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350वां प्रकाशोत्सव: जानिए त्याग और वीरता की मिसाल गुरु गोबिंद सिंह बारे में
लखनऊ: 'वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरु जी की फतेह' के नारे से आत्मविश्वास जगाने वाले गुरु गोबिंद सिंह की जयंती पर हर साल प्रकाशोत्सव मनाया जाता है। इस बार भी सिखों के 10वें गुरु, गुरु गोविंद सिंह के 350वें प्रकाशोत्सव को में धूम-धाम से मनाया जा रहा है। उनकी जन्मस्थली पटना साहिब में जश्न मनाया जा रहा है, पीएम नरेंद्र मोदी भी पटना के गांधी मैदान में आयोजित कार्यक्रम में शामिल होंगे। बता दें कि गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म पटना में ईसवीं 1666 में हुआ था।
खालसा पंथ के संस्थापक कर गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख धर्म के लोगों को धर्म रक्षा के लिए हथियार उठाने के लिए प्रेरित किया था। सिख धर्म के 10वें गुरु के रूप में जाने जानेवाले गुरु गोबिंद सिंह बचपन से ही ज्ञानी, वीर, दया धर्म मूर्तिमान थे। जानते हैं उनसे जुड़ी खास बातें जो जीवन में प्रेरणादायक है।
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गुरु गोबिंद सिंह बचपन से से ही बहुत ज्ञानी थे। बहुत छोटी उम्र में उन्हें बहुत सी भाषाएं संस्कृत, ऊर्दू, हिंदी, गुरुमुखी, ब्रज, पारसी आदि आती थीं। इसके अलावा एक वीर योद्धा भी थी और युद्ध कलाओं में निपुण भी। गुरु गोबिंद सिंह ने कई खास हथियारों पर भी महारथ हासिल की थी। उनके द्वारा इस्तेमाल किया नागिनी बरछा आज भी नांदेड़ के हुजूर साहिब में है। जो युद्ध में छोड़े गए पागल हाथियों को मारने के लिए ये एक कारगर हथियार था।
उनके बारे में प्रचलित एक मान्यता के अनुसार पटना में फतह चंद मैनी नाम के एक जमींदार थे, उनकी पत्नी विश्वंभरा देवी को कोई संतान नहीं थी। गोविंद राय (गुरु गोविंद सिंह के बचपन का नाम) साथियों के साथ वहां खेलने आते थे। रानी विश्वंभरा देवी गोविंद राय की तरह ही बालक की कामना से रोज प्रभु से प्रार्थना करती थी। इसी दौरान एक दिन गोविंद राय रानी की गोद में बैठ गए और उन्हें मां कहकर पुकारा। रानी खुश हुई और उन्हें धर्मपुत्र स्वीकार कर लिया।
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बाल गोविंद ने रानी से कहा, 'बहुत जोर से भूख लगी है, कुछ खाने को दो।' रानी के घर में उस समय चने की घुघनी के अलावा कुछ नहीं था। रानी ने गोविंद को वही खाने को दे दिया, जिसे गोविंद ने स्वयं खाया और दोस्तों को भी खिलाया। तभी से वहां प्रसाद के रूप में चने की घुघनी दी जाती है। बाद में हालांकि विश्वंभरा रानी को चार पुत्र हुए। यहीं बालक गोविंद बाग में खेलते थे।
गुरु गोबिंद सिंह बचपन से दूसरों की भलाई के लिए जी जान लगाते थे। एक बार तमाम कश्मीरी पंडित औरंगजेब द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन कराए जाने से बचने के लिए उनके पिता गुरु तेग बहादुर के पास मदद मांगने आए थे। उस समय गुरु गोबिंद सिंह यानि गोविंद राय की उम्र सिर्फ 9 साल थी, लेकिन कश्मीरी पंडितों का कष्ट जानकर उन्होंने अपने पिता से कहा कि इस समय धरती पर आपसे ज्यादा महान और शक्तिशाली और कौन है, इसलिए आपको इन पंडितों की सहायता के लिए जरूर जाना चाहिए। आखिरकार उन्होंने अपने पिता को औरंगजेब के अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए भेज ही दिया। इसके कुछ समय बाद ही पिता की के शहीद होने पर नौ बरस की कम उम्र में ही उन्हें सिक्खों के दसवें गुरु के तौर पर गद्दी सौंप दी गई थी।
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गुरु गोबिंद सिंह जी ने 30 मार्च 1699 को आनंदपुर, पंजाब में अपने अनुयायियों के साथ मिलकर राष्ट्र हित के लिए बलिदान करने वालों का एक समूह बनाया, जिसे उन्होंने नाम दिया खालसा पंथ। खालसा फारसी का शब्द है, जिसका मतलब है खालिस यानि पवित्र।
यहीं पर उन्होंने एक नारा दिया 'वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह'। गुरु गोबिंद सिंह द्वारा बनाया गया खालसा पंथ आज भी सिक्ख धर्म का प्रमुख पवित्र पंथ है, जिससे जुड़ने वाले जवान लड़के को अनिवार्य रूप से केश, कंघा, कच्छा, कड़ा और कृपाण धारण करनी होती है।
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गुरु गोबिंद सिंह युद्ध कला के साथ लेखन कला के भी धनी थे। उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की, जिसमें गुरु की अराधना की बेहतरीन रचनाएं लिखीं। संगीत की दृष्टि से उनकी सभी रचनाएं बहुत ही अच्छी हैं। यानि सबद कीर्तन के रूप में उन्हें सुर और ताल के साथ मन को छू लेने वाले अंदाज में गाया जा सकता है। गुरू गोबिंद सिंह जी हर कला में निपुण जीवन के हर पहलू के ज्ञाता, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन दूसरों की भलाई में समर्पित कर दिया था ।गुरु गोबिंद सिंह के व्यक्तित्व को बयां करती हैं ये पंक्तियां सवा लाख से एक लड़ाऊँ चिड़ियों सों मैं बाज तड़ऊँ तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊँ।