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टीचर बनने का देखा सपना, BHU से ली MA की डिग्री, अब बेच रहे चाय
Suyash Mishra
लखनऊ: संघर्ष के बिना जीवन का आनंद अधूरा है। संघर्षों की कड़ी कसौटी से कुंदन बनकर निकलना ही असली योद्धा की निशानी है। रामधारी सिंह दिनकर के महाकाव्य 'रश्मिरथी' की ये पंक्तियां- 'कंचन हैं हम कांच नहीं तुम ले लो अग्नि परीक्षा' कुछ ऐसा ही हौसला है गाजीपुर के रहने वाले 'सिद्धनाथ' का। वह कहते हैं कि जिंदगी में मुश्किलें आती-जाती हैं पर हमें उनका डटकर सामना करना चाहिए।
अब भी कायम है हौसला
बीएचयू में प्राचीन इतिहास से एमए करने के बाद भी सिद्धनाथ पिछले 20 सालों से चाय बेचकर अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। उनके जीवन में कई उतार चढ़ाव आए लेकिन मुश्किल के दौर में भी उन्होंने कभी हार नहीं मानी। हालातों के शिकार होने के बाद भी उनका हौसला आज भी कम नहीं है।
'जिंदगी की असली उड़ान बाकी है, जिंदगी के कई इम्तेहान अभी बाकी है।
अभी तो नापी है मुट्ठी भर जमीन हमने, अभी तो सारा आसमान बाकी है।।'
ये साहसिक पंक्तियां गाजीपुर जिले के जखनिया के पास अलीपुर मंदरा निवासी सिद्धनाथ सिंह के उपर सटीक बैठती हैं।
गांव में हुई प्रारभिक शिक्षा
सिद्धनाथ प्रारंभ से ही साहसी और ईमानदार थे। संयुक्त परिवार में वह अपने तीन भाई और दो बहनों के साथ रहते थे। गरीबी में पले बढ़े श्री सिंह ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गांव के सरकारी स्कूलों में ली। घर के बड़े बेटे होने के नाते पूरे परिवार की जिम्मा उनके सर पर था।
बीएचयू से ली उच्च शिक्षा
सिद्धनाथ ने उच्च शिक्षा के लिए काशी यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। प्राचीन इतिहास संस्कृत एवं इंगलिश विषय से बीए किया और प्राचीन इतिहास से एमए फस्ट डिवीजन में पास किया। इन्होंने मुंबई के अमरावती से बीपीएड की डिग्री ली। इतना ही नहीं उन्होंने 4 साल वहीं से पीएचडी की पढ़ाई भ्ाी की लेकिन किन्हीं कारणों से फाइल सब्मिट नहीं कर सके।
प्राइवेट डिग्री कॉलेज में शिक्षक भी रहे
गाजीपुर के भुड़कुरा में सरकारी महाविद्वालय महंत रामाश्रयदास में प्राइवेट शिक्षक के तौर पर कार्य किया। हालात ऐसे बने की उनको लखनऊ आना पड़ा पेट पालने के लिए चाय की दुकान खोलनी पड़ी।
टीचर बनने का था सपना
सिद्धनाथ जीवन में आगे बढ़ना चाहते थे। उन्होंने टीचर बनने का सपना देखा था लेकिन कम उम्र में ही उन्हें शादी करनी पड़नी। हालात के आगे उन्हें मजबूरी में शादी करनी पड़ी। शादी के बाद उनकी जिम्मेदारी और बढ़ गई। इसके चलते उन्हें गाजीपुर छोड़कर लखनऊ पलायन करना पड़ा।
पहली बार गिलास धोए तो अजीब लगा
सिद्धनाथ बताते हैं कि लखनऊ आकर उनका संघर्ष कम नहीं हुआ। उन्होंने एलआईसी में बतौर एजेंट के रूप में कार्य किया, लेकिन पहचान के अभाव में उनका ये व्यवसाय नहीं चला। इसके बाद उन्होंने कई प्राइवेट कंपनियों में काम किया, लेकिन कुछ खास हासिल नहीं कर पाए, तब जाकर उन्होंने चाय का ठेला लगाया। वह बताते हैं कि एक फ्राइपिन और दर्जनभर गिलास लेकर काम शुरू किया। पहली बार जब उन्होंने गिलास धोए तो आंखों से आंसू निकल आए। 20 साल की कड़ी मेहनत के बाद आज उनकी छोटी सी दुकान में 7 वर्कर काम कर रहे हैं।
बच्चों को दी अच्छी शिक्षा
सिद्धनाथ अपना सपना तो साकार नहीं कर सके लेकिन बच्चों को हमेशा अच्छे स्कूल में ही दाखिल करवाया ताकि वो आगे बढ़ सकें। परिवार में उनके दो पुत्र व दो पुत्रियां हैं। बड़ा पुत्र अजीत सिंह गुड़गांव में एक कंपनी में काम करता है, जबकि छोटा पुत्र अमित पत्रकार है।
ये है आखिरी ख्वाहिश
सिद्धनाथ पिछले 20 सालों से लखनऊ में रह रहे हैं, लेकिन उनके पास अभी तक अपना मकान नहीं है। उनकी आखिरी ख्वाहिश यही है कि उनका अपना आशियाना हो। इस समय वह हुसैनगंज में किराए के मकान में रह रहे हैं।