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WORLD BOOKS DAY: खो सी रही है किताबों की दुनिया, जहां ढूंढता था हर कोई अपनी छोटी-छोटी खुशियां

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Published on: 23 April 2017 11:44 AM IST
WORLD BOOKS DAY: खो सी रही है किताबों की दुनिया, जहां ढूंढता था हर कोई अपनी छोटी-छोटी खुशियां
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world book day

लखनऊ: वो हसरत भर निगाहों से अपने चाहने वालों का इंतजार करती हैं। उनके दिल की तमन्‍ना है कि कोई आए और उन्‍हें अपने हाथों में समेट ले। वह भी चाहती हैं कि कोई तो फिर ऐसी दीवानगी दिखाए कि उनके साये में उसकी सुबह से शाम हो जाए। वह महसूस करना चाहती हैं प्‍यार की उस सिहरन को, जिनसे एक जमाने में उनकी मोहब्‍बत में डूबे आशिक उन्‍हें छुआ करते थे। अलमारियों के शीशों में बंद किताबें अपनी खामोशी को शायद इसी तरह से बयान करना चाहती हैं पर कुछ कह नहीं पाती। उन्‍हें तो बस अपने गुजरे जमाने के वो आशिक याद आते हैं, जो उन्‍हें पढ़ते-पढ़ते अपने सीने पर सुलाकर खुद भी सो जाया करते थे।

अभी जब मैं एक दिन किताबों की दुनिया में मतलब लाइब्रेरी गई, तो देखा न जाने कितनी सारी किताबें मुझे अपनी ओर बुला रही थी। मानों हर कोई अपनी बातें मुझसे शेयर करना चाह रही थी। वहां मौजूद हर किताब जिन हसरतों से मुझे देख रही थी, ऐसा लग रहा था कि मानों उनसे कई सालों बाद उनका कोई बिछड़ा मिलने के लिए आया हो। साहित्‍य, पौराणिक कथाएं, कॉमिक्‍स, शायरियां, गजल, कविताएं और न जाने किस किस तरह की किताबें मुझे पाठक देखकर ऐसे खिलखिला उठी, जैसे कि बगीचे में खिलता हुआ गुलाब मुस्‍कुराता है।

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कहते हैं कि किताबें इंसानों की सबसे अच्‍छी दोस्‍त होती हैं। सच्‍चे से सच्‍चा मित्र भी कभी न कभी आपसे नाराज हो सकता है, लेकिन किताबें कभी नाराज नहीं हो सकती हैं। इन्‍हें पढ़ने न केवल सुकून मिलता है। न जाने कितनी परेशानियां सॉल्‍व हो जाती हैं। एक हारे हुए इंसान में हिम्‍मत और उत्‍साह भरती हैं। जीने का सलीका सीखना हो, तो किताबों से अच्‍छा कोई नहीं सिखा सकता। जब एक बच्‍चा खेलने की बात करता है, तब हम भले ही उसे मोबाइल या लैपटाप पर गेम खिलाते हैं।

लेकिन जब भी पहली बार पढ़ने की बात आती है, तो सबसे पहले उस किताब ही दी जाती है। वो किताबें ही होती हें, जो किसी भी बच्‍चे की शिक्षा का पहला कदम बड़ी ही ईमानदारी से निभाती हैं। वो पल परिवार के हर सदस्‍य की आंखों में बस जाता है, जब एक बच्‍चा अपने हाथों में वो एक किताब लेकर उनके पास दौड़कर जाता है और उनसे कहता है कि मम्‍मा मम्‍मा ए फॉर एप्‍पल। 23 अप्रैल को वर्ल्‍ड बुक्‍स डे के मौके पर जानते हैं किताबों के बारे में –

हर तरह से किताबें हैं साथी

अगर कभी भी आप खुद को अकेला महसूस कर रहे हों, तो किताबों के पास जाइए। उनके अंदर भरा ज्ञान का भंडार, उसमें भरी जानकारियां चुटकी में आपके अकेलेपन को दूर कर देगीं। एकबार किताबों की दुनिया में जाने के बाद आपका मन लौटने का नहीं होगा। किताबें लोगों को उनकी मंजिल तक पहुंचाती हैं। लोक कथाएं, प्रेम कहानियां, इतिहास, विज्ञान, स्‍वास्‍थ्‍य, कॉमिक्‍स या फिर किसी भी तरह की किताबें हों, हर तरह से इंसानों को मनोरंजन करने के साथ-साथ ज्ञान बढ़ाती आ रही हैं। जब एक इंसान जिंदगी से हताश हो जाता है, तो प्रेरणा से भरी किताबें पढ़कर उसके अंदर जाने की ललक पैदा हो जाती है।

