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3 साल की उम्र में ही लेने लगा इनका लहू इंकलाब की हिलोरें, आज है 108वीं जयंती

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Published on: 28 Sept 2016 2:27 PM IST
3 साल की उम्र में ही लेने लगा इनका लहू इंकलाब की हिलोरें, आज है 108वीं जयंती
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लखनऊ: पंजाब प्रांत के लायलपुर जिले ( जो कि अब पाकिस्‍तान में है) के एक सिख परिवार में उसने जन्म लिया, तो उस बच्चे की रोने की आवाज में भी एक अलग ही कश था। रोने में भी उसकी आवाज काफी बुलंद थी। जब वह तीन साल के हुए, तो एक बार अपने पिताजी के साथ खेत गए। उनके पिता निराई में लगे हुए थे, तभी उनका ध्यान नन्हें भगत सिंह पर चला गया। उन्होंने पूछा- बेटा, भगत क्या कर रहे हो? तो छोटे-छोटे तिनकों को बोते हुए नन्हें भगत बड़े ही शान से बोले, पिताजी मैं बंदूकें बो रहा हूं। उनके इस जवाब को सुनकर उनके पिता हैरान रह गए। उनके घरवाले तभी समझ गए थे कि वह बच्चा बड़ा होकर क्रांतिकारी बनेगा। अपनी देशभक्ति का पहला सबूत भगत सिंह ने 12 साल की उम्र में तभी दे दिया था, जब खून से लतपथ धरती पर हुए बर्बर हत्याकांड की गवाही दे रही लाल मिट्टी को उन्होंने अपनी एक शीशी में भरकर साथ रख लिया। कहते हैं कि उसी दिन से वह उन शहीदों के खून की मिट्टी का तिलक लगाने लगे और देश के लिए मिट जाने का संकल्प लिया।

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13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्‍याकांड ने उन पर गहरा असर डाला और उन्होंने गुलामी की जंजीरों में जकड़े भारत की आजादी का सपना देखना शुरू कर दिया। बचपन से ही वह अपने स्कूल में देशभक्ति के नाटकों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। उनका मानना था कि आजादी हिंसा के रास्ते से ही हासिल की जा सकती है। तभी जब 1922 में महात्मा गांधी ने चौरीचौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन को खत्‍म करने की घोषणा की, तो भगत सिंह का अहिंसावादी विचारधारा से मन हट गया। भगत सिंह ने 1926 में देश की आजादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्‍थापना की। जब गांधी जी का असहयोग आंदोलन ख़त्म होने के बाद हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़के, तो भगत सिंह काफी हताश हुए और तब से उनका धर्म से विश्वास उठ गया। भगत सिंह को लगता था कि धर्म आजादी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है और इसी के आस-पास भगत सिंह ने 1930 में लाहौर सेंट्रल जेल में उन्‍होंने अपना प्रसिद्ध निबंध ‘मैं नास्तिक क्‍यों हूं’ (व्‍हाई एम एन एथीस्‍ट) लिखा, जिसे आज भी नौजवान खूब पढ़ते हैं।

आगे की स्लाइड में जानिए क्या-क्या करना पड़ता था भगत सिंह को अंग्रेजों से बचने के लिए

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भगत सिंह कभी शादी नहीं करना चाहते थे वह कहते थे कि उनकी दुल्हन देश की आजादी है। भगत सिंह ने सांडर्स की हत्या से लेकर काकोरी कांड और जेल में रहने के दौरान भूख हड़ताल तक सारे काम किए, वह एक ऐसे क्रांतिकारी थे, जिनसे ब्रिटशियर्स भी परेशान थे उन्हें पकड़ने के लिए जगह-जगह पुलिस लगी रहती थी, लेकिन फिर भी नहीं पकड़े जाते थे। भगत सिंह ने अंग्रेजों से बचने के लिए पंजाबी होते हुए भी अपने बाल और मूंछ कटवा दिए थे।

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भगत सिंह का पूरा जीवन देश की सेवा में गुजरा। लाहौर षडयंत्र केस में उनको राजगुरू और सुखदेव के साथ फांसी की सजा हुई और 24 मई 1931 को फांसी देने की तारीख डिसाइड हुई। लेकिन डिसाइडेड तारीख से 11 घंटे पहले ही 23 मार्च 1931 को उनको शाम साढ़े सात बजे फांसी दे दी गई। भगत सिंह फांसी के समय भी मुस्कुरा रहे थे क्योंकि देश सेवा में कुरबान होना उनका बचपन का सपना था। भगत सिंह आजादी की ज्वाला लिए खुद के अंदर ही लिए घूमते थे।

कहते हैं कि भगत सिंह ने मरने से पहले देशवासियों को एक आखिरी ख़त लिखा था, जिसे पढ़कर आज भी लोगों के आंसू छलक आते हैं इसमें उन्होंने अपनी भावनाओं को जाहिर किया है।

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साथियों,

स्वाभाविक है जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता हूं, लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूं कि कैंद होकर या पाबंद होकर न रहूं। मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है। क्रांतिकारी दलों के आदर्शों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है, इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में मैं इससे ऊंचा नहीं हो सकता था। आज मेरी कमजोरियां जनता के सामने नहीं हैं। अगर में फांसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिन्‍ह मद्धम पड़ जाएगा या संभवत: मिट ही जाए। लेकिन मेरे हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने की सूरत में देश की माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह की उम्मीद करेंगी। इससे आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना किसी के बूते की बात नहीं रहेगी।

हां, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि में देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं। उनका छोटा सा हिस्‍सा भी पूरा नहीं कर पाया। अगर स्वतंत्र, ज़िंदा रह सकता। तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता।

इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फांसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे खुद पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाए।

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