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आगरा नगर निगम चुनाव में 28 साल बाद जातिगत समीकरण साधने की कोशिश
आगरा: 28 साल पहले यानी 1989 में नगर महापालिका के चुनाव हुए थे। भाजपा ने अपनी स्थापना के बाद पहली बार हुए महापालिका के चुनाव में चुनाव चिन्ह पर सभी प्रत्याशी मैदान में उतारे। तब मेयर का चुनाव पार्षदों के हाथ में था। इसलिए जातीय समीकरण हावी नहीं हुआ। उसके बाद सीट आरक्षित हो गई।
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अब 28 साल बाद अनारक्षित होने पर सारा दारोमदार जनता के हाथ में आ गया। इसके चलते सभी दलों ने जातीय समीकरण को ज्यादा तरजीह दी। दलितों और मुस्लिमों पर किसी ने दांव नहीं लगाया। 1972 में निर्दलीय चुनाव में सेठ कल्याण दास जैन चुनाव जीते थे। उसके 17 साल बाद चुनाव हुए तो भाजपा ने रमेशकांत लवानिया को प्रत्याशी बनाया।
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कांग्रेस ने चुनाव चिन्ह पर किसी को भी नहीं लड़ाया, लेकिन समर्थन सभी सीटों पर दिया था। निर्दलीय 37 पार्षद चुनाव जीते। उसके बाद मेयर का चुनाव हुआ तो कांग्रेस ने अभी निर्दलीयों को समर्थन जुटाना शुरू कर दिया। कांग्रेस ने हरिओम बंसल को मैदान में उतारा। भाजपा ने रमेशकांत लवानिया को खड़ा किया। पार्टी ने अपने पार्षदों के अलावा अन्य पार्षदों को भी अपने पक्ष में कर लिया। चुनाव में लवानिया को 43 और हरिओम बंसल को 37 वोट मिले। लवानिया छह वोटों से चुनाव जीतकर मेयर बन गए। उसके बाद नगर निगम बना।
जनता मतदान में शामिल हो गई लेकिन लगातार आरक्षित कोटे में मेयर सीट रहने के कारण अन्य जातियों के प्रत्याशी भाग्य नहीं आजमा सके। इस बार सीट अनारक्षित होने से सभी दलों ने जातीय समीकरणों पर ही चुनाव लड़ना बेहतर समझा। भाजपा ने नवीन जैन और कांग्रेस ने विनोद बंसल, आप ने राजेश गुप्ता (तीनों वैश्य समाज), बसपा ने दिगंबर सिंह (क्षत्रिय), सपा ने राहुल चतुर्वेदी (ब्राह्मण) और रालोद ने लोचन चौधरी (जाट) को प्रत्याशी बनाया है। इस बार मुस्लिम और दलित समाज पर कोई दल नहीं रीझा। इस बार भी सभी का भाग्य जनता के हाथों में ही है।
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1989 में हुए महापालिका के चुनाव में जीते पार्षदों में से छह बाद में विधायक भी बने। इनमें किशन गोपाल, डॉ. रामबाबू हरित, योगेंद्र उपाध्याय, केशो मेहरा, डॉ. जीएस ध्रमेश और रमेश कांत लवानियां।
1989 में नगर महापालिका में कुल 40 वार्ड थे। एक वार्ड से दो पार्षद चुने जाते थे। कुल महापालिका सदन में पार्षदों की संख्या 80 थी। 2011 में हुए नगर निगम चुनाव में 90 पार्षद थे। इस बार संख्या बढ़कर 100 हो गई।