×

आखिर किस चिड़िया का ना है आजादी, जो लोग आज भी हैं नाखुश व असंतुष्ट

By
Published on: 11 Aug 2017 4:02 PM IST
आखिर किस चिड़िया का ना है आजादी, जो लोग आज भी हैं नाखुश व असंतुष्ट
X

किशोर कुमार

लखनऊ: आजादी के इन सात दशकों में आज भी देश के कुछ तथाकथित स्वदेशी लोग इस बात से खासे नाखुश अथवा असंतुष्ट दिखाई पड़ते हैं कि इस देश में आजादी नाम की कोई चिडिय़ा कहीं उड़ती हुई उन्हें नहीं दिखलाई पड़ती। घूमने-फिरने, पहनने-ओढऩे से लेकर नामुराद स्वच्छता अभियान चलाकर सडक़ पर अथवा सार्वजनिक स्थल पर थूकने, कोने में खड़े होकर लघु शंका करने अथवा खुले में शौच करने तक की आज़ादी उन्हें अब छिनती नजर आती है।

बात कुछ पुरानी होकर भी कभी पुरानी न होने वाली है। उस वक्त दिल्ली में आज की तरह फैंसी व यात्रियों को देख-देखकर खुलने-बंद होने वाले दरवाजों वाली रंग-बिरंगी सरकारी बसें नहीं होती थीं। बेशक उनमें दरवाज़ा होता था पर वह प्राय: सुबह खुलता तो देर रात सोने के समय ही बंद होता था। बसें भी तब दिल्ली की सडक़ों पर आज़ाद परिंदे की भांति गुलाचें भरती अक्सर ड्राइवर तथा कंडक्टर की नापसंद के स्टॉप लांघते हुए ही आगे बढ़ती थीं।

ड्राइवर, कंडक्टर की मर्जी के स्टॉप पर रुकने या नाममर्जी के स्टाप पर न रुकने की यह उनकी अपनी आज़ादी थी। उन चलती बसों के युग में एक बार मेरी आंखों के सामने एक सज्जन के पिछले दरवाज़े से बस में चढ़ते और दूसरे के उतरते समय पान की पीकों का ऐसा मनोहारी आदान प्रदान हुआ कि मेरे कपड़े भी उन छीटों में नहाने से बच नहीं पाए।

भारतीय सडक़ें चाहे शाहजहां के नाम की हों अथवा बापू के नाम की, उन पर पैदल चलते समय अक्सर आगे वाले पर ज़्यादा फोकस करके रखना पड़ता है। पता नहीं कौन कब बिना पीछे वाले को देखे पान पराग, पान बहार या पान गुलकंद का तडक़ा उस पर उड़ेलकर उसका चोला बसंती रंग में रंग दे।

आगे की स्लाइड में पढ़ें आगे का लेख

और यह भी कि संभ्रान्त लोगों की किसी गगनचुंबी कालोनी से गुजऱते वक्त किसके घर का रंग-बिरंगा कूड़ा किसके सिर की राजनीतिक टोपी बन जाये, कुछ पता नहीं। सुना है अब ये निगोड़ी सरकार ऐसे थूका फज़ीहत करने वालों और कूड़ाबाजों पर ज़ुर्माना ठोक कर उनकी इस मौलिक आज़ादी का भी जनाजा निकालने की तैयारी में है। पिछले दिनों मेरे मोहल्ले के एक संभ्रान्त गुंडे को भी सरकार के खिलाफ आग उगलते देखा गया।

वह सरकार को कोसते हुए चिल्ला रहा था, ‘अच्छे दिन और सबके लिये संपूर्ण आज़ादी के झांसे में आकर वोट तो मेरी बिरादरी वालों ने भी इन्हें ही दिया था, हमें क्या पता था कि अच्छे दिन और आज़ादी के सपने तो बस औरों के लिये ही थे, हमारे लिये तो एकदम जुमले जैसे ही।’ मोहल्ले के एक भिखारी ने भी पुलिस द्वारा बीच चौराहे पर कार के आगे लेटकर भीख मांगने पर खदेड़े जाने पर अपनी आज़ादी को लेकर पिछले दिनों यही सवाल उठाए थे।

मेरे एक प्राइवेट मित्र आजकल सरकार को इसलिये कोसते नजर आते हैं क्योंकि उसकी मेहरबानी से ही उनकी आज़ादी आज तार-तार होकर रह गई है। पहले महाशय आज़ाद परिंदे की भांति उड़ते हुए कार्यालय पहुंचते थे और उसी उड़ान से चाहे जब ऑफिस से बाहर निकल आते परन्तु अब वे अपना अंगूठा लिये सुबह-शाम ऑफिस समय के पहले और बाद में भी अटेंडेंस मशीन की आरती उतारते नजऱ आते हैं।

आगे की स्लाइड में पढ़ें इस लेख का शेष अंश

मेरे वह प्राइवेट मित्र ही नहीं घंटों का मोल न समझने वाले अनेक काम के काज़ी लोग आज 6 बजने के इंतज़ार में मशीन के आगे एक-एक सेकेंड का हिसाब रखे पूरी मुस्तैदी से खड़े नजऱ आते हैं। पिछले दिनों चोर और अपराधी प्रकृति के लोगों के रंग में रंगे मेरे एक दूर के पड़ोसी बुरेलाल मुझसे सवाल कर बैठे कि हर समय आज़ादी का ढोल-मजीरा पीटते रहते हो तो जऱा सोचकर बताओ कि आज़ादी आखिर है किस चिडिय़ा का नाम? यदि इस देश में कोई अपने मन मुताबिक ऑफिस न जा सके, कोई किसी रसूखदार को मन-पसंद गाली न दे सके, आज़ाद दिल कोई व्यक्ति सडक़ पर नंग-धड़ंग घूम-फिर न सकें, देर रात पब या बार की शोभा न बढा़ सके।

खुले आम पार्क या बीच राह रोमांस न कर सके, रिश्वतखोर या भ्रष्टाचारी को रिश्वत लेते या भ्रष्टाचार करते हुए भय या शर्म हो, किसी रईसजादे का मन देर रात सडक़ों पर घूमती किसी दुस्साहसी बच्ची को छेडऩे का हो तो पुलिस का क्रूर चेहरा उसकी आंखों के सामने तैर जाए या उसे ऐसी कोई गलती करने की आज़ादी तक न हो, इश्क में नाकाम प्रेमी अपनी बेवफा प्रेमिका पर तेज़ाब तक न फेंक सके, तो तुम किस आज़ादी की बात करते हो? क्या आज़ादी केवल बचे रह गये मुट्ठी भर बेवकूफ और तथाकथित शरीफ़ तथा संभ्रान्त रह गए लोगों के लिए ही है। जो लोग बहु संख्या में हैं, उनके लिये आज़ादी के क्या कोई मायने ही नहीं?

उन्होंने आज़ादी के पवित्र मार्ग पर पंगा पैदा करने वाले और भी बहुत से कारण गिनाये। उनकी बातें सुनते-सुनते अचानक मुझे भी अपनी आज़ादी की चिंता हो आई थी। एक बारगी उनकी बातों से मुझे अपना दिमाग भी फिरता हुआ नजऱ आया, सच में मुझे भी लगा कि इस देश में सरकार प्राय: केवल अल्पसंख्यकों के प्रति ही नम्र रुख अपनाती है या उन्हीं के बारे में सोचती है। जबकि वोट तो उसे बहुसंख्यक भी देते ही हैं, अपनी-अपनी आज़ादी के लिये। चाहे वो कोई भी हों। आखिर आज़ादी तो सबको ही प्यारी है न?

Next Story