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इमरजेंसी का काला सच, जानें कैसे बरपा था इंदिरा का कहर

Newstrack
Published on: 24 Jun 2016 9:28 AM GMT
इमरजेंसी का काला सच, जानें कैसे बरपा था इंदिरा का कहर
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R Narayan
25 जून को देश में लगे इमरजेंसी को 41 साल हो जाएंगे। 1975 में इंदिरा गांधी के कार्यकाल में इसकी घोषणा की गई थी। हम आपको इमरजेंसी से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी और घटनाक्रम के बारे में बताने जा रहे हैं।

आज का दिन, 41 साल पहले, पूरे देशवासियों के लिए दीवार पर टंगे कैलेंडर की तरह एक दिन हो सकता है लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके लिए आज का दिन आम नहीं खास दिन है। एक काला दिन जिसे लोग याद करने की बजाए भूलना चाहेंगे।

सुबह आम दिनों की तरह हुई। धूप रोज की तरह खिली। पेड़ों पर पक्षी वैसे ही चहचहाए। पर जैसे जेसे सूरज आसमान पर चढ़ा एक चर्चा शुरू हो गई। चर्चा इंदिरा गांधी को लेकर थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट में इंदिरा गांधी के खिलाफ समाजवादी नेता राज नारायण ने याचिका दायर की थी। याचिका में आरोप था कि इंदिरा गांधी ने अपने पद का दुरुपयोग कर रायबरेली से लोकसभा का चुनाव जीता।

इस कारण उनका चुनाव रद्द होना चाहिए। तरह तरह की अटकलें लगाई जा रही थीं।ज्यादातर पत्रकार मानते थे कि फैसला राज नारायण के पक्ष में होगा। हुआ भी ऐसा ही लेकिन उसके बाद जो हुआ उसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी।शाम होते होते ये आशंका आम हो गई कि इंदिरा गांधी चुप बैठने वाली महिला नहीं हैं। वो कुछ ना कुछ करेंगी जरूर। हुआ भी ऐसा ही। कुछ घंटों बाद कैबिनेट की बैठक हुई और उसमें आपातकाल घोषित करने की सिफारिश की गई। बैठक मात्र औपचारिकता थी, फैसला तो पहले ही हो चुका था।

इमरजेंसी इससे पहले भी दो बार लग चुकी थी। पहली बार 1962 में चीन के साथ वार में और दूसरी बार 1971 में पाकिस्तान के साथ वार में। पर ये इमरजेंसी कुछ और तरह की थी। प्रेस और न्यायपालिका पर भी प्रतिबंध लगाया गया। देश के आम आदमी को सरकार के भरोसे कर दिया गया। जनता की आजादी पर ये कुठाराघात था। तुरंत तो इसका असर नहीं दिखा लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया प्रेस की आजादी छीनी जाने लगी।

25 जून 1975 को लगे आपातकाल के अगले दिन अखबार वैसे ही निकले जैसे रोज निकला करते थे। सिर्फ एक अखबार इंडियन एक्सप्रेस ऐसा था जो अन्‍य अखबारों से अलग था। इस अखबार ने संपादकीय की जगह खाली रखी। इसी ग्रुप के दूसरे अखबार ने संपादकीय की जगह रविन्द्र नाथ टैगोर की कविता छापी जिसमें हिम्मत रखने की सलाह दी गई थी। इंडियन एक्सप्रेस को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। हालांकि इसकी भरपाई भी हुई।इमरजेंसी खत्म होने के बाद अखबार की लोकप्रियता में जबरदस्त उछाल आया और बिक्री भी बढ़ गई।

आपातकाल की घोषणा के साथ प्रेस पर शिकंजा कसने लगा। एक अलग से सेल बनाया गया जिसका काम अखबारों में प्रकाशित होने वाली खबरों पर निगरानी रखना था । सभी राज्यों में इसके लिए कार्यालय खोले गए। बिहार में इसका कार्यालय राजधानी पटना के डाक बंगला में था। कोई भी खबर नियुक्त पदाधिकारी के पास किए बिना नहीं छापी जा सकती थी।

रिपोर्ट पर पदाधिकारी की मुहर भी भी आवश्यक थी। कुछ दिन बाद थोड़ी ढील दी गई। निगरानी के लिए नियुक्त पदाधिकारी खुद ही प्रेस के दफ्तर जाने लगे और रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देने लगे। कोई भी खबर सरकार के खिलाफ नहीं दी जा सकती थी। आपातकाल और उससे संबंधित कोई भी खबर मान्य नहीं थी। कभी कभी तो पदाधिकारी मनमानी भी करते थे। जो खबर जाने लायक होती थी उसे भी रोक देते थे।

पत्रकारों ने भी नई तरकीब निकाली। उन्होंने ऐसे टापिक को चुनना शुरू किया जिस पर सरकारी तंत्र ज्यादा रोक नहीं लगा सके। खेत ,खलिहान ,गांव और उसकी समस्‍याओं पर खबरों की बाढ़ आ गई। राजनीतिक खबरें कम हो गईं। कांग्रेस के नेता जो अखबार में अपने लिए दो लाईन छपवाने के लिए मिन्नतें करते थे वो एकाएक खुद को बड़ा नेता मानने लगे। वो जैसा चाहते थे वैसी खबरें उनकी छपने लगी। अधिकारी सिर चढ़ कर बोल रहे थे।

एक घटना याद आती है। पटना से 100 किलोमीटर दूर राजगीर है जहां बने शांति स्तूप तक जाने के लिए रोप वे है। रोप वे दो पहाड़ों को जोड़ता है। उसका उद्घाटन आपातकाल लगने के पहले हुआ था। उसका अधिकारी जब पहले आया करता था तो बड़े आदर से बात कर रोप वे पर घूमने का निमंत्रण् दिया करता था। काम से एक बार जब राजगीर जाना हुआ तो देखा उस अधिकारी के तेवर बदले हुए थे । उसने तो मिलने से ही इंकार कर दिया था।

इंदिरा गांधी के बेटे संजय के तो तेवर आपातकाल में देखने लायक थे। जबरन नसबंदी हो रही थी। स्कूल के हर शिक्षक को नसबंदी का टारगेट दिया गया। जो टारगेट पूरा नहीं कर पाता उसे दंडित किया जाता। उस दौरान कुछ अच्‍छे काम भी हुए। ट्रेनें समय से चलने लगीं। सरकारी अधिकारी और कर्मचारी समय से दफ्तर आने लगे। ये सिलसिला कुछ दिन तक चला लेकिन बाद से सब पुराने ढर्रे पर ही काम करने लगे।

हर बुराई का अंत होता है। आपातकाल के मामले में भी ऐसा ही हुआ। कुछ लोगों की सलाह पर इंदिरा गांधी ने आपातकाल हटाने और चुनाव कराने की घोषणा कर दी। उन्हें विश्वास था कि जीत पक्की है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नतीजा सब के सामने आ गया। कांग्रेस ने इन 41 सालों में खोया ज्यादा और पाया कम है।

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