थोड़ी ही देर में एक हेलीकॉप्टर के पखों की गड़ गड़ाहट गूंजने लगी। वह हेलीकॉप्टरर फैरिचे से दो बीमार आरोहियों को लुकला ले जाने के लिए आया था। कुछ सामान भी लुकला से आया था। बहुत जल्दी-जल्दी सामान उतारा गया और बीमारों को लेकर हेलीकॉप्टर वापस उड़ गया।

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फैरिचे का एक नया दिन शुरू हो चुका था। धूप आहिस्ता-आहिस्ता नीचे घाटी की ओर उतरने लगी थी। हमने अपना नाश्ता शुरू किया। नाश्ते के दौरान नीमा ने शाम की तरह ही बहुत सारे किस्से सुनाए। बेटे विदेशों में पढ़ रहे हैं और पति काठमाण्डू में एक ट्रेवल एजेंसी चलाता है। मगर नीमा यहां फैरिचे में अपने भाई का कारोबार चला कर सोलखुम्भू की अध्यवसायी महिलाओं की परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं। कुक युवराज उनके कारोबार में पूरा सहयोग देता है और उनकी जिंदगी पूरे संतोष के साथ गुजरती जा रही है। हर साल दुनिया के कोने-कोने से एवरेस्ट के दीवाने यहां आते हैं और उनमें से अनेक इसी फैरिचे रेसॉर्ट में टिकते हैं। नीमा का कारोबार साख और आपसी विश्वास के रिश्ते से चलता है।

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नीमा ही नहीं इस समूची सोलखुम्भू घाटी में हर एक टी हाऊस और गेस्ट हाऊस का कारोबार इसी रिश्ते से चल रहा है। जो एक बार यहां आता है। अपने मित्रों और साथियों को इनसे जोड़ देता है। कड़ी से कड़ी जुड़ती जाती है और कई मामलों में तो ये रिश्ता दूसरी और तीसरी पीढ़ी तक भी जुड़ जाता है। आत्मीयता इस व्यवसाय की जान है और एक प्रकार से ये टी हाऊस संचालक पूरे पर्यटन व्यवसाय की रीढ़ हैं। इस तरह का समर्पण और मासूमियत भारत के हिमालयी क्षेत्र के पर्यटन को जुड़े छोटे व्यवसायियों में क्यों नहीं विकसित हो पाई। यह विचारणीय है।

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बहरहाल मनपसंद आलू के पराठों का नाश्ता कर जब हम फैरिचे की खिलखिलाती सुबह से विदा लेकर आगे बढ़े तब तक आठ बज चुके थे। हवा में अभी ठंडक थी क्योंकि धूप पूरी तरह नीचे नहीं उतर सकी थी। हमारा मार्ग लगभग समतल था और पावों के नीचे जमे हुए पानी की कड़कड़ाहट के कारण हमारी चाल को एक लय मिल रही थी। आज हमें नामचे बाजार पहुंचना था, हालांकि मैं चाहता था कि हम नामचे से 4 किमी पहले क्यांग जिमा के टी हाऊसों में रूक जाएं और एक नई जगह पर सूर्योदय का आनंद लें। लेकिन अरूण का कहना था कि नामचे जाने में हमें तमाम सुविधाएं मिल सकेंगी और हम बेहतर ढंग से रात बिता पाएंगे। राजेंद्र दोनों स्थितियों से सहमत लगता था, अन्ततः अरूण की इच्छा के अनुसार थोड़ी देर की बहस के बाद हमने नामचे पहुंचना ही तय कर लिया।

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फैरिचे से थोड़ी दूरी बाद हमें पुल को पार कर दूसरी पहाड़ी पर चढ़ना था। फैरिचे से आने वाली जलधारा आगे थोड़ी ही दूर पर दिगंबोचे से आने वाली इमजा खोला से मिल कर बड़ा आकार ले लेती है और दूधकोशी की मुख्य धारा बन जाती है। पुल पार कर हल्की चढ़ाई के बाद हम एक चैड़े से पठारी इलाके में पहुंच गए थे। धूप में अब हल्की गरमी आ गई थी। मगर हवा में अब भी तीखी ठंड थी।

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हमारे पीछे जो छूट गया था। वह अब हमारी स्मृतियों का अमिट हिस्सा था, मगर सामने एवरेस्ट से रोजी रोटी के रिश्तों से जुड़े अनेक गांव हमारी वापसी यात्रा में हमारा स्वागत कर रहे थे। थ्यांगबोचे के मठ में पहुंचने से पहले खराब मौसम का एक दौर हमारे लिए नए अनुभव लेकर आया। फैरिचे से जब हम नीचे उतरे तो आसमान साफ था। लेकिन दूधकोशी की धारा को पार कर जब हम थ्यांगबोचे की ओर बढ़ने लगे। तो हल्की-हल्की बर्फबारी शुरू हो गई। हमने अपने वाटर प्रूफ पहन लिए और थोड़ा तेज चलना शुरू कर दिया।