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भटकते थे किताबों के लिए: बताया जाता है कि पहले जमाने में किताबें इंसानों की सबसे खास दोस्‍त हुआ करती थी। शायद ही कोई ऐसा होता था, जिनके हाथ में किताब न दिखती हों। चाहे वो कॉलेज जाते हुए सलमा के दुपट्टे से ढकी होती थी या फिर मोहल्‍ले के नुक्‍कड़ पर बैठे चाय पीते चार दोस्‍तों की साइकिल की केरियल में लगी मुंशी प्रेमचंद की कहानी होती थी।

काकोरी में रहने वाले गोमती यादव जिनका अपना निजी इंटरमीडियट तक स्‍कूल है का कहना है कि वह अक्‍सर बचपन में जब लखनऊ आते थे, तो कैसरबाग स्थित अमीरूद्दौला लाइब्रेरी में किताबें पढ़ने जरूर जाते थे। लेकिन कभी-कभी इतने ज्‍यादा लोग किताबें पढ़ने आ जाते थे कि उन्‍हें दो-दो दिन तक मनपसंद किताब पढ़ने के लिए रूकना पड़ता था। सीटें भरने पर जमीन में बैठ कर पढ़ना पड़ता था।

खत्‍म हो गया किताबों वाला प्‍यार: 'अब के बिछुड़े हम शायद ख्‍वाबों में मिले, जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिले'। एक समय था, जब किसी लड़के को कोई लड़की अगर किताब वापस करती थी, तो वो उसका एक एक पेज खोलकर पढ़ता था। वो इसलिए कि कहीं उसने कोई लेटर तो नहीं रखा। अगर किसी लड़की की किताब गिर जाती थी, तो एक साथ कई लड़के उठाने के लिए दौड़ पड़ते थे और फिर शुरू होता था किताबों वाला प्‍यार।

तब लोग आपस में कम और किताब में लेटर के जरिए ज्‍यादा बात करते थे। किताब में मिलने वाले गुलाब उनकी प्रेम कहानी के साक्षी होते थे। पर आजकल न लोग ज्‍यादा किताबें पढ़ते हैं और न ही प्‍यार की निशानियां गुलाब की पत्तियां मिलती हैं। आजकल तो बस एक रिक्‍वेस्‍ट भेजो, कल प्‍यार हो जाएगा और परसों ब्रेकअप भी हो जाता है। वो किताबों के प्‍यार का दौर ही और था, जब लोग सफल भी होते थे।

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स्‍क्रीन रीडिंग ने बढ़ाया किताबों के वजूद पर खतरा

जब से डिजिटलाइजेशन हुआ है, तब से लगता है बुक रीडर्स और बुक्‍स के प्‍यार को नजर सी लग गई है। कल तक जहां हम किसी भी चीज का जवाब ढूंढने के लिए अपने बड़ों के पास दौड़ते थे और उनसे भी जवाब न मिलने पर किताबों के दुनिया में घुस जाते थे और एक-एक किताब के पन्‍ने को खंगालते थे। इससे न केवल हमारे जवाब मिलते थे, किताबों को भी उनकी अहमियत जानकर खुशी होती थी। पर आज हम छोटी से छोटी चीज का जवाब ढूंढने के लिए सीधे गूगल बाबा की शरण में चले जाते हैं। ई रीडिंग की वजह से न केवल किताबों को पढ़ना कम कर दिया है बल्कि लाइब्रेरी जाना ही भूल गए हैं।

अगर किसी के हाथ में किताब दिख भी जाती है, तो लोग उनका मजाक उड़ाकर कहते हैं कि गूगल के जमाने में भी किताब। शायद इसी वजह से लोगों की याद करने की शक्ति कम होती जा रही है। कॉलेजेस में स्‍टूडेंट्स किताबों पर ध्‍यान देने के बजाय टीचर्स के लेक्‍चर को मोबाइल में रिकॉर्ड करते नजर आते हैं। स्‍क्रीन रीडिंग की वