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इस युवक ने शुरू की साइकिल यात्रा, नाम दिया 'राइड फार जेंडर फ्रीडम'

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Published on: 27 July 2016 11:46 AM GMT
इस युवक ने शुरू की साइकिल यात्रा, नाम दिया राइड फार जेंडर फ्रीडम
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गोरखपुर जेंडर पर खुद की समझ बढ़ाने और इस विषय पर लोगों से बातचीत करने के उद्देश्य से एक नौजवान 28 माह से साइकिल से देश का भ्रमण कर रहा है। अब तक वह 13,500 किलोमीटर साइकिल चलाकर देश के नौ राज्यों का भ्रमण कर चुका है। आगे वह लगभग इतने की किलोमीटर की सड़कों को साइकिल से नापेगा और ‘राइड फार जेंडर फ्रीडम’ नाम की यह अनूठी यात्रा दो साल बाद 2018 में नई दिल्ली में समाप्त होगी।

कौन है राकेश सिंह?

बिहार के मुजफफरपुर के तरियानी छपरा गांव के निवासी राकेश कुमार सिंह हैं। राकेश दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक के बाद मास कम्यूनिकेशन की पढ़ाई कर चुके हैं। वह 25 जुलाई को देवरिया होते हुए गोरखपुर पहुंचे। बेतियाहाता स्थित प्रेमचन्द पार्क में गोरखपुर बात करते हुए उन्होंने अपनी साइकिल यात्रा के बारे में बताया।

चेन्नई से शुरू की साइकिल यात्रा

राकेश 15 मार्च 2014 को चेन्नई से साइकिल से भारत भ्रमण पर निकले हैं। वह पांडिचेरी, केरल, कर्नाटक, तेलगांना, आन्ध्र प्रदेश, ओडीसा होते हुए बिहार आए। बिहार में आने के बाद वह ढाई हफ्ते के लिए नेपाल भी गए। वहां बाल्मीकिनगर, नवलपरासी, भैरहवां, लुम्बिनी, कपिलवस्तु, चितवन, बीरगंज होते हुए फिर बिहार आए और अब वह यूपी में हैं।

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जेंडर के बारे में करते हैं बात

राकेश ने कहा कि वह इस यात्रा में सिर्फ साइकिल नहीं चलाते पर हर रोज कम से कम चार जगहों पर रूक कर लोगों से बातचीत करते हैं और जेंडर के बारे में उनकी समझ जानने की कोशिश करते हैं। वह कालेजों और स्कूलों में जाते हैं और बातचीत करते हैं। चौक-चैराहों पर रूक कर माइक्रोफोन से बोलना शुरू करते हैं और जब लोग जुट जाते हैं तो संवाद का दौर शुरू होता है। बिजली का इंतजाम होने पर वह लोकप्रिय फिल्मों को दिखाकर जेंडर भेदभाव, स्त्रियों पर हिंसा के विभिन्न रूपों पर बातचीत करते हैं।

महिलाओं के प्रति हिंसा रूक नहीं रही

राकेश ने कहा कि वह इस यात्रा के जरिए यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि लोग जेंडर को कैसे समझते हैं और जेंडराइजेशन की प्रक्रिया क्या है। क्यों एक किशोर या वयस्क किसी स्त्री पर शारीरिक या मानसिक हिंसा करता है ? उनका कहना है कि आजादी के बाद से महिलाओं पर हिंसा रोकने के लिए कई कानून बने और कई कानूनों को सख्त बनाया गया फिर भी हिंसा रूक नहीं रही बल्कि बढ़ रही है। क्योंकि प्राथमिक तौर पर यह सिर्फ कानून व्यवस्था का मामला नहीं है। इसकी जड़े हमारे समाज और परिवार में हैं।

परिवार से ही सीखता है बच्चा

आखिर एक बच्चा परिवार में ही लड़कियों और महिलाओं से होने वाले दोयम दर्जे के व्यवहार को देखता है और इससे सीखता है। वह अपनी मां को घर में 18-18 घंटे काम करते देखता है और मामूली बातों पर पिता से दुव्र्यवहार, हिंसा होते देखता है। वह पुरूषों को एक तरह के काम और महिलाओं को दूसरे तरह के काम करते देखता है और सीखता है कि पुरूष और महिलाएं अलग-अलग काम करने के लिए बने हैं। इस सब देखते हुए उसकी मानसिकता निर्मित होती है। घरों और परिवारों में परम्परा के नाम पर होने वाले इस जेंडर भेदभाव के खिलाफ मजबूत संघर्ष नहीं हो रहा है। अच्छे खासे अपने को प्रगतिशील और उदारवादी कहने वाले भी इसके विरूद्ध लड़ने की ताकत नहीं रखते हैं।

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साथियों के सहयोग से खरीदी साइकिल

राकेश को 28 माह के इस यात्रा में कई तरह के अनुभव हुए। एक बार तो बिहार के जमुई में बड़े वाहन से उनकी साइकिल की टक्कर हो गई। वह खुद घायल तो हुए ही 40 हजार की साइकिल भी चूर-चूर हो गई। यह साइकिल भी बमुश्किल खरीद पाए थे। अब उन्होंने अपने साथियों के सहयोग से दूसरी साइकिल खरीदी है। वह बताते हैं कि ओडीसा में एक नाई उनको अपने घर ले गया। बातचीत हुई तो पता चला कि उसकी तीनों बेटियां पढ़ नहीं रहीं जबकि वह पढ़ना चाहती हैं। बातचीत से वह एक ही रात में बदल गया और उसने तीनों लड़कियों का नामांकन स्कूल में करा दिया।

दक्षिण भारत में महिलाओं ने बनाया है स्पेस

वह कहते हैं कि दक्षिण भारत में उत्तर भारत के मुकाबले स्त्रियां सार्वजनिक स्थानों पर खूब दिखती हैं। वहां भी जेंडर भेदभाव है लेकिन उन्होंने अपने लिए एक स्पेस बनाया है। उत्तर भारत में लोग अपनी औरतों को लेकर ज्यादा डरे हुए हैं। दक्षिण भारत के कई राज्यों में थर्ड जेंडर काफी मुखर हैं हालांकि लोगों का नजरिया उनके प्रति उसी तरह है जैसे उत्तर भारत में हैं। राकेश चाहते हैं कि वह एक ऐसा स्पेस बनाएं जहां स्टीरियोटाइप जेंडर जैसी कोई बात नहीं हो। वहां हर तरह के शोषण, भेदभाव के बिना रह सकें और अपने हुनर व क्षमता का अधिकतम इस्तेमाल कर सकें।

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