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नैनीताल के एक पंफ्लैट ने बदल दी थी मेरी जिंदगी, ऐसा रहा पत्रकारिता में 'हर्फ' का असर
Govind Pant Raju
लखनऊ: एवरेस्ट की ओर हमारे कदम बढाने का फैसला थोड़ा कठिनाई भरा जरूर रहा। लेकिन जीवन भर के लिए इतनी सारी यादें मिल जाएंगी, यह नहीं सोचा था। अब तो हमारा एवरेस्ट से घर की ओर वापस आने का मिशन शुरू हो गया था। इससे पहले के यात्रा वर्णन में आप हमारे जोखिम भरे रास्तों के रोमांच को महसूस कर ही चुके हैं। आइए अब आपको ले चलते हैं यात्रा के आगे के सफर के बारे में...
(राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी।)
वो तल्लीताल केे पोस्ट ऑफिस की दीवार पर लगा एक पंफ्लैट था, जिसने मेरी जिंदगी की धारा बदल दी। पत्रकारिता और लेखन का कीड़ा मन में कहीं न कहीं था तो जरूर, तभी तो इंटर कॉलेज की वार्षिक पत्रिका में छात्र संपादक बनने का मौका मिला होगा। मगर पत्रकारिता ही भविष्य बन जाएगी, ऐसा तो कहीं सोचा भी नहीं था। मन में कुछ ऐसा जरूर था कि सरकारी नौकरी नहीं करनी और अपनी आजादी खोनी नहीं है। बहरहाल नैनीताल से इंटर की पढ़ाई पूरी कर उत्तरकाशी में बी.एससी. में दाखिला लेकर वापस नैनीताल आया था और तभी उस दीवार पर चिपके परचे पर नजर पड़ी। वह परचा नैनीताल से प्रकाशित होने जा रहे नैनीताल समाचार के पहले अंक की सामग्री के बारे में बता रहा था। परचा पढ़ कर न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि जैसे ये परचा मेरे लिए ही चिपकाया गया था। एकाएक रोमांच सा हो आया था।
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उत्तरकाशी जाकर संपादक के नाम पत्र लिखा कि मैं जुड़ना चाहता हूं। कुछ ही दिनों में एक पोस्टकार्ड में जवाब भी आ गया कि जुड़ने का स्वागत है और कुछ लिखो। तुरंत एक छोटी सी टिप्पणी उत्तरकाशी के माघ मेले पर लिख डाली और दस दिन में ही उस पर एक नोट के साथ वह वापस भी आ गई। नोट पवन राकेश का लिखा था, कुछ कमियां और सुझाव बताए गए थे। नैनीताल समाचार में छपने वाली वह मेरी पहली रपट थी। उसके बाद सिलसिला शुरू हुआ तो चलता ही गया। कब मैं पढ़ाई पूरी करके वापस नैनीताल आ गया और कब नैनीताल समाचार मेरे अस्तित्व का हिस्सा बन गया यह मुझे खुद भी नहीं मालूम। उत्तरकाशी रहते हुए साल में दो-तीन बार नैनीताल आना होता था। पहली बार राजहंस प्रेस और नैनीताल समाचार के दफ्तर में उसी दौरान कभी गया हूंगा, कभी उसी दौरान अपने पहले संपादक पवन राकेश से पहली मुलाकात हुई होगी और कभी ऐसे ही लहलहाती दाढ़ी वाले हरीश पंत और सौम्यता की प्रतिमूर्ति राजीव लोचन साह से। हां, गिरदा से पहली मुलाकात 1978 की उत्तरकाशी बाढ़ के दौरान हुई जब वे बाढ़ पीढ़ितों की मदद के लिए शमशेर दा के साथ नैनीताल से वहां आए थे।
उत्तरकाशी से जो सिलसिला शुरू हुआ था, वो नैनीताल वापस आने के बाद एक अटूट रिश्ते में बदल गया। वो दिन नैनीताल समाचार के पल्लवित होने के दिन थे। नैनीताल समाचार के हर अंक को लेकर तब बड़ी-बड़ी बहसें होती थीं। किसी रपट के एक-एक शब्द पर विचार-विमर्श होता था। पत्रकारिता के दायित्वोें और जिम्मेदारियों पर चर्चाएं होती थीं और तब जाकर अंक तैयार होता था। किसी एक शीर्षक को लेकर डेढ़-दो दिन तक फर्मा रोक दिया जाता था कि अभी इस शीर्षक को और तराशे जाने की जरूरत है। दफ्तर और अखबार में भयंकर आजादी थी। राजीव दा संपादक थे जरूर, मगर न तो उन्होंने कभी अपने संपादक होने का दम भरा और अगर वो ऐसी कोई कोशिश भी करते, तो शायद वह कतई अस्वीकार भी हो जाती। संपादक होने के नाते उनकी भूमिका भी ‘नैनीताल समाचार परिवार’ के किसी भी बड़े और महत्वपूर्ण सदस्य से लेकर किसी भी 'एैरे-गैरे, नत्थू खैरे' कुटुम्बी जैसी ही थी।
