पुण्यतिथि विशेष मोहम्मद रफी: सैलून चलाता था परिवार, फकीर को गाते सुन शुरू किया था गाना

Aditya Mishra
Published on: 31 July 2018 6:56 AM GMT
पुण्यतिथि विशेष मोहम्मद रफी: सैलून चलाता था परिवार, फकीर को गाते सुन शुरू किया था गाना
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मुंबई: मोहम्मद रफी की आज पुण्यतिथि है। रफी की आवाज के बिना हिंदी सिने संगीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उनके शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीतों की भी अद्भुत दुनिया है। उनके फिल्मी, गैर-फिल्मी गीतों, भजनों, ग़जलों से लेकर दूसरी भाषाओं में गाए उनके गीत आज भी यादगार हैं और लोगों को असली संगीत से परिचय कराते हैं। newstrack.com आज आपको मोहम्मद रफी की अनटोल्ड स्टोरी के बारे में बता रहा है।

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फकीर को गाते सुन शुरू किया था गाना

24 दिसंबर 1924 को जन्मे रफी साहब 31 जुलाई 1980 को इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह कर चले गए। उनका जन्म पंजाब के एक गांव कोटला सुल्तान सिंह में हुआ था। उनका परिवार सैलून चलाता था। वे अक्सर अपने बड़े भाई की दुकान पर जाकर बैठा करते थे। वहां पर कई बार फकीर भीख मांगने के लिए आया करते थे। उनके गाने सुनकर मोहम्मद रफी ने गाना शुरू किया था।

आकाशवाणी से की करियर की शुरुआत

इनके बड़े भाई मोहम्मद हमीद ने गायन में इनकी दिलचस्पी को देखते हुए उस्ताद अब्दुल वाहिद खान से शिक्षा प्राप्त करने की सलाह दी। एक बार प्रख्यात गायक कुंदन लाल सहगल आकाशवाणी (ऑल इंडिया रेडियो लाहौर) के लिए खुले मंच पर गीत गाने आए, लेकिन बिजली गुल हो जाने से सहगल ने गाने से मना कर दिया। लोगों का गुस्सा शांत कराने के लिए रफी के भाई ने आयोजकों से रफी को गाने देने का अनुरोध किया, इस तरह 13 साल की उम्र में रफी ने पहली बार आमंत्रित श्रोताओं के सामने प्रस्तुति दी।

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बॉलीवुड को दिए कई सुपरहिट सांग

मोहम्मद रफी ने इसके बाद पंजाबी फिल्म 'गुल बलोच' (1944) के लिए गाया। उन्होंने 1946 में मुंबई जाने का फैसला किया। संगीतकार नौशाद ने उन्हें फिल्म 'पहले आप' में गाने का मौका दिया। नौशाद के संगीत से सजी फिल्म 'अनमोल घड़ी' (1946) के गीत 'तेरा खिलौना टूटा' से रफी को पहली बार प्रसिद्धि मिली। 'शहीद', 'मेला', और 'दुलारी' के लिए भी रफी के गाए गीत खूब मशहूर हुए लेकिन 'बैजू बावरा' के गीतों ने रफी को मुख्यधारा के गायकों में लाकर खड़ा कर दिया।

इस गाने के लिए मिला पहला फिल्म फेयर अवार्ड

नौशाद के लिए रफी ने कई गीत गाए। शंकर-जयकिशन को भी रफी के गाने पसंद आए और उन्होंने भी रफी को अपनी लयबद्ध गीतों को गाने का मौका दिया। वह मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव जैसे संगीत निर्देशकों की पहली पसंद बन गए। रफी के गाए गानों पर दिलीप कुमार, भारत भूषण, देवानंद, शम्मी कपूर, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र जैसे सितारों ने अभिनय किया। 'चौदहवीं का चांद' (1960) के शीर्षक गीत के लिए रफी को पहली बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिला।

