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टी हाऊस से देखा शिखरों के चांदी होने का नजारा, खाई पिज्जा बेस जितनी मोटी रोटियां

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Published on: 7 Oct 2016 7:21 AM GMT
टी हाऊस से देखा शिखरों के चांदी होने का नजारा, खाई पिज्जा बेस जितनी मोटी रोटियां
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Govind Pant Raju Govind Pant Raju

लखनऊ: मंज़िलें नहीं रास्ते बदलते हैं, जगा लो जज्बा जीतने का...

किस्मत कि लकीरें चाहे बदले न बदले, वक़्त जरूर बदलता है...

एवरेस्ट की यात्रा जितनी जाते टाइम इंट्रेस्टिंग रही, उसकी दोगुनी वापस आते टाइम भी रही। शाम को जब हम गोरखशेप पहुंचे, तो उस वक्त तक मौसम काफी खराब हो चुका था। एवरेस्ट बेस कैंप की ओर जाते वक्त जब हम गोरखशेप में रूके थे, तो उस शाम वहां मौसम बहुत अच्छा था। आसमान एकदम साफ था और हम अपने टी हाऊस के हाॅल में बैठ कर बड़ी देर तक खिड़कियों से एवरेस्ट सहित आस-पास की पहाड़ियों पर डूबते सूरज की किरणों की जादूगरी देखते रहे थे। डूबती शाम के साथ छोटे बड़े हिमशिखरों के बदलते रंग और अमा देवलम का रक्ताभ आभा में रंग जाना भी हमने देखा और फिर चांदनी रात में उसका चांदी-चांदी हो जाना भी।

( राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी।)

लेकिन इस बार की शाम पिछली बार से बिल्कुल अलग थी। गहरे सिलेटी बादल बहुत नीचे तक उतर आए थे। सूरज की किरणें उनके ऊपर ही कहीं खो गई थीं और सूर्यास्त से करीब एक घंटा पहले ही ऐसा लगने लगा था जैसे रात हो गई हो। हवा भी तेज हो गई थी और कभी-कभार उड़ते हुए बर्फ के फाहे भी दिखने लगे थे। जबकि पिछली बार हम बड़ी देर तक टी हाऊस की खिड़की से एवरेस्ट पर उतरती सुनहरी शाम को रात में बदलते हुए देखते रहे थे।

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गोरखशेप में जिस टी हाऊस में हम रूके थे, उसका डायनिंग हॉल दूसरे टी हाऊस से एकदम अलग था। यह हॉल बहुत बड़ा था, करीब 100 लोगों के बैठने लायक। जब हम हॉल में पहुंचे, तो वहां करीब 50 लोग पहले से बैठे हुए थे। संयोग से हमें वही मेज मिल गई थी, जहां हम पिछली बार बैठे थे। इसकी खिड़की से हम बाहर का नजारा आराम से देख सकते थे। हॉल में खासी गहमा-गहमी थी। सगरमाथा नेशनल पार्क से प्रबंधन से जुड़े कुछ स्थानीय कर्मचारी व अधिकारी भी वहां पर मौजूद थे। पता चला कि वे नियमित रूप से दौरे करते रहते हैं।

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काफी देर तक वे हंसी-मजाक करते हुए खाना खाते रहे और फिर शाम को जरा सा मौसम साफ होते ही हमारे टी हाऊस से करीब 30 मीटर दूरी पर थोड़ी सी ऊंचाई पर बने हैलीपेड से वे सभी बारी-बारी से नीचे के लिए उड़ते रहे। हमने अंदाजा लगाया कि उन्हें लुकला छोड़ कर वापस आने में हेलीकॉप्टर को करीब 40 मिनट लग रहे थे। जब दो हेलीकॉप्टरों के दो-तीन चक्करों में वे सभी वापस चले गए, तो हमने देखा कि वहां से उन्हे विदा करके और हाथ में कुछ सामान लेकर जो युवक लौट रहा था वो हमारे टी हाऊस में ही काम कर रहा एक व्यक्ति था।

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लुकला से लेकर गोरखशेप तक इस इलाके में हमें कई जगह यह बात देखने को मिली कि स्थानीय व्यवसाई या होटल वाले लोग हेलीकॉप्टर और विमान सेवा के प्रबंधन से स्थानीय सहायक के तौर पर किसी न किसी रूप में जुड़े हैं। इसके लिए उन्हें कुछ भुगतान नहीं किया जाता। मगर हवाई सेवा वाले लोग वक्त जरूरत खाली होने पर उनका जरूरी सामान ला देते हैं। हमारे टी हाऊस के कर्मियों ने बताया कि वे सब एक ही परिवार के हैं और यह टी हाऊस उन्होंने सात लाख नेपाली रूपए के किराए पर इस पूरे सीजन के लिए लिया है।

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अरूण ने रोजाना ग्राहकों की अनुमानित संख्या और उनके औसत बिल के आधार पर जो मोटा-मोटा अनुमान लगाया उससे हमें अंदाज हुआ कि यह कोई बहुत भारी मुनाफे वाला सौदा नहीं है। इनमें खासी मेहनत भी करनी पड़ती है मगर उन लोगों के लिए यह धंधा भी है, शौक भी और मजबूरी भी।