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नैस परिवार बहुत बड़ा परिवार था, इस कुनबे का कोई सदस्य काम भले ही चवन्नी भर का भी न करता हो, लेकिन अधिकार उसके पूरे सोलह आने के थे। सबको कहने का हक था, सबको सलाह देने का हक था, सबको अपने सौंदर्य बोेध का इस्तेमाल करने का हक था और सबको एक-दूसरे के सोचे हुए में टांग अड़ाने का भी हक था। एक-दूसरे पर शब्दों और विचारों की तोपें चलाने के बावजूद कोई वैमनस्य नहीं था, भिन्न-भिन्न वैचारिक धारणाओं के बावजूद कोई मनमुटाव नहीं था। असहमति की पूरी छूट थी और हर नए विचार का सदा स्वागत था। इस सब के कारण ही एक-एक शब्द में गंभीरता और बदलाव की ललक रहती थी। समाचार के दफ्तर में कवियों, लेखकों, पर्यटकों, प्रवासियों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों का जमावड़ा तो होता ही था, आंदोलनकारियों और जनसंस्कृति कर्मियों का भी वह अड्डा था। सुबह दस से एक और फिर तीन से सात आठ बजे तक खूब भीड़ होती। अक्सर दफ्तर में कुर्सियां कम पड़ जातीं।
राजीव दा, गिरदा, शेखर पाठक, भगत दा, नैनवाल जी, हरीश पन्त, शिवराज सिंह नयाल, गौतम भट्टाचार्य, चन्द्रेश शास्त्री, अजय रावत, उमा भट्ट, जहूर आलम, विनय कक्कड़, रमेश पाण्डे, विजाय मोहन खाती आदि उन दिनों नैनीताल समाचार में अक्सर दिखने वाले लोग थे। कभी-कभार पवन राकेश भी होते, दफ्तर में नहीं भी होते, तो वे अपनी गद्दी पर ही लोगों से मिलने का कर्तव्य पूरा कर लेते। बाहर से आने वालों में हरीश चन्द्र सिंहं कुलौरा, केवल कृष्ण ढल, रमदा, डी एन पन्त, अनिल कर्नाटक, प्रदीप टमटा, पी सी तिवारी, शमशेर दा, दिनेश जोशी, ओम प्रकाश साह गंगोला, प्रभात उप्रेती, तरदा, बटरोही जी, दिवा भट्ट, निर्मल जोशी तारा चन्द्र त्रिपाठी, यशवन्त सिंह कटौच, मदन चन्द्र भट्ट आदि आदि जैसे अनेक लोग होते, जो जब भी आते अपने साथ कोई खबर जरूर लाते और फिर उसके इस्तेमाल को लेकर समाचार के ‘संपादकों’ के बीच माथा-पच्ची शुरू हो जाती।
मुझे आज ये बात बहुत हैरान करती है कि तब एक-एक शब्द को लेकर, एक एक वाक्य को लेकर ‘समाचार’ में कितनी तरह के विचार विमर्श होते थे। हर विमर्श का निष्कर्ष यह होता था कि अखबार एक सार्वजनिक औजार है और इसका एक-एक ‘हर्फ़’ समाज को प्रभावित करता है, इसलिए हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि हमारे शब्दों से समाज सकारात्मक रूप से ही प्रभावित हो। शब्द हथियार तो बनें मगर उनका इस्तेमाल विनाश के बजाय सकारात्मक बदलाव के लिए हो, प्रयोगों की पूरी छूट थी। इसीलिए ‘हडि’ शिवोशिब, स्वस्ति श्री और छ्वीं बथ जैसे कलमों का बखूबी इस्तेमाल होता था, तो सौल कठौल जैसे तीखे स्तम्भ का भी।
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उत्तराखंड के जन-इतिहास की प्रमुख घटनाओं पर उत्तराखंड और देश-दुनिया के कवियों की कविताओं के साथ फुल स्केप आकार में छपने वाले पोस्टरों के लिए तब कितनी मेहनत की गई थी। राजहंस प्रेस के कामगारों ने कम्पोजिंग में और फिर आनंद मास्साब ने छपाई में जिस तरह दिल जान लगाकर उन रंगीन पोस्टरों को छापा था। वह अविस्मरणीय है। कितनी ऊर्जा लगाई गई थी उन पोस्टरों की रचना में। इतिहास की किताबें खंगाली गई थीं, ज्ञात-अज्ञात रचनाकारों को छाना गया था, तब जाकर तैयार हुए थे वे धरोहरनुमा पोस्टर। उस दौर हर अंक को तैयार करने के लिए सबकी सलाह ली जाती, मुख पन्ना कैसा हो, क्या छपे इस पर चर्चा होती। इस बार कौन सी कविता ली जाए यह भी तय करना बड़ा काम होता क्योंकि तब समाचार के पहले पन्ने पर छपने वाली कविताएं लोग पोस्टरों के तौर पर संजो कर रखते थे।
हांलाकि तब परिस्थितियां भी आज से भिन्न थीं। तब बड़े दैनिक अखबारों मेें उत्तराखंड की खबरें नहीं के बराबर होती थीं। अमर उजाला ने बरेली से उत्तराखंड में पांव पसारने की शुरूआत की थी, बाकी सभी बड़े अखबार दिल्ली या लखनऊ से उत्तराखंड पहुंचते थे। बड़ी पत्रिकाओं भी उत्तराखंड को यदा-कदा ही जगह मिलती थी। टीवी व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया था नहीं, रेडियो पर भी स्थानीय खबरें कम ही होतीं स्थानीय खबरों के लिए लोग स्थानीय पाक्षिक व साप्ताहिक अखबारों पर ही निर्भर रहते थे। इसीलिए देर से छप पाने के बावजूद नैनीताल समाचार की खबरें/रपटें पढ़ने के लिए लोग बड़े उत्सुक रहते थे और इसका असर भी संपादक के नाम आने वाले पत्रों में साफ दिखता था। जो पहाड़ के सुदूर गांवों से लेकर गोपेश्वर, उत्तरकाशी, टिहरी, पिथौरागढ़, टनकपुर, पौड़ी, अल्मोड़ा जैसे विभिन्न नगरीय इलाकों से आते थे। लिखने वाले डिग्री व इंटर कॉलेजेस के अध्यापक, ग्रामीण, दुकानदार, सामाजिक कार्यकर्ता छात्र आदि अलग अलग वर्गों से होते थे। रोज डाक में ऐसे पत्रों का एक पुलिंदा होता था।
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उस दौर में नैनीताल समाचार को विस्तार और विश्वास प्रदान करने में अनेक लोगों ने अपनी-अपनी तरह का योगदान दिया। नैनीताल की मंडली तो उसमें आगे थी ही, अलग-अलग जगहों से सहयोग करने वाले लोगों का भी उसमें बहुमूल्य योगदान रहा। राजेंद्र रावत राजू और उमेश डोभाल, पलाश और कपिलेश भोज, सुरेंद्र रावत शंकु, राजेंद्र टोडरिया, दिनेश जोशी, केवल कृष्ण, नागेंद्रर जगूड़ी, डूंगर सिंह ढ़करियाल हिमराज, यशवत सिंह कटोच, राजेश जोशी, धर्मवीर परमार, आनन्द वल्ल्म उप्रेती, निर्मल जोशी, सुनील पंत, धर्मानंद उनियाल पथिक, सुन्दर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, ललित पंत, दान सिंह रावल, महेश गुर्रानी, नरेन्द्र रौतेला, खड़कसिंह खनी आदि ऐसे लोगों की एक लंबी सूची है, जिन्होंने किसी न किसी रूप में नैनीताल समाचार परंपरा को मजबूत किया। नैनीताल समाचार के विस्तार में राजेंद्र रावत यानी राजू भाई का बहुत महत्वपूर्ण योगदान था। राजू भाई पौड़ी से ने समाचार के लिए न सिर्फ बेहतरीन रपटें लिखीं, न सिर्फ उमेश दोभाल जैसे विशिष्ट तेवरों वाले पत्रकार को समाचार का अभिन्न हिस्सा बनाया बल्कि अनेक लेखकों और रचनाकारों को भी नैनीताल समाचार से जोड़ा तथा उसके प्रसार में भी बहुत बड़ा योगदान दिया।
राजू भाई के साथ पौड़ी, कोटद्वार श्रीनगर, टिहरी, गौचर, कर्णप्रयाग और गोपेेश्वर आदि अनेक स्थानों में जाकर नैनीताल समाचार के प्रसार और प्रभाव को विस्तार देने में भी अनेक अनुभव प्राप्त किए। नैनीताल समाचार से जुड़ने के कारण ही राजू भाई यह पहल कर पाए कि गिरदा और नरेंद्र सिंह नेगी की सांस्कृतिक जुगलबंदी बन सकी और उसने उत्तराखंड राज्य आंदोलन के लिए जमीन तैयार करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
