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गोरखपुर में लिखी साहित्य की बिसात,तभी मुंशी प्रेमचंद कहलाए लेख सम्राट

shalini
Published on: 31 July 2016 7:20 AM GMT
गोरखपुर में लिखी साहित्य की बिसात,तभी मुंशी प्रेमचंद कहलाए लेख सम्राट
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गोरखपुर: मुंशी प्रेमचंद ऐसे कालजयी उपन्‍यासकार, जिन्‍होंने अपनी लेखनी के दम पर पूरे विश्‍व में पहचान बनाई। साधारण कद-काठी, धोती-कुर्ता और सादगी उनकी पहचान रही है। आज उनकी 137वीं जयंती है, उनकी कालजयी रचना ‘कफ़न’, ‘गबन’, ‘गोदान’, ‘ईदगाह‘ और ‘नमक का दरोगा‘ हर किसी को बचपन की याद दिलाती है। गोरखपुर में ही उन्‍होंने ऐसे कई उपन्‍यास को मूर्तरूप दिया, जिसके किरदार हमेशा के लिए अमर हो गए।

मुंशी प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 से 8 अक्टूबर 1936) किसी पहचान का मोहताज नहीं। भारत के एक महान हिन्दी उपन्यासकार, जिनकी रचनाओं में गोरखपुरिया साफ़ झलकती है। उनका जन्म भले यहां नहीं हुआ, लेकिन उन्होंने अपने कर्मों से गोरखपुर की एक अलग ही तस्वीर उकेर कर रख दी। आज भी वह घर जहां वह रहते थे और वो विद्यालय जहां उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा ली, उनकी दास्‍तां को बयां करता है। उन्होंने अपना पहला साहित्य जहां लिखा, उसके समीप ही मुंशी प्रेमचंद के नाम से पार्क भी स्थापित है।

munshi premchand

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मुंशी प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई 1880को बनारस से लगभग छ: मील दूर लमही नामक गांव में हुआ था। उनके पूर्वज कायस्थ परिवार से आते थे, जिनके पास उस समय में छ: बीघा जमीन थी1 प्रेमचन्द के दादाजी गुरु सहाय सराय पटवारी और पिता अजायब राय डाकखाने में क्लर्क थे। उनकी माता का नाम आनंदी देवी था। उन्‍हीं से प्रेरित होकर उन्होंने एक रचना ‘बड़े घर की बेटी‘ में ‘आनंदी‘ नामक पात्र बनाया था।

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प्रेमचंद के चाचा उन्हें बुलाते थे नवाब

प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय था, जो उनके माता-पिता ने रखा था लेकिन, उनके चाचा उन्हें नवाब कहा करते थे। प्रेमचन्द जब 7 साल के थे, तब प्रेमचंद ने अपने गांव के निकट लालपुर गांव के मदरसे में पढ़ाई की थी। प्रेमचंद को मदरसे के मौलवी ने उर्दू और पारसी सिखाई, जिसका उनकी रचनाओं पर काफी प्रभाव रहा है।

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जानिए क्या रहा प्रेमचंद का गोरखपुर से रिश्ता

मुंशी प्रेमचंद के पिता की जब गोरखपुर में पोस्टिंग हुई, तब उन्होंने दूसरी शादी कर ली। प्रेमचंद का अपनी सौतेली मां से थोडा सा स्नेह था, जिसे उन्होंने अपनी रचनाओं में अलग तरीके से पेश किया है। प्रेमचंद अपना अधिकतर समय उपन्यास पढ़ने में बिताया करते थे। गोरखपुर में स्थित रावत पाठशाला में ही उनकी शिक्षा शुरू हुई और इसे संयोग ही कहेंगे कि इसी पाठशाला में उन्होंने बतौर शिक्षक के रूप में नौकरी भी की।

अपनी प्राथमिक शिक्षा के बाद धनपत राय मिशनरी स्कूल से अंग्रेजी पढ़े और और कई अंग्रेजी लेखकों की किताबें पढ़ना शुरू कर दिया। उन्‍होंने अपना पहला साहित्यिक काम गोरखपुर से उर्दू में शुरू किया था सोज-ए-वतन उनकी पहली रचना थी। मुंशी प्रेमचंद पार्क में स्थित मकान में ही उन्‍होंने कालजयी रचना ‘ईदगाह’, ‘नमक का दरोगा’, ‘रामलीला’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘दो बैलों की जोड़ी’, ‘पूस की रात’, ‘मंत्र’ और उनकी रचनाओं में सबसे मशहूर ‘कफन’, ‘गबन’और ‘गोदान’ की पृष्‍ठभूमि भी उन्‍होंने यहीं पर तैयार की थी।

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नवीं कक्षा में हो गई थी प्रेमचंद की शादी

प्रेमचंद ने ‘रामलीला’ की रचना बर्फखाना रोड पर स्थित बर्डघाट की रामलीला के पात्रों की दयनीय स्थिति को ध्‍यान में रखकर लिखी गई। तो वहीं ‘बूढी काकी’ मोहल्‍ले में बर्तन मांजने वाली एक बूढ़ी महिला की कहनी है। गोदान भी अंग्रेजी हुकूमत में देश के किसानों के दर्द की तस्‍वीर खींचती है, जिसका किरदार भी गोरखपुर के इर्दगिर्द ही घूमता है। 1890 के दशक के मध्य में जब उनके पिता की जमनिया गांव में पोस्टिंग हुई, तब उनका दाखिला अनावासी छात्र के रूप में बनारस के क्वीन कॉलेज में कराया गया 1895 में 15 वर्ष की उम्र में उनका विवाह कर दिया गया। तब वह 9वीं कक्षा में पढ़ रहे थे।

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पहला नाम था धनपत राय

धनपत राय शुरुआत में अपना उपनाम “नवाब राय ” लिखा करते थे। उनका पहला लघु उपन्यास “देवस्थान रहस्य” था, जिसमें उन्होंने मन्दिर के पुजारियों और गरीब महिलाओं के यौन शोषण को दर्शाया था। उनका यह उपन्यास बनारस के उर्दू साप्ताहिक “आवाज ए ख़ाक ” में 1903 से 1905 के बीच प्रकाशित किया गया।

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गोरखपुर में सजी हैं प्रेमचंद की यादें

आज भी गोरखपुर में उनसे जुड़ी हुई कई चीजों को संजो कर रखने का प्रयास किया गया है, लेकिन सरकारी उदासीनता और लापरवाही में इस महान शख्सियत की धरोहर नाम मात्र की ही रह गई है। आज भी उनके चाहने वाले और उनके दिखाए हुए मार्ग पर चलने वाले कम नहीं हैं। उनके घर कोही को आज एक संग्रहालय और पुस्कालय के रूप में रखा गया है, जिसमें बतौर प्रभारी के रूप में पिछले कई वर्षों से अपनी सेवा दे रहे बैजनाथ मिश्रा ने बताया कि पुस्तकालय की स्थिति बहुत ही दयनीय है।

किसी भी प्रकार की कोई सरकारी मदद नहीं मिलती, इसके बावजूद उनका जुड़ाव कम नहीं हुआ और यहां आने वाले लोगो को मुंशी प्रेमचंद के बारे में बताने और उनकी पुस्तकों को पढ़ाते हैं, जिससे उनके काफी ख़ुशी और संतुष्टि मिलती है।

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