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थ्यांगबोचे के अपने पिछली बार वाले टी हाऊस में जब हम पहुंचे। तो हमारे कपड़े भीग चुके थे। लेकिन डाइनिंग रूम में पहुंचते ही वहां की गरमी और गर्म चाय ने हमारी सारी ठंड भगा दी। पिछली बार हमने यहीं राजेंद्र का जन्मदिन शानदार ढंग से मनाया था। इस बार भी अरूण ने हमारे नाश्ते का बढ़िया इंतजाम करवा दिया था। नवांग भी इंतजाम में लगा था और ताशी मेरे साथ मठ से पिछवाड़े से घाटी का अवलोकन कर रहा था। नीचे कहीं-कहीं बादलों के पार धूप के टुकड़े हरियाली को आलोकित कर रहे थे।

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थ्यांगबोचे से विदा लेकर हम नीचे ढलान में उतरने लगे थे। हल्की बर्फबारी के बाद यहां के सफेद बुरांश भी खूबसूरत लगने लगे थे। जमीन में नमी होने से धूल भी कम हो गई थी। इसलिए हम बड़ी तेजी से नीचे उतरते जा रहे थे। घना जंगल पार करते हुए हम नदी की तलहटी में पुंगीथ्यांगा गांव पहुंचे। तो दिन के दो बज चुके थे। सामने अब तेज चढ़ाई थी। चढ़ाई चढ़ने से पहले हमने चाय पीना जरूरी समझा और जितनी देर में चाय तैयार होती, हमने आसपास लोगों से बातचीत करके समय का सदुपयोग कर लिया। यह ऐसी जगह है, जहां पर वास्तविक रूप से दूधकोशी की पहचान बनती है।

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एवरेस्ट के एक दूसरे इलाके से आने वाली धारा और फैरिचे की ओर से इमजा खोला से मिल कर बनी धारा, संगम के बाद 10 किमी आगे यहीं पर एक दूसरे से मिल कर दूधकोशी का नाम हासिल करती हैं। दूसरी ओर की घाटी ज्यादा संकरी है और वहां से आ रही जल धारा अधिक तेज बहाव वाली है जबकि थ्यांगबोचे के नीचे से आ रही धारा कम प्रवाह वाली है। पुंगीथ्यांगा में हमने एक कारीगर को लोहे के औजार ठीक करते हुए देखा। तो एक दूसरा परिवार पानी से घूमने वाले धर्मचक्रों की मरम्मत कर रहा था। चूंकि यहां से एक मार्ग गोक्यो की ओर भी जाता है इसलिए ग्रामीणों के लिए यह रात रूकने का भी पड़ाव है। हालांकि आरोही व घुमक्कड़ यहां बहुत मजबूरी में ही रूकते हैं।

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जब हमने चढ़ाई चढ़ना शुरू किया, तब तक तीन बज चुके थे, इसलिए धूप की तेजी जैसी कोई समस्या हमारे लिए नहीं होनी थी। हमने धीरे-धीरे ऊपर चढ़ना शुरू कर दिया। घने जंगल में तरह-तरह के पक्षियों की चहचहाट हमारे कदमों की गति को उत्साहित कर रही थी। चार पांच किलोमीटर की इस चढ़ाई के आखिरी हिस्से में हमारे पहुंचते-पहुंचते सांझ ढलने लगी थी। रास्ते में एक जगह चार-पांच घरों के बीच कुछ लोग बर्तनों में पानी भरते दिखाई दिए, रात का इंतजाम हो रहा था शायद।

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हमारे ऊपर पहुंचने तक अंधेरा घिर चुका था। हवा इतनी तेज थी कि हमारी टोपियां उड़ने लगी थी। चलते-चलते अब हमें थकान भी होने लगी थी। इस इलाके में भालू और अन्य जंगली जानवरों के होने की भी आशंका थी। इसलिए हम सब एक साथ चल रहे थे। नवांग के पीछे अरूण, फिर राजेंद्र, फिर मैं और फिर ताशी। अंधेरे के कारण भी हमें संभल कर चलना पड़ रहा था।

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जब हम चढ़ाई पार करके समतल इलाके में बसे क्यांग जिमा गांव की बेकरी में पहुंचे, तो वहां दुकान के मालिक के परिवार का खाना बन चुका था। हमने जब चाय की मांग की। तो वे लोग थोड़े अनमने से दिखाई दिए। मगर नवांग ने ठीक से पैरवी की। तो हम लोगों को गर्मा-गर्म चाय मिलने की उम्मीद कामयाब होती दिखने लगी। पसीने के कारण ठंड लग रही थी। हमने बूट उतार कर अंदर चूल्हों की आग की गर्मी का मजा लेना और अपने सामने रखे गए थरमस से चाय सुकड़ने का आनंद लेना शुरू कर दिया। करीब आधे घंटे बाद हम फिर से तरोताजा होकर नामचे बाजार के लिए रवाना हो गए। यहां से नामचे तक का मार्ग आसान था। खतरनाक भी नहीं था और चढ़ाई भी बहुत नहीं थी।

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हम लोग आसमान में टिमटिमाते तारों को देखते हुए नामचे की ओर बढ़ते जा रहे थे और दूर नीचे गहरी खाई में दूधकोसी का तेजगति से बहता पानी जैसे हमसे होड़ करता जा रहा था। हवा की रफ्तार लगातार तेज होती जा रही थी और कभी-कभी तो ऐसा भी लग रहा था कि जैसे वह हमें उड़ाकर ले जाएगी। मगर नामचे पहुंच कर बहुत दिनों बाद सुविधा जनक ढंग से स्नान कर पाने का आकर्षण हमें लगातार तेजी से आगे बढ़ाता जा रहा था।

गोविंद पंत राजू



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