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गोरखशेप में हमारे टी हाऊस के प्रबंधन से जुड़े सभी लोग बहुत स्नेहिल और हंसमुख थे। अमूमन हमें सभी टी हाऊस में मौजूद लोग बहुत आत्मीय व मेहमान नवाज लगे। दिंगबोचे से नीचे तो टी हाऊसेस का सारा काम महिलाएं ही संभालती दिखी थीं, मगर यहां ऊपर यह जिम्मेदारी पुरूषों ने संभाल ली थी, दरअसल यहां महिलाएं मौजूद ही नहीं थीं। ज्यादातर टी हाऊसेस में यह व्यवस्था है कि टीम के साथ मौजूदा गाइड या प्रमुख शेरपा टी हाऊस प्रबंधन और पर्वतारोहियों के बीच मध्यस्थ होता है। वह टीम के सदस्यों की जरूरत और शारीरिक, मानसिक स्थिति के अनुसार उनको भोजन की सलाह देता है।

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कई बार भाषा के कारण संवाददीनता की स्थिति में समाधान वही निकालता है। यहां आने वाले पर्वतारोही और ट्रैकर चीनी, जापानी, कोरियन, जर्मन, फ्रेंच आदि अलग अलग भाषाएं बोलने वाले होते हैं, इसलिए प्रायः काठमाण्डू से चलते समय वे अपनी भाषा जानने वाले नेपाली गाइड या शेरपा को जरूर साथ लाते हैं। काठमाण्डू में ऐसे लोग आसानी से मिल जाते हैं। इस तरह के गाइड या शेरपाओं को दुभाषिए की भी भूमिका निभानी पड़ती है।

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टी हाऊस में भोजन व नाश्ते आदि के कुछ मोटे-मोटे नियम हैं। जैसे ही आप किसी टी हाऊस में पहुंचते हैं और आपको वहां रात रूकना होता है, तो चाय या गर्म पानी पीते-पीते आपके सामने मेन्यूकार्ड रख दिया जाता है। यानी आपको अगले लंच या डिनर का ऑर्डर तुरंत देना होता है। लंच दोपहर तीन बजे बाद नहीं मिलता और नामचे बाजार डिनर आठ बजे और नामचे से ऊपर शाम सात बजे तक कर लेना होता है। आठ बजे बाद किचन बंद हो जाते हैं और फिर सुबह की चाय सात बजे से पहले नहीं मिल पाती।

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खाना सर्व करने का काम ज्यादातर टीम के गाइड या शेरपा ही करते हैं क्योंकि टी हाऊस चलाने वाले लोग बहुत कम लोगों के साथ सारा इंतजाम चलाते हैं। आम तौर पर ज्यादा चलने वाले टी हाऊस काठमांडू से अच्छे युवा कुक लेकर आते हैं, जो हर तरह का भोजन तैयार करने में माहिर होते हैं। एवरेस्ट की ऊंचाइयों में कई बार आपकी खाना खाने की इच्छा खत्म हो जाती है।

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ऊंचाई के दुष्प्रभावों में एक यह भी है कि आपकी भूख खत्म हो जाती है और आपको हर खाना बेस्वाद लगने लगता है। हमारे साथी राजेंद्र के साथ ऐसा ही हो रहा था। हर बार मैन्यू में वह अपने लिए कुछ पसंद करता, लेकिन जब वह तैयार होकर आता तो बस एक छोटा टुकड़ा मुंह में डालकर वह प्लेट एक ओर सरका देता। पूरी तरह शाकाहारी और जीभ से चटोरा होने के कारण अरूण के लिए हर बार यह समस्या होती थी कि वह खाए तो क्या खाए?

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दरअसल खुम्भू घाटी में यूरोपीय और चीन, कोरिया, जापान आदि पूर्वी देशों के आरोहियों के लिए तो हर तरह का भोजन मिल जाता है, लेकिन भारतीयों के लिए थोड़ी समस्या होती है। विशेषकर शाकाहारी और रोटी पसंद करने वाले लोगों के लिए क्योंकि एक तो यहां रोटी आटे की न होकर मैदे की होती है क्योंकि मैदा पिज्जा बनाने के काम आता है और उसकी खपत भी हो जाती है इसलिए टी हाउसों में प्रायः मैदा ही मिलता है। आटा वहां होता ही नहीं।

आगे की स्लाइड में जानिए कैसे आएगा इन टी हाऊसेस में आपके मुंह में पानी

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दूसरे यहां की रोटियां काफी मोटी और एक तरह से पतले पिज्जा बेस जैसी होती हैं। हालांकि आम नेपाली शेरपा दाल भात पसंद करते हैं और ‘स्टाफ’ के लिए भी वही भोजन होता है। इसलिए जो लोग चावल खा सकते हैं, उनकी समस्या कुछ कम हो जाती है और जो लोग हर तरह का भोजन कर सकते हैं, उन्हें तो कोई समस्या होती ही नहीं। वैसे यहां भारतीयों की रूचि का भोजन न मिलने की मुख्य वजह यह है कि यहां आने वालों में भारतीयों की संख्या नगण्य ही होती है।

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बहरहाल अरूचि और ऊंचाई के प्रभाव के कारण इन टी हाऊसों में आप भले ही ठीक से खाना खा न सकें या खाना देख कर घबरा जाएं, मगर इन टी हाऊसेस के किचन में खाना बनते देख कर किसी की भी जीभ में पानी आ सकता है।

गोविंद पंत राजू

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