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जन्माष्टमी पर आई कुम्हारों के चेहरे पर मुस्कान, बोले - मटके नहीं, अपने सपने बेचते हैं
लखनऊ: उसे सुबह से शाम तक लोगों का इंतजार रहता है..पूरे साल भर में वो तालाबों और बड़े-बड़े गहरे गड्ढों से खोदकर मिटटी इकट्ठी करता है..ठंडी हो या गर्मी, उसे तो बस एक धुन लगी रहती है, वह है अपनी रोजी-रोटी के लिए मिट्टी के बर्तन बनाने की। एक तरफ जहां उसे साल भर ठीक से दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती, वह भी कृष्ण जन्माष्टमी के दिन अपने बीवी-बच्चों के लिए दूध-दही खरीदने के सपने देखते हैं। जिसके लिए वह बेचारे दीवाली, हलछठ और कृष्ण जन्माष्टमी जैसे त्योहारों का पलकें बिछाकर इंतजार करते हैं। जहां एक तरफ कृष्ण जन्माष्टमी लोगों के लिए त्योहार की ख़ुशी लेकर आया है, वहीं देश भर के कुम्हारों की चमक शायद ही कोई समझ पा रहा हो
जी हां, कहते हैं कि भगवान कृष्ण लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाते हैं। यह बात वाकई सच है। कुम्हार जिस त्योहार के लिए इतनी मेहनत करते हैं, आखिर वह समय आ गया है। कल कृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाएगी और जगह-जगह दही-हांडी वाली मटकी भी फोड़ी जाएगी, जिसके चलते लोग मटकियों की खरीदारी कर रहे हैं। यही कारण है कि इन गरीबों की भी कुछ कमाई हो जाएगी। आशाओं से भरे इनके दिलों के हिस्से में कुछ तो ख़ुशी कान्हा भरेंगे।
कान्हा को पसंद था हांडी का दही-दूध
माना जाता है कि भगवान कृष्ण को दूध-दही हमेशा से पसंद रहा है। कृष्ण युग में भगवान कान्हा की मैया यशोदा हमेशा मटके में दही को मथती थी और दही में से माखन निकालकर उसे कान्हा से छिपाकर ऊपर टांग देती थी। अब कान्हा ठहरे नटखट से। वो अपने बल-ग्वालों के संग मिलकर मटकी से माखन चुराने में लग जाते थे। कई बार तो वह मटकियों को भी फोड़ दिया करते थे। इसके अलावा उस समय पानी भी मटकों में भरा जाता था, तो जमकर कुम्हारों के मटके बिकते थे और उनके पास पैसों की कमी नहीं होती थी। ग्लास भी मिट्टी के बनते थे।
बदल गये हैं लोग, खो गए हैं खरीदने वाले
कृष्ण जन्माष्टमी के इस शुभ अवसर पर जब NEWSTRAK.COM ने शहर के कुम्हारों से मिलकर उनके इस खत्म होते रोजगार के बारे में जानने की कोशिश की, तो उनका दर्द सामने आया। बालागंज में करीब 8 साल से मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार रमेश प्रजापति का कहना है कि आज प्लास्टिक और डिस्पोजल ने उनके रोजगार को ख़त्म करने की कगार पर पहुंचा दिया है। वह कहते हैं कि एक समय था, जब लोग काफी पहले से ही मिट्टी के मटकों और पानी पीने वाले कुल्हड़ बनाने के ऑर्डर देने लगते थे, मिट्टी ढूंढने के लिए न जाने कहां-कहां भटकते थे? लेकिन अब तो अपने इन मिट्टी के बर्तनों की बिक्री के लिए त्योहारों का इंतजार करना पड़ता है। अब तो लोग गिने-चुने त्योहारों पर ही मिट्टी के मटके और कुल्हड़ खरीदते हैं।
आगे वह अपने बिगड़ते रोजगार के बारे में बताते हुए कहते हैं कि पुराने समय में लोग पत्तलों में खाना खाते थे, कुल्हड़ों में चाय पीते थे। लेकिन अब समय बदल गया है। मिट्टी के बर्तनों की जगह प्लास्टिक और डिस्पोजल ने ले ली है। वो जमाने चले गए, जब लोग सड़क के किनारे दोस्तों के साथ मिट्टी के कुल्हड़ में कटिंग चाय पीते थे। वह कहते हैं कि न तो सरकार उनके लिए कुछ करती है और न तो वे अपना पुश्तैनी रोजगार छोड़ सकते हैं। ऐसे में उन्हें मिट्टी के बर्तनों जैसे मटके, गिलास और दियाली बेचने के लिए त्योहारों दीवाली, जन्माष्टमी और हलछठ का इंतजार करते हैं।
नहीं पढ़ा पा रहे बच्चों को
चौक से ठाकुरगंज की ओर जाने वाली रोड पर मटके की दुकान लगाने वाले अशोक की कहानी सुनकर आपकी आंखें भीग जाएंगी। वह कुछ न तो बोल पाते हैं और न ही सुन पाते हैं, लेकिन फिर भी आशा भरी नजरों से दिनभर ग्राहकों का इंतजार करते रहते हैं। उनके बगल में बैठे एक आदमी ने बताया कि वह काफी गरीब हैं और अनपढ़ होने के कारण वह कोई अन्य रोजगार करने के बारे में असमर्थ हैं। यही वजह है कि वह मटके बनाने का काम करते हैं। लेकिन उनकी कमाई इतनी कम है कि वह ठीक से अपने बच्चों को नहीं पढ़ा पा रहे हैं और मटके बनाकर परिवार का पेट पाल रहे हैं। ऐसे में जब कृष्ण जन्माष्टमी जैसा कोई त्योहार आता है, तो भले ही कुछ समय के लिए लेकिन उनके चेहरे पर मुस्कान जरुर आ जाती है।