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बड़ी अलग होती है गोरखशेप की अंगीठी, कड़ाके की ठंड में भी एवरेस्ट की गौरैया देखी

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Published on: 15 Oct 2016 9:32 AM IST
बड़ी अलग होती है गोरखशेप की अंगीठी, कड़ाके की ठंड में भी एवरेस्ट की गौरैया देखी
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govind pant raju Govind Pant Raju

लखनऊ: गोरखशेप एवरेस्ट मार्ग में एक सूखी झील के किनारे का पड़ाव है। शुरुआती दिनों में अस्सी के दशक तक एवरेस्ट अभियान के दल यहीं बेस कैंप लगाते थे। पर अब यह एवरेस्ट बेस कैंप और काला पत्थर का आखिरी पड़ाव बन गया है। यहां पर बहुत सुविधाएं नहीं हैं, मगर मोबाइल नेटवर्क और इंटरनेट कनेक्टिविटी अच्छी है।

सौर ऊर्जा का खूब इस्तेमाल होता है, जो 2009 के बाद शुरू हुआ है। यहां पर एडमंड हिलेरी द्वारा एवरेस्ट क्षेत्र के विकास के लिए बनाए गए हिमालय ट्रस्ट के लिए रकम जुटाने के लिए एक 5-5 ओवर का क्रिकेट मैच खेला गया था, जिसमें कई ब्रिटिश खिलाड़ियों ने शिरकत की थी।

(राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी। )

इस मैच को लेकर कई विवाद भी हुए थे। पहले तो डॉक्टरों ने इस ऊंचाई पर क्रिकेट खेलने को लेकर सवाल उठाया था कि ऑक्सीजन की कमी के कारण यह खिलाड़ियों के लिए घातक हो सकता है। इसके बाद जब टीम गोरखशेप रवाना हो रही थी, तो उन्हें सगरमाथा नेशनल पार्क में प्रवेश की इजाजत देने से इंकार कर दिया गया। इसकी वजह कुछ स्थानीय संगठनों का दबाव था।

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अंततः सब बाधाओं को पार कर 21 अप्रैल 2009 को गोरखशेप में ऐतिहासिक क्रिकेट मैच हुआ और इसमें टीम हिलेरी ने टीम तेनजिंग को 36 रन से पराजित किया। 20 से 36 वर्ष की उम्र वाले ब्रिटिश खिलाड़ियों की ‘टीम हिलेरी’ का आॅनरेरी कप्तान इंग्लैंड के तत्कालीन उप कप्तान एलिस्टर कुक को बनाया गया था जबकि ‘टीम तेनजिंग’ के आॅनरेरी कप्तान इंग्लैंड के तत्कालीन कप्तान एंड्रयू स्ट्रॉस बनाए गए थे।

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मैच खेला तो गोरखशेप में गया, लेकिन इसके जरिए इंग्लैंड और न्यूजीलैंड से 3,65,000 पौंड की रकम जुटाई गई थी, जो बाद में एवरेस्ट क्षेत्र के स्कूलों और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए खर्च की गई। गोरखशेप में मैटिंग पिच पर खेले गए उस मैच ने खूब अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरी थीं। आज गोरखशेप की पहचान एवरेस्ट बेस कैंप से लेकर भी है और काला पत्थर को लेकर भी।

आगे की स्लाइड में जानिए काला पत्थर का महत्व

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एवरेस्ट क्षेत्र में काला पत्थर का क्या महत्व है? इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि एवरेस्ट सीजन के दौरान नेपाल का मेट डिपार्टमेंट काला पत्थर के लिए रोजाना विशेष मौसम बुलेटिन जारी करता है, जिसमें पूरे सप्ताह का मौसम पूर्वानुमान होता है। यूनेस्को ने भी काला पत्थर के महत्व को स्वीकारते हुए काला पत्थर पर एक विशेष प्रतीक चिन्ह जारी किया है।

