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आजादी में रहा था इस क्रांतिकारी का अनोखा योगदान, आज भी किए जाते हैं याद
मुरादाबाद: मुरादाबाद जिले के लोगों ने जंग-ए-आजादी में विशेष भूमिका निभाई थी। चाहे खिलाफत आंदोलन हो अथवा असहयोग चाहे रोलेट एक्ट की मुखालफत हो अथवा नमक आंदोलन या भारत छोड़ो, मुरादाबाद के लोगों ने बढ़-चढ़ कर अपनी भूमिका निभाई है, जिसमें से एक सूफी अंबा प्रसाद की गाथा है। उनकी गिनती मंडल के ही नहीं देश के स्वतंत्रता सेनानियो में होती है।
बता दें कि जंग-ए-आजादी में क्रांतिकारी सूफी अंबा प्रसाद भटनागर का रुतबा मुरादाबाद के बहादुर शाह जफर सरीखा है। अंग्रेजो के देश से निर्वासन की सजा देने के बाद ईरान में उनकी मजार है, जहां उनकी इबादत सूफी के तौर पर की जाती है। मुरादाबाद शहर में गुलामी के विद्रोह से फूटी एक क्रांति का नाम है सूफी अंबा प्रसाद भटनागर। यह ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में सारा योगदान अखबारों के माध्यम से किया।
ईरान में आज भी इनकी मजार मौजूद है और लोग बड़े अदब से उसकी पूजा भी करते हैं। इनकी मजार ईरान के शिराज शहर में है, जहां प्रतिवर्ष जनवरी के महीने में बहुत बड़ा मेला लगता है। मुरादाबाद में इतिहास के जानकार और वरिष्ठ साहित्यकार अंबरीश गर्ग का कहना है कि सूफी अंबा प्रसाद का अंग्रेजों में एक ख़ौफ़ था। अंग्रेज इनसे घबराते थे। सूफी अंबा प्रसाद ने अपनी पूरी लड़ाई पत्रकारिता के माध्यम से ही लड़ी।
बरेली से बीए, एलएलबी करने के बाद इन्होंने 1889 में मुरादाबाद से ही पहला हिंदी अख़बार (सितारे हिन्द) निकाला, जिसने अंग्रेजो के नाक में दम कर दिया। जिसके बाद उर्दू साप्ताहिक एक अखबार की शुरुआत की, जिसका नाम जाम्यूल इस्लाम था। इस अखबार ने मुस्लिम समाज को जंग ए आजादी से जोड़ने अंबा प्रसाद कलकत्ता पहुंच गए और वहां से उन्होंने आनंद बाजार पत्रिका का संपादन किया। जिससे कलकत्ता और हैदराबाद की सरकारें घबरा गईं और उन्होंने इन्हें गिरफ्तार करने की तैयारी की।
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लेकिन वह वहां से भागकर 1905 में पंजाब पहुंच गए। यहां से इन्होंने हिंदुस्तान अख़बार में काम करना शुरू किया। बाद में हिंदुस्तान अख़बार को इस्तीफा देकर अजीत सिंह के साथ मिलकर भारत माता बुक सोसाइटी स्थापित कि जिसने न्यू कालोनी बिल के खिलाफ आंदोलन किया। इस सोसाइटी की और से प्रकाशित उनकी लिखी पुस्तक, बागी मसीहा ने पंजाब में क्रांति की आग भड़का दी।
इस पुस्तक को अंग्रेजों द्वारा जब्त कर लिया गया और और इनकी गिरफ्तारी का प्रयास शुरू कर दिया। बाद में अंग्रेजों द्वारा इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और इन्हें छह वर्ष की कठोर कारावास की सजा दी गई। पंजाब में किसानों के साथ मिलकर अंग्रेज सरकार के खिलाफ षडयंत्र करने पर देश से निकाला दिया गया। फिर वो अजित सिंह के साथ ईरान चले गए। ईरान में इन्होंने आवेहयात अख़बार का संपादन किया। यही उन्हें ईरानियों ने सूफी की उपाधि दी। बाद में ईरान में अंग्रेजो का कब्जा हो जाने से उन्हें अंग्रेजों का सामना करना पड़ा। उन्हें अंग्रेज सरकार ने फांसी की सज़ा सुनाई। लेकिन मुकर्रर तारीख से पहले 21 फरवरी 1915 को उन्होंने खुद अपने प्राण त्याग दिए और अंग्रेज उन्होंने मारने का सपना ही देखते रहे।
आप को बता दें कि उत्तर प्रदेश सूचना विभाग ने भी 1952 में निकाले गए भारतीय स्वतंत्रता सेनानी संस्करण में सूफी अंबा प्रसाद जी का जिक्र किया गया है। भारतीय इतिहास में उन महान क्रांतिकारियों का नाम लिया जाए, जिन्हें अंग्रेज मौत के घाट उतारने के लिए छू भी न सके। तो नेताजी सुभास चन्द्र बोस और वीर चंद्रशेखर आजाद से पहले अंबा प्रसाद का नाम आएगा। सूफी अंबा प्रसाद का जन्म 1858 में मोह्ह्ला कानून गोयन थाना मुगलपुरा जिला मुरादाबाद में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। वह अपने सात भाइयों सबसे छोटे थे और उनका दाहिना हाथ जन्म से ही नहीं था।