×

बाल दिवस: लौटा दो वो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी

By
Published on: 14 Nov 2017 4:36 AM GMT
बाल दिवस: लौटा दो वो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी
X

लखनऊ: वो ज़माने भी क्या जमाने थे, जब जिंदगी में न कोई टेंशन थी ना आंखों में कोई ख्वाहिश होती थी। तो बस एक तमन्ना, जिंदगी को जीने की। न किसी से जलन थी, न किसी से आगे जाने की चाह .. चाह थी तो बस इतनी कि आगे बढ़ें, तो एक साथ बढ़ें... न तो ये गैजेट्स थे, न किसी से दूर होने का डर। बड़ी याद आती है मां-पापा की वो डांट, जो जून की भरी दोपहरी में बिना चप्पल पहने धूल वाले पैरों के साथ घर आने पर पड़ती थी..

कितना अच्छा लगता था, वो मिटटी के बर्तनों के साथ खेलना या फिर गुलेल से किसी के बागों में फलों को तोड़ना मटर के फली चुराने के बाद तो दिल में ऐसी फीलिंग आती थी कि मानों पूरी दुनिया पर हमने फ़तेह पा ली हो। दुःख होता था अगर हमारे किसी साथी को जरा भी चोट लग जाती थी। बेफिक्री का वो दौर अब वापस तो नहीं आएगा। पर उन्हें याद करके आंखों में जो चमक उठती है वह शायद ही किसी और बात से होती हो।

यह बातें हम नहीं बल्कि वो लोग कह रहे हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी का वो बचपन जिया है, जिसे आज के बच्चे मिस कर रहे हैं। आज चिल्ड्रेन डे है। चिल्ड्रेन डे का मतलब तो बच्चों के लिए होता है। लेकिन कहते हैं कि यादें कभी बूढ़ी नहीं होती हैं Children's Day के इस मौके पर जब Newstrack.com ने लखनऊ के जाने-माने लोगों से मिलकर उनसे उनके बचपन के बारे में जानने की कोशिश की। तो उनका मासूम सा दिल गा उठा 'दिल तो बच्चा है जी' ऐसे में अपने बचपन की मीठी शरारतों को इन्होने बखूबी शेयर किया बताया कि किस तरह से अपने बचपन के दिनों में ये लोग भी जमकर शरारत किया करते थे।

आगे की स्लाइड में जानिए कैसे बचपन में पिया था पापा का सिगार आज की इस समझदार शख्सियत ने

अपने बचपन की शरारत को याद करते हुए ताहिरा हसन जी बताती हैं कि एक बात जो आज भी मुझे याद है कि मेरे वालिद एक मशहूर सरकारी क्रिमिनल के वकील (DGC ) थे। इम्पोरटेड सिगार पीते थे। हैट और ओवरकोट में लोग उन्हें काफी एडमायर करते थे। मुझे आज भी वो दिन याद है, जब एक दिन वह घर आए शहर के कुछ गणमान्य मेहमानों से मिलने घर के लॉन में गए। तो मौक़ा पाकर मैंने उनके सिगार का एक कश खींच लिया और धुंआ बाहर निकालने की जगह अंदर खींच लिया.. खांसी आने लगी और मानो मेरी सांस ही रुक गई। घर में अफ़रा-तफ़री मच गई मेरी अम्मी रोने लगी।

वो तो इत्तेफ़ाक़ था कि वालिद से मिलने आए लोगो में प्रतापगढ़ के CMO भी मौजूद थे। उन्होंने मुझे न घबराने और धीरे-धीरे सांस लेने को कहा .. आने वाले दस-पंद्रह मिनट काफी मुश्किल से गुज़रे। कुछ तकलीफ की वजह से और ज़्यादा चोरी से सिगार पीने की शर्मिंदगी से .. बाद में मुझे वालिद ने गोद में उठा कर प्यार किया और गले लगाया। फिर सब ठीक हुआ.. आज भी ये वाक़या याद आता है, तो हंसी आ जाती है। साथ ही अपने वालिद जो अब इस दुनिया में नहीं है, का वो गले लगा कर प्यार करना भी याद आता है, तो आंखें भर जाती है। लेकिन आज भी जब किसी को सिगार पीते हुए देखती हूं तो हंसी खुद ब खुद आ ही जाती है।

आगे की स्लाइड में जानिए और किस तरह लोगों ने याद किया बचपन

महिलाओं के हक़ के लिए लड़ने वाली संस्था 'AIDWA' की अध्यक्ष मधु गर्ग जी का कहना है कि उन्होंने बचपन में जितनी शरारतें की हैं, उतनी शायद ही किसने की होंगी मधु गर्ग जी अपने बचपन को याद करके मुस्कुराते हुए बताती हैं कि उनके जमाने में टीवी नहीं होती थी रेडियो होता भी था तो उसमें कुछ गिने-चुने प्रोग्राम ही सुन पाती थी उनका पूरा का पूरा एक गैंग था जिसमें चचेरे भाई-बहनों से लेकर आस-पड़ोस के लड़के-लड़कियां शामिल थी।