6 बार फिल्म फेयर और 1 बार पद्मश्री अवार्ड

1961 में रफी को दूसरा फिल्मफेयर पुरस्कार फिल्म 'ससुराल' के गीत 'तेरी प्यारी-प्यारी सूरत' के लिए मिला। संगीतकार लक्ष्मीकांत ने फिल्मी दुनिया में अपना आगाज ही रफी की मधुर आवाज के साथ किया। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के धुनों से सजी फिल्म 'दोस्ती' (1965) के गीत 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे' के लिए उन्हें तीसरा फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। उन्हें 1965 में पद्मश्री पुरस्कार से भी नवाजा गया। 1966 की फिल्म 'सूरज' के गीत 'बहारों फूल बरसाओं' के लिए उन्हें चौथा पुरस्कार मिला।1968 में 'ब्रह्मचारी' फिल्म के गीत 'दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर' के लिए उन्हें पाचवां फिल्मफेयर पुरस्कार मिला और 1977 की फिल्म 'हम किसी से कम नहीं' के गाने 'क्या हुआ तेरा वादा' के लिए गायक को छठा पुरस्कार मिला।

13 साल की उम्र में की थी पहली शादी

रफी जब 13 साल के थे, तभी उन्होंने पहली शादी चाची की बेटी बशीरन बेगम से कर ली थी। रफी ने यह बात छिपा रखी थी। उन्होंने कुछ ही साल बाद बशीरन से तालक ले लिया। इसके बाद उनकी दूसरी शादी विलकिस बेगम के साथ हुई। रफी तीन बेटों और चार बेटियों के पिता बने. उनकी बहू यास्मीन खालिद रफी ने जब अपनी किताब 'मोहम्मद रफी : मेरे अब्बा (एक संस्मरण)' में इस महान गायक की पहली शादी का जिक्र किया, तब लोगों को इस बारे में पता चला।

लता मंगेशकर से इस बात को लेकर हुआ था विवाद

एक बार लता मंगेशकर के साथ रॉयल्टी को लेकर रफी का विवाद हो गया था। रफी कहते थे कि गाना गाकर मेहनताना लेने के बाद रॉयल्टी लेने का सवाल ही नहीं उठता, वहीं लता कहती थीं कि गाने से होने वाली आमदानी का हिस्सा गायक-गायिकाओं को जरूर मिलना चहिए। इसे लेकर दोनों के बीच मनमुटाव हो गया। दोनों ने साथ गाना बंद कर दिया। बाद में नरगिस के कहने पर फिल्म 'ज्वेल थीफ' के गाने 'दिल पुकारे आ रे आ रे आ रे' को दोनों ने साथ गाया।

इस तारीख को आखिरी बार रिकार्ड किया था गाना

एक दिन अचानक रफी का रुखसत हो जाना सबको रुला गया। महान गायक को शायद दुनिया से अपने जाने का आभास हो गया था। 31 जुलाई, 1980 को उन्होंने अपना गाना रिकॉर्ड कराने के बाद लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल से कहा, "नाउ आई विल लीव" और शाम 7.30 बजे दल का दौरा पड़ने से वे हमेशा के लिए हम सबको छोड़कर चले गए। जब संगीत के इस बेताज बादशाह को सुपुर्दे खाक किया जा रहा था, तो नौशाद ये पंक्तियां बरबस ही बुदबुदाने लगे- "कहता है कोई दिल गया, दिलबर चला गया, साहिल पुकारता है समंदर चला गया, लेकिन जो बात सच है कहता नहीं कोई, दुनिया से मौसिकी का पयम्बर चला गया।"

हाथ में डायरी से देख गाते थे गाना

सलमान खान के पिता सलीम खान ने एक इंटरव्यू में बताया था कि रफ़ी साहब जब भी स्टेज पर गाना गाया करते थे तो हाथ में डायरी लेकर देख देख कर गाते थे। एक दिन जब उन्होंने रफ़ी साहब से कहा कि ये जितने भी गाने आप देख-देख कर गाते हैं ये सभी को याद हैं और ये 25-30 गाने जिनकी फरमाइश आपसे हमेशा की जाती है, इन्हें आप याद करके स्टेज पर बिना किताब के गाया कीजिए। लोगों से कनेक्ट करके गाइए। उनसे मुखातिब होकर गाइए। मेरी बात सुनकर रफी साहब ने कहा- 'बहुत बड़ी बात आपने मुझे बताई है'। उस दिन के बाद कभी भी स्टेज पर उन्होंने किताब लेकर गाने नहीं गाए। इस तरह से लाइव शो में उन्होंने खुद को इम्प्रूव किया।

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