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इस गांव में रहते हैं सिर्फ अनाथ बच्चे, मगर हर बच्चे का है अपना घर
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Priyanka Tiwari
वाराणसीः आपने बहुत से गांव के नाम सुने होंगे या देखे होंगे। उनमें पिछड़ा गांव सुना होगा, आदर्श गांव देखा होगा लेकिन आज हम आपको ऐसे गांव के बारे में बताएंगे, जहां की सुविधा देखकर आदर्श ग्राम भी शरमा जाए। इस गांव का नाम बाल ग्राम रखा गया है, यहां सिर्फ वो बच्चे रहते हैं, जिन्हें हम अनाथ के नाम से जानते हैं।
हरमन माइनर ने बनाया ये कॉन्सेप्ट
कई दशक पहले विश्व प्रसिद्ध समाजसेवी हरमन माइनर के दिमाग में ये कॉन्सेप्ट आया कि क्यों न कुछ ऐसा किया जाए जिससे अनाथ बच्चों को घर के साथ-साथ मां का प्यार भी मिले। हरमन माइनर भी अनाथ थे, लेकिन उनकी बहन ने उन्हें अपनी पीठ पर बैठाकर पाला और बड़ा किया। ऐसे में हरमन माइनर ने अनाथ जीवन को बड़े ही करीब से देखा। उनके अनुभव ने अंदर से उन्हें झकझोर दिया। इस कॉन्सेप्ट में अनाथ बच्चों को मां का प्यार और उन माताओं को बच्चों का प्यार मिलता है जिनका कोई नहीं है।
नीचे की स्लाइड्स में पढ़िए बाल ग्राम के बारे में...
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एनजीओ के माध्यम से चलता है यह गांव
हम जब अनाथ बच्चों के बारे में सोचते है तो हमें अनाथालय की याद जरूर आती है लेकिन हम आपको अनाथालय की नहीं बल्कि अनाथ बच्चों के गांव के बारे में बता रहे हैं, जहां सिर्फ अनाथ बच्चे रहते हैं। वाराणसी से 30 किमी दूर चौबेपुर गांव में बसा है बाल ग्राम, इसे एक एनजीओ के माध्यम से चलाया जाता है। इस गांव में पुरे पांच मोहल्ले है जहां 18 परिवार हैं, लेकिन फर्क सिर्फ इतना है कि ये बच्चों का गांव है और इसपर अधिकार भी बच्चों का ही है। हर घर में बच्चे हैं और उन्हें प्यार करने वाली मां भी हैं। हालांकि यहां के हर घर में एक मां है और इस मां के अंडर में 10 बच्चे, जिनकी पूरी जिम्मेदारी उस मां की होती है।
कहां से आए ये बच्चे?
डायरेक्टर मनोज मिश्रा ने newztrack.com को बताया कि ये वह अनाथ बच्चे हैं जो सड़कों पर भीख मांगते हैं और कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जिनको जन्म के समय ही फेंक दिया जाता है। हम उन बच्चों को लेकर आते हैं और उन्हें अच्छी परवरिश देने की एक छोटी सी कोशिश कर रहें है।
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194 बच्चों की हो चुकी है परवरिश
यहां पर अब तक 194 बच्चों की परवरिश हो चुकी है, जो आज अपने फिल्ड में कहीं न कहीं नौकरी कर रहे है। कोई विदेश में तो कोई देश में कमा रहा है। यहां बच्चों को कम से कम 12वीं तक की शिक्षा अनिवार्य होती है, जो बच्चे पढ़ने में तेज होते हैं फिर उन्हें कालेज की शिक्षा दी जाती है।
इस गांव में अपना बचपन बिता चुकी सोनल और सोनाली जो इसी गांव से पढ़ी लिखी हैं। सोनल ने अपनी ग्रेजुशन कम्प्लीट की तो सोनाली अपनी ग्रेजुएशन में हैं। आजकल अपने घर यानि यहां छुट्टियों में आई हुई हैं। ये यहां जब भी आती हैं, यहां के बच्चों को संगीत से लेकर कंप्यूटर तक सिखाती है। सोनम और सोनाली उस वक्त यहां आई थीं, जब उन्हें ये भी नहीं पता था की उनका कौन है पर आज दोनों इस गांव को ही अपना सबकुछ मानती है उनका कहना है कि यहां वो सब कुछ मिलता है जो एक सामान्य घर में भी नहीं मिल सकता।
रोज सुबह बच्चे करते हैं यहां योग
यहां हर घर में 3 कमरे, किचेन और अटैच टॉयलेट दिया गया है, रोज सुबह बच्चे पहले योग करते हैं फिर स्कूल जाते हैं, यहां बच्चे अपने अपने घरों में जाकर मां के बने हाथों का खाना खाते हैं। वाकई ये एक ऐसा गांव है जिसने अनाथालय जैसी सुविधाओं की परिभाषा ही बदल दी है, जिसे आप चाहकर भी अनाथालय नहीं कह पाएंगे और शायद इसीलिए इसे बालग्राम या चिल्ड्रन विलेज कहते हैं।
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बेसहारा महिलाओं को मिला परिवार
इस गांव ने उन महिलाओं को जो अपने जीवन में किसी न किसी दुर्घटना के कारण बेसहारा हो गई उन्हें वो उपाधि दी जिसे हम मां के नाम से जानते है। यहां हर घर में 10 बच्चे रहते हैं और इन बच्चों को मां का प्यार कैसे मिले यह समस्या संस्थान के सामने थी, तो इस संस्थान ने ऐसी महिलाओं को तलाश किया जिनका कोई न हो। जो समाज में किसी दुर्घटना की शिकार हुई हो, जिन्हें प्यार की जरुरत हो। ऐसी 32 महिलाओं को तलाश कर इन बच्चों के पास लाया गया और इनको नाम दिया गया यशोदा जो इन बच्चों को अपना नाम दें।
क्या कहती हैं मां प्रमिला?
वह यहां 32 साल से रह रही है और अब तक लगभग 40 बच्चों का पालन पोषण कर उन्हें उनके पैरों पर खड़ा कर चुकी है। प्रमिला वाराणसी की ही रहने वाली हैं और यहीं के काशी विद्यापीठ से शिक्षा प्राप्त की है। प्रमिला को सफेद दाग है, जिसकी वजह से उनकी शादी में दिक्कतें आ रहीं थी। ऐसे में प्रमिला ने यहां आने का फैसला किया।
तब से प्रमिला यहां बच्चों का पालन पोषण करती है उसी तरह जैसे एक मां अपने बच्चों का करती है, प्रमिला रोज सुबह अपने बच्चों को तैयार करती है और स्कूल से आने के बाद अपने हाथों से खाना बनाकर उन्हें खिलाती है। सिर्फ प्रमिला ही नहीं बल्कि यहां रहने वाली हर मां की कहानी कुछ इसी तरह है, इन्ही में से एक और है कलावाती जिन्होंने अपने पति के डेथ के बाद अपना जीवन इन बच्चों के नाम कर दिया।
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मिल रहा है अनाथ बच्चों को परिवार
ये बच्चे अपने घर के अंदर रहते हैं और इन्हें एक परिवार का एहसास होता है, जिसमें मां बच्चों के साथ रहती हैं जबकि डायरेक्टर पिता तुल्य हैं। इस तरह से इन अनाथ और बेसहारा बच्चों को एक परिवार मिल जाता है।
बनाई गई है कमेटी
घर के बगल में जो घर होता है वो पड़ोसी या रिश्तेदार का घर कहलाता है और उस घर की मुखिया मौसी या बुआ कही जाती हैं। हर मोहल्ले में चौपाल भी लगाया जाता है। इसके लिए बकायदा जगह सुनिश्चित है। जिस तरह हर गांव का मुखिया ग्राम प्रधान होता है ठीक उसी तरह यहां भी सभी माताओं की एक हेड होती हैं और एक कमेटी होती है, जिसमें एक मां ,डायरेक्टर, एक बच्चा और एक स्टाफ होते है। इस कमेटी का काम गांव के हर एक्टिविटी को नियंत्रण करना होता है। इस तरह से अनाथ बच्चों को परिवार ,रिश्तेदार और समाज भी मिल जाते हैं।
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कहते हैं इन्हें जरूरतमंद
इन अनाथ बच्चों का पूरा ख्याल रखा जाता है चाहे वो फिजिकल हो या मेंटल इन्हें ये महसूस नहीं होने दिया जाता कि ये अनाथ हैं, इसीलिए यहां इन्हें अनाथ न कहकर जरूरतमंद का नाम दिया गया है। इन बच्चों को मीनू के हिसाब से खाने में प्रॉपर सारी चीजें दी जाती हैं।
बच्चों को दी जाती है अच्छी शिक्षा
बच्चों को 25 साल की उम्र तक पढ़ाई की जिम्मेदारी भी संस्था की होती है। बच्चे जिस क्षेत्र में शिक्षा चाहे उन्हें दिया जाता है। कम्पीटिशन की तैयारी भी बच्चे यहां करते हैं। इनके लिए बकायदा गांव में खेलने कूदने के लिए मैदान, योगा की सुविधा, पेंटिंग, डांसिंग और अन्य टेक्निकल चीज़ें भी सिखाई जाती हैं। यहां के बच्चे अन्य जगहों पर कम्पीटिशन भी देते हैं और अव्वल भी आते हैं। कोई कह नहीं सकता कि ये बच्चे अनाथ हैं क्योंकि इनका परिवेश और इनका अनुशासन सभी पर भारी पड़ता है।
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