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मुन्नी ने मांगा दूध तो छाती उघार दी, मुन्ने ने मांगा भात तो पतलोई झार दी
Suyash Mishra
लखनऊ: इसे कहानी कहें, व्यथा कहें या मुफलिसी में जी रहे उन हजारों भारतीयों का दर्द जिन्हें दो जून की रोटी भी बड़ी मुश्किल से नसीब होती है। सुबह से शाम तक कड़ी मेहनत के बाद भी कई मजदूरों के घरों में रात को चूल्हें ठंडे रहते हैं। एक बूढ़ा बाप तो भूंख को पानी से पी जाता है लेकिन दूध के लिए बिलखते उन बच्चों की चीखें न जाने कितनी माएं हर रोज सुनती हैं। शायद वास्तविक तस्वीर इससे भी ज्यादा भयावह हो सकती है।
नोटबंदी के फैसले ने हर आम और खास आदमी को सर्द हवाओं के बीच ठिठुरन में बैंकों और एटीएम मशीनों के बाहर लाइनों में खड़े रहने के लिए मजबूर कर दिया है। कहते हैं जब भी किसी सिस्टम में बदलाव होता है तो तकलीफ होना स्वाभाविक है। शायद लोग इस चीज को समझ भी रहे हैं। वह भी चाहते हैं कि देश की छिपी करेंसी चलन में आए और सब विकास की ओर आगे बढ़ें।
मोदी सरकार का यह फैसला लोगों को तकलीफ दे रहा है। आम जन परेशान हैं। किसी की बेटी की शादी सर पर है तो कोई घर में खत्म हो गए राशन को लेकर चिंतित है। हर किसी को पैसों की जरूरत है इस कारण लोग सुबह से ही बैंकों के बाहर लाइनों में खड़े हो रहे हैं। जवान से लेकर बुजुर्ग और महिलाएं भी घर छोड़कर बैंकों के चक्कर काट रही हैं। देश की यह वर्तमान तस्वीर सोलह आने सच है। इसे दरकिनार नहीं किया जा सकता।
सरकार का यह स्टंट बिना तैयारियों के हो सकता है इसमें भी दो राय नहीं है, क्योंकि पीएम मोदी ने गोवा में कहा कि वह पिछले 6 महीने से तैयारी कर रहे थे फिर सवाल यह है कि उन्होंने स्थित सुधारने के लिए जनता से 50 दिन और क्यों मांगे। कुछ भी हो लेकिन शायद देश की आवाम को इस फैसले से एक नए युग की तस्वीर दिख रही है। सरकार का यह निर्णय सही है या गलत इसका फैसला आगामी चुनाव में आम जनता कर देगी।
इन सब से अलग एक तस्वीर देश के बड़े नेताओं की भी है जो मोदी सरकार के फैसले से नाखुश हैं। आम जनता की असुविधा का हवाला देकर सरकार घेरने की कोशिश में लगे हैं। नोटबंदी के फैसले के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी 11 नवंबर को अपने 4 एसपीजी कमांडो के साथ 2 करोड़ की रेंज रोवर से संसद मार्ग पर एक एसबीआई बैंक की एक शाखा पर नोट बदलने गए। वहीं कालेधन और करप्शन का मुद्दा उठाकर दिल्ली के तख्त तक पहुंचे सीएम अरविंद केजरीवाल ने भी मोदी सरकार पर हमला बोला।
अब सवाल यह उठता है कि आम लोगों के साथ लाइन में लगकर, आरोप लगाकर ये नेता किसकी मदद कर रहे हैं। नोटबंदी के बाद लोग बदहाल हैं उनके पास राशन और खाने के लिए भी दिक्कते हैं। लेकिन ये नेता किसी गरीब के घर झांकने नहीं गए। कितने घरों में चूल्हें जले, लोगों को क्या परेशानियां हो रही हैं इन सब वास्तविकताओं से कोसों दूर लाइन में लगकर मीडिया को कोसकर आखिर यह क्या जता रहे हैंं। क्या यही इनकी संवेदनशीलता है।
जहां ऐसी परिस्थितियों में इन नेताओं को जनता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होना चाहिए था वहीं ये राजनीतिक रोटियां सेकनें में जुटे हैं। ऐसा करके न जाने ये लोग किस राष्ट्र का निर्माण कर रहे हैं।