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कलम से भी लड़ी गई थी स्वतंत्रता की जंग, वंदेमातरम था 'बलिदान मंत्र'
लखनऊ : 15 अगस्त, 1947 वो दिन जब हमें पहली बार खुली हवा में सांस लेने का मौका मिला। इस खुली सांस का अहसास हमें तब हो सका, जब हमारे पूर्वजों ने अपनी जिंदगी की परवाह किए बिना स्वतंत्रता आंदोलन के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दी। तब से लेकर आजतक इस बारे में बहुत कुछ लिखा पढ़ा गया। लेकिन आज हम जो बताने वाले हैं वो कुछ खास है।
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देश में जब जंगे आजादी का ऐलान हो चुका था तब उस दौर के कवि और शायर भी इससे अछूते नहीं थे।
जयशंकर प्रसाद लिखते हैं-
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
तो गीतकार, कवि प्रदीप ने लिखा-
आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है।
सुभद्रा कुमारी चौहान कहती हैं खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी |
मूलतः ये एक बुंदेली लोकगीत से प्रेरित था जिसके बोले थे-
खूबई लड़ी रे मर्दानी खूबई जूझी रे मर्दानी। बा झांसी वारी रानी अपने सिपाहियन को लड्डू खबावें, आपइ पिये ठंडा पानी बा झांसी वारी रानी।
टोलियां देश के आम आदमी को जाग्रत करने के लिए प्रभात फेरी लगाती थीं।
माता के वीर सपूतों की आज कसौटी होना है, देखें कौन निकलता पीतल कौन निकलता सोना है।
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वहीं देर शाम को गाता सुनाई देता-
मैं माता का पूत कसौटी का कोई पत्थर ले आए, मुझसे ऐसी रेख खिचेगी जिससे सोना भी शरमाए।
कोई लिखता और गुनगुनाता-
गले बांधे कफनियां हो-शहीदों की टोली निकली।
बिस्मिल ने फांसी पर चढ़ते हुए कहा-
मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे।
बाकी न मैं रहूं न मेरी आरज़ू रहे।
अशफाक उल्ला ने मरते-मरते लोगों को नसीहत दी-
"बुज़दिलों को सदा मौत से डरते देखा।
गो कि सौ बार रोज़ ही उन्हें मरते देखा।।
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा।
तख्ता-ए-मौत पे भी खेल ही करते देखा।"
फांसी पर चढ़ने से पहले भगत सिंह गा रहे थे-
मेरी हवा में रहेगी ख़्याल की बिजली
ये मुश्ते ख़ाक है फ़ानी रहे, रहे न रहे।।
आगरा जेल तो जैसे कवि, लेखक और शायर के जमावड़े का गवाह बनी हुई थी। शैदा, अहमक, जमररुध, उस्मान, रघुपति सहाय 'फिराक', कृष्णकांत, मालवीय, रामनाथ 'असीर' और महावीर त्यागी जैसे वहां बंदी थे। जेल में ही मुशायरे होने लगे जो आजादी की अलख जगाते थे।
वहीं वो तीन गीत भी सामने आए जिन्होंने देश के लिए मर मिटने का जज्बा और अधिक मजबूत कर दिया 'जन गण मन अधिनायक जय हे' (रविन्द्रनाथ टैगोर), 'वंदे मातरम्' (बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय) और झंडावंदन 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा' (श्यामलाल पार्षद)।
वंदेमातरम तो क्रांतिकारी आंदोलन का बलिदान मंत्र ही बन गया। आज भले ही इसको लेकर देश में विवाद हो लेकिन आजादी से पहले ये किसी गायत्री मंत्र या कलमें से कम नहीं था।
आनंद मठ में बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने वंदे मातरम गीत का उपयोग किया था। बंकिम ने यह गीत 1876 में लिखा था। उपन्यास प्रकाशन का समय 1880-82 माना गया। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से सजी इस रचना की लोकप्रियता का पहला उदाहरण वर्ष 1902 में सामने आया। जब कवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने इसका संगीत बनाया और सस्वर पाठ किया। फ्रांस की किसी 'पाथे' ग्रामोफोन कंपनी ने रिकॉर्ड प्रसारित किया जिसके बाद यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया।