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काला पत्थर की जूनीफर झाड़ियों वाले काली मिट्टी के शानदार ढलान के ठीक नीचे गोरखशेप में हम जब शाम के खाने की तैयारी कर रहे थे, उस समय खिड़की के बाहर छाए बादलों ने हमारे पूरे टी हाऊस को घेर सा लिया था। जिससे हमें यह आभास हो रहा था कि रात को ठंड काफी ज्यादा हो सकती है।

आगे की स्लाइड में जानिए एवरेस्ट पर गौरैयाओं के बारे में इंट्रेस्टिंग जानकारी

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खिड़की के बाहर गौरैयाओं का एक झुंड मिट्टी में खेल रहा था। लगभग 30-35 गौरैया थीं। हमारी देशी गौरैयाओं से कुछ बड़ी, सबकी सब मोटी लग रही थीं। शायद इस इलाके की कड़ी ठंड से बचाव के लिए इनके पंख कुछ ज्यादा घने हो जाते होंगे। यहां हमने जो कौवे देखे, वे भी काफी मोटे और बड़े आकार के थे, लेकिन उनकी आवाज बड़ी ही सुरीली थी। शायद यह भी इस इलाके की प्रकृति में मौजूद निस्तब्धता की देन रही हो।

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हम गौरैयाओं के फुदकने को निहार कर खुश हो रहे थे। लेकिन हमारे टी हाऊस में मौजूद एक शेरपा गाइड, पेम्बा शेरपा के मुताबिक, गौरैयाओं का यह व्यवहार कुछ असामान्य था और इससे इस तरह के संकेत मिल रहे थे कि अब मौसम बिगड़ने वाला है। वैसे टी हाउस के डाइनिंग हॉल में जरा भी ठंड नहीं थी, मगर इसका एक खास कारण था।

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इस इलाके में सभी टी हाऊसों में डाइनिंग हाल में एक खास तरह की अंगीठी बनी होती है, जो प्रायः डाइनिंग हॉल के बीच में बनाई जाती है। एक छोटे से फ्रिज के आकार की लोहे की बनी इस अंगीठी में ऊपरी सतह से एक लंबी गोल चिमनी जुड़ी होती है और उसी के पास एक सरकाने वाला ढक्कन होता है। अंगीठी के निचले हिस्से में भी एक ढक्कन वाला निकास द्वार होता है। ऊपरी ढक्कन से लकड़ी के छोटे टुकड़े, खाली डिब्बों के टुकड़े, कुछ सूखी स्थानीय झाड़ियां आदि इसमें डाल दिए जाते हैं।

नीचे वाले निकास द्वार से आग जलाई जाती है। चूंकि इसकी चिमनी बहुत लंबी होती है, इसलिए वह धुंए तथा हवा की निकासी को आसान बना देती है। कुछ ही मिनटों में यह अंगीठी पूरी तरह गर्म हो जाती है और फिर इसकी गर्मी से पूरा हाॅल गर्म हो जाता है। इस अंगीठी के ऊपरी हिस्से में बड़ी केतली या डेग रख कर पानी गर्म किया जाता है या फिर सूप अथवा ऐसी ही कुछ और चीजें गर्म रखने के लिए इसका इस्तेमाल होता है।

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इस बुखारी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि न तो इसके कारण धुआं फैलता और न ही इससे आग लगने का कोई खतरा ही होता है। इसके निचले ढक्कन के जरिए इसकी आंच को नियंत्रित भी किया जा सकता है। इन बुखारियों के कारण एवरेस्ट मार्ग के टी हाऊसों के डाइनिंग इनकी गर्मी से थके हुए पर्वतारोही डाइनिंग हॉल्स में देर तक जमे रहना पसंद करते हैं। इन हॉल्स में बहुत गहमागहमी रहती है। ज्यादा ठंड होने पर कुछ लोग इनके अगींठियों के इर्द-गिर्द घेरा बनाकर बैठ भी जाते हैं। चूंकि टी हाऊसों का फर्श प्रायः लकड़ी का बना हुआ होता है, इसलिए बुखारी के नीचे लोहे की एक प्लेट या कोई बड़ा सा तसला भी रख दिया जाता है।

आगे की स्लाइड में जानिए कैसे थर्मस ले जाते हैं एवरेस्ट पर ...

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उस शाम गोरखशेप में ठंड काफी बढ़ गई थी, इसलिए हम भी अपने रात के खाने के बाद बहुत देर तक डाइनिंग हाॅल में बैठे रहे। हमें सुबह 4 बजे उठ कर गोरखशेप से एवरेस्ट पर सूर्योदय का आनंद लेने के लिए रवाना होना था, इसलिए हमें जल्दी सो जाना चाहिए था, लेकिन बाहर घुप्पी बादल भरे हुए थे और यह बात हमें परेशान कर रही थी। हाॅल में हमारे साथ कोरिया की एक टीम और कुछ जर्मन पर्वतारोही भी मौजूद थे, जो हमारी ही तरह अल्ल सुबह काला पत्थर तक जा कर एवरेस्ट के अद्भुत सूर्योदय का अवलोकन करने के लिए तैयार थे।

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सोने के लिए जाने से पूर्व हमने किचेन से अपने अपने गर्म पानी के थर्मस लिए। इस ऊंचाई पर सामान्य बोतलों में रात को पानी जम जाता है। इसलिए लगभग सारे टी हाऊस पानी गर्म रखने के लिए खास तरह के थर्मस काम में लाते हैं। एक, दो और तीन लीटर वाले ये थर्मस प्रायः चीन के बने होते हैं और सामान्यतः इनमें कई घंटों तक पानी पीने लायक बना रहता है।

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evrest base camp

सोने के लिए अंदर अपने कमरों में जाने से पूर्व हमने टी हाऊस से बाहर जा कर मौसम का मिजाज जानने की कोशिश की। राजेंद्र को अंदर काफी गर्मी लग रही थी, मगर यहां बाहर आते ही कड़क ठंड से उसका सामना हुआ। मैंने ऊपर आसमान की ओर देखना चाहा, मगर वहां कुछ भी नहीं दिख रहा था। चारों तरफ सिलेटी अंधेरा भरा हुआ था। हमारी सांसों के साथ गहरी ठंड अंदर भर रही थी, इसलिए हम झटपट वापस अंदर आ गए।

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अरूण भी तब तक सुबह ब्रश करने के लिए गर्म पानी का इंतजाम पक्का करवा कर आ चुका था। अपने स्लीपिंग बैगों में घुसते समय हमने महसूस किया कि जैसे हम बर्फ के बिछोने पर लेट रहे हों। नींद हमसे कोसों दूर थी। चाह कर भी वह हमारे पास आ नहीं रही थी। वैसे सोना तो हम भी नहीं चाह रहे थे। हम तो इसी वक्त काला पत्थर पहुंचना चाह रहे थे।

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काला पत्थर

एवरेस्ट के अलौकिक सौंदर्य का एक और चेहरा देखने की आतुरता हमें बार-बार जाग्रत करती जा रही थी। थोड़ी देर बाद स्लीपिंग बैग के अन्दर की गर्मी ने हमें थोड़ा सहज तो कर दिया लेकिन नींद अभी भी बहुत दूर थी। बड़ी देर तक हम काला पत्थर के बारे में बातें करते रहे। काला पत्थर पुमोरी पर्वत शिखर की दक्षिणी रिज का एक भाग है। टूटी फूटी चट्टानों वाला काला पत्थर लगभग 5500 मीटर ऊंचा एक टीला सा है।

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एवरेस्ट के साथ एवरेस्ट के दरबार के अन्य शिखर जैसे नूप्त्से, चांगस्ते और लोत्से यहां से पूरी भव्यता के साथ दिखाई देते हैं। साथ ही खतरनाक खुम्भू आइस फाॅल भी। हम सुबह की योजना बनाते बनाते धीरे-धीरे नींद के आगोश में आते जा रहे थे और बाहर मौसम हमारी तैयारियों को ध्वस्त करता हुआ लगातार खराब हाता जा रहा था।

गोविंद पंत राजू



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