‘पहाड़’ के प्रकाशन का पहला साल नैनीताल समाचार के लिए बड़ा महत्वपूर्ण था। वह अंक राजहंस प्रेस में ही छपा था इसलिए नैनीताल समाचार के दफ्तर में आने वालों की तादाद उस दौरान बहुत ज्यादा बढ़ गई। इससे समाचार में लगने वाली ऊर्जा का भी बंटवारा होने लगा। स्वयं शेखर पाठक की प्राथमिकता ‘पहाड़’ होने से नैनीताल समाचार को मिलने वाला उनका समय भी कम होने लगा और ऐसा ही टीम के कई अन्य सदस्यों के साथ भी हुआ। इस बीच भगतदा के विचार पर चलते हुए समाचार को राजीवदा के स्वामित्व से हटाकर नैनीताल सहकारी मुद्रण समिति के अधीन में लाने की कोशिश भी हुई।
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इसका विरोध भी हुआ और आखिरकार यह नाम कागज में तो बदल गया, मगर व्यवहार में कुछ भी नहीं बदला और अंततः लगभग एक वर्ष बाद भगतदा भी तटस्थ भाव में आ गए और फिर सब जस का तस हो गया। पीछे मुड़ कर देखूं तो समाचार को जहां से बहुत आगे पहुंच जाना चाहिए था, वहीं से उसके पिछड़ने की शुरूआत हुई और बहुत सारी घटनाओं ने एक-एक कर चीजों को मुश्किल बना दिया। पहाड़ का प्रकाशन, नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन गौतम दा व शिव नयाल का नैनीताल छोड़ना, भगतदा की तटस्थता, गिरदा का विवाह, हरीश पंत का स्वास्थ्य खराब होना, मेरा पलायन, उमेश की हत्या, बहुत सारे सहयोगियों का व्यवसायिक हो जाना, राजीवदा का बहुत से हिस्सों में बंट जाना, राजहंस प्रेस का निष्क्रिय हो जाना आदि बहुत से ऐसे कारण थे, जिन्होंने अलग-अलग तरह से नकारात्मक प्रभाव बढ़ाए और 1990 के बाद के वर्षाें में लगातार कमजोरियां बढ़ती ही गईं।
हालांकि इसके बाद के एक लंबे दौर में महेश जोशी ने अपनी क्षमताओं के अनुरूप बहुत प्रयास किए, कई नए सहयोगी भी जुड़े, जिनमें महेश बवाड़ी, सतीश जोशी, संजू भगत आदि युवा और जोश से भरे लोग भी शामिल थे। मगर राजीवदा जैसे उदार, सहनशील, समदर्शी और समग्रता से सोचने वाले व्यक्तित्व के केंद्र में होने के बावजूद अच्छी लय और तालमेल की कमी बिखराव बढ़ाती चली गई। राज्य बनने के बाद से तो स्थितियां और भी बदतर होती चली गईं और आज समाचार एक चौराहे पर किंकर्तव्य विमूढ़ सा खड़ा है।
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आज पत्रकारिता के मायने बदल गए हैं। आज उत्तराखंड में भी पत्रकारों के तेवर बदल गए हैं। राज्य बनने के बाद तो उत्तराखंड की क्षेत्रीय पत्रकारिता का रूप भी बदल गया है। स्थानीय पात्रिक साप्ताहिक तो अब बीते युग का किस्सा बनते जा रहे हैं, छपाई की तकनीक बदलने के बाद बड़े अखबार भी मुहल्ले के अखबार हो गए हैं और राजधानी के पत्रकारों में अवसरवादियों और ऐजेंडा मास्टरों का बोलबाला हो गया है। सूचना विभाग का बजट तो पचास गुना बढ़ गया, मगर उससे स्थानीय कलमकारों को नहीं बल्कि ऊंचे खिलाड़ियों का फायदा हो रहा है। अब तो लखनऊ, दिल्ली के दलाल उत्तराखंड के पत्रकार बन गए हैं और चारण बनकर सत्ता का गिरेबान सहलाने में जुट गए हैं।
उत्तराखंड की महान पत्रकार परंपरा अब दम तोड़ती दिख रही है। रीजनल रिपोर्टर, युगवाणी जैसे इक्का-दुक्का नाम ही बचे हैं, जो कुछ उम्मीद बंधाते हैं। आज सोशल मीडिया ने भी पत्रकारिता की परिभाषा बदल दी है। इसलिए समाचार यह सोच कर संतोष तो कर सकता है कि उसने वन आंदोलन से लेकर नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन और फिर राज्य आंदोलन तक अपनी ऐतिहासिक भूमिका पूरी जिम्मेदारी से निर्वाह की है, मगर उसे नए जमाने की नई तकनीक के साथ नई ऊर्जा लेकर आगे की ओर भी देखना ही होगा।
गोविंद पंत राजू