ग्रेस की स्थापना वर्ष 1885 में हो गई थी, इसके अधिवेशनों एवं सम्मेलनों में वंदे मातरम् नियमित रूप से गाया जाने लगा था। कभी इसे रवीन्द्र नाथ ने गाया तो कभी विष्णु दिगम्बर पुलुस्कर ने। पुरानी 'देवदास' फिल्म के संगीत निर्देशक 'तिमिर बरन भट्टाचार्य' ने इसकी धुन सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज के लिए बनाई थी। इस धुन को ब्रिटिश बैंड ने भी बजाया और आजाद हिन्द फौज की रेडियो सर्विस सिंगापुर से नियमित प्रसारण होता था।
वर्ष 1940 में एक फिल्म बनी 'बंधन', जिसमें कवि प्रदीप का लिखा गीत चल-चल रे नौजवान बहुत लोकप्रिय हुआ। स्वतंत्रता से पहले बनी फिल्मों में मात्र यही गीत ऐसा मिलता है, जिससे ब्रिटिश सरकार हैरान हो गई थी। प्रदीप ने इसे बाम्बे टाकीज के अहाते में एक पेड़ की छांव में बैठकर लिखा और इस आग उगलने वाले ओजस्वी गीत को फिल्म की संगीत निर्देशक जोड़ी सरस्वती देवी एवं रामचंद्र पाल को धुन बनाने के लिए दे दिया। दोनों मिलकर कई दिनों तक सिर खपाते रहे पर कोई नतीजा नहीं निकला। एक दिन फिल्म के नायक अशोक कुमार ने स्टूडियो में हारमोनियम उठाया और पहली पंक्ति स्वरबद्ध हो गई।
इसके बाद अशोक कुमार भी लाचार हो गए। अंत में वह अपनी बहन सती देवी मुखर्जी के पास गए। जिन्होंने उसका पूरा संगीत तैयार किया। कड़ी सेंसरशिप की आंखों में धूल झोंककर यह गीत फिल्म में आ गया और सारे देश में धूम मचाने लगा, देश के युवकों ने इसे अपने मन की आवाज माना। पंजाब और सिंध के युवकों ने तो असेंबली में इसे वंदे मातरम् की जगह राष्ट्रगीत बनाए जाने का प्रस्ताव रखवा दिया। गांधीवादी महादेव भाई देसाई ने इस गीत की तुलना उपनिषद् मंत्रों से की। सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेता बलराज साहनी उन दिनों बीबीसी लंदन में कार्यरत थे। उन्होंने इसे वहां से प्रसारित करवाया।
सिने जगत में स्वतंत्रता आंदालन से जुड़ी जो हस्तियां उल्लेखनीय हैं। उनमें कवि प्रदीप के साथ गीतकार इंदीवर (बड़े अरमान से रखा है बलम तेरी कसम-मल्हार) और संगीत निर्देशक अनिल विश्वास (दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है) प्रमुख हैं।
क्रांतिकारी विचारधारा अपनाने वाले अनिल दा ने 12 वर्ष की अल्पायु में ही पिस्तौल रखना शुरू कर दिया था। इतना ही नहीं, किशोरावस्था में ही भूमिगत जीवन की आदत हो गई थी।
झांसी के श्यामलाल राय, इंदीवर के नाम से फिल्मों में गीत लिखते रहे। वर्ष 1942 में 'अरे किरायेदार कर दे मकान खाली' सरकारी विरोध में लिखी कविता मानी गई (इसकी सजा किरायेदार ने मकान मालिक को दी) और उन्हें आगरा जेल में एक साल रखा गया|।पैत्रिक संपत्ति राष्ट्र को समर्पित कर बम्बई आये इंदीवर ने शेष जीवन फिल्मी गीतकार के रूप में बिताया। निरंतर योगदान के लिए कवि प्रदीप अपने अन्य साथियों की तुलना में विशिष्ट और अलग दिखते हैं। 'चल चल रे नौजवान' (बंधन) गीत धूम तो मचाया लेकिन प्रदीप को फिल्मों में स्थायित्व दिया किस्मत के गीत ने (दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है)। प्रतिष्ठा में थोड़ी बहुत कसर जो बाकी थी, उसे 'ऐ मेरे वतन के लोगों' ने पूरी कर दी।
'ऐ मेरे वतन के लोगों' गीत के साथ थोड़ा बहुत विवाद और इतिहास जुड़ा है। लता तब तक सार्वजनिक प्रदर्शन से इंकार करती थीं। लेकिन कवि प्रदीप का लिखा और सी रामचंद्र का संगीतबद्ध किया यह गीत चीन आक्रमण के बाद लाल किले में नेहरू की उपस्थिति में उन्होंने गाया। नेहरू गदगद हो गए थे और गीत के भाव उन्हें रुला गए। शुरू में यह गीत आशा भोंसले को गाना था। संगीत निर्देशक सी रामचन्द्र व लता मंगेशकर में अनबन चल रही थी। प्रदीप के व्यक्तिगत अनुरोध पर लता भी इसमें शामिल होने तैयार हो गईं। अब आशा एवं लता दोनों की आवाज़ में गाना रिकॉर्ड होना था लेकिन रिकॉर्डिग तारीख पर आशा को समय न होने के कारण लता जी ने अकेले यह गीत गाया।