मधु जी बताती हैं कि उनके पिता शुगर मिल में काम करते थे तो उनके घर में गन्नों की कमी नहीं होती थी लेकिन फिर भी वह और उनका गैंग चोरी-छिपे गन्ने खाने की आदत से मजबूर था वह याद करते हुए बताती हैं कि जब उनके पिता जी की फैक्ट्री में बैलगाड़ी पर से गन्ने जाते थे तो इनका गैंग जान-बूझकर बैलगाड़ी वाले से गन्ने मांगता था जब वह नहीं देता था, तो हम लोग चलती बैलगाड़ी के पीछे से गन्ने निकाल लेते थे और उसे चिढ़ाते हुए दिखाकर खाते थे इतना ही नहीं मधु गर्ग यह भी कहती हैं कि उन्होंने बचपन में गुड्डे-गुड़ियों की खूब शादियां की हैं

आगे की स्लाइड में जानिए कैसे गेस्ट लेक्चरर बनाती थी लोगों को बेवकूफ

सीतापुर रोड स्थित ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती यूनिवर्सिटी में गेस्ट लेक्चरर अंजू रावत बताती हैं कि वह बचपन में काफी शरारती थी। वह बताती हैं कि वह अपने स्कूल टाइम के दिनों में काफी मस्ती किया करती थी। वह बताती हैं कि उनका घर से स्कूल से रास्ते में एक नदी पड़ती थी, जिस पर बड़ा सा पुल था। जब भी उनका ग्रुप वहां से गुजरता था, तो जान-बूझकर नदी में देखने लगता और हंसने लगता। ऐसे में जो लोग रास्ते से गुजरते उन्हें लगता कुछ हुआ है और बस वह लोग भी नदी में झांकने लगते। इस तरह पुल पर कई बार तमाम भीड़ जमा होती थी। ऐसा करने के बाद उनका ग्रुप चुपके से वहां से खिसक लेता था और दिन भर यही कन्फ्यूजन बना रहता कि नदी में कुछ हुआ है क्या?

और इसी तरह से ना जाने कितनी तरह की शरारतें करती थी, जिन्हें याद करके उन्हें आज भी हंसी आ जाती है।

आगे की स्लाइड में जानिए कैसे क्लास बंक करके खाने जाते थे बेर

पेशे से पत्रकार विनोद कपूर वैसे तो जिंदगी के 60 सावन देख चुके हैं, लेकिन आज जब उन्हें बचपन की याद आती है। तो वह भावुक हो उठते हैं। वह कहते हैं कि उन्होंने बचपन में कई शरारतें की हैं विनोद जी बताते हैं कि जब वह 8 साल के थे, तो रोज हाफ शर्ट और पैंट पहनकर उन्हें स्कूल भेजा जाता था। वह स्कूल तो जाते थे, लेकिन पढ़ाई में उनका जरा सा भी मन नहीं लगता था। एक दिन उन्होंने और उनके दोस्तों ने स्कूल से थोड़ी दूर एक बेर का पेड़ देखा। बस फिर क्या था इनके ग्रुप को बेर खाने की लत पड़ गई।

अगले दिन से इन्होंने और इनके ग्रुप ने स्कूल जाने के बजाय बेर के पेड़ के पास ही अपनी क्लास बना ली। क्लास बंक करके बेर खाना इनका रूटीन बन गया था। एक दिन उनके पिता जी ने उधर से जाते हुए यह सब देख लिया फिर क्या?? पूरे रास्ते पीटते हुए इन्हें घर लेकर आए दूसरे दिन स्कूल में मास्टर जी से भी खूब डांट पड़ी। विनोद जी का कहना है कि भले ही बेर खाने की वजह से उन्हें मार पड़ी थी, लेकिन उन बेरों की याद आज भी आती है।

आगे की स्लाइड में जानिए कैसे इन्होने बचपन में लगाई मासूमियत से मां को डांट

अपने बचपन की शरारत को याद करते हुए Avadh Upbhokta Hit Sanrakshan Samiti (AUSS) के फाउंडर लावी तिक्खा जी का कहना है कि जब मैं फर्स्ट क्लास में पढ़ता था, तो एक बार मेरी क्लास टीचर ने मेरा ‘पार्कर’ का फाउंटेन कॉपी चेक करने के लिए लिया था और गलती से वह वापस करना भूल गई। बता दें कि ‘पार्कर’ के पेन में 14 कैरट की गोल्ड निब लगी होती थी। वह आगे बताते हैं कि जब उन्होंने मेरा पार्कर का पेन वापस नहीं किया। तो मेरी मां ने कहा कि वह खुद मेरी टीचर से पेन मांगने आएंगी। मैं उस वक्त किंडरगार्टन में पढ़ता था। वह कहते हैं कि मैंने उस मिड सिक्सतीज का फैशन देखा था कि तब औरतें सर पे पफ बनाकर ऊंचा जूड़ा बांधती थी। लेकिन मेरे स्कूल में मेरी मां छोटी बांधकर आ गई।

हंसते हुए वह बताते हैं कि जब मैंने अपनी मां को इस तरह देखा, तो मुझे लगा कि मेरी टीचर हमें बैकवर्ड समझेंगी। फिर क्या मैंने आव देखा न ताव, टीचर के सामने ही मम्मी को टोक दिया, और कहा कि मम्मी आप छोटी बांधकर क्यों आई? जूड़ा क्यों नहीं बांधा? अब उस टाइम हॉल में जितने लोग मौजूद थे, सभी अचानक हंसने लगे और मेरी मां भी।

उस टाइम उन्होंने घर आकर सबको यह बात बताई, लेकिन बचपन की उस बात को याद करके मुझे आज भी हंसी आ जाती है कि मैंने बिना सोचे-समझे अपनी मां को ऐसे डांट दिया। पर यह बात भी तो है कि उस टाइम मैं फर्स्ट क्लास में पढ़ता था।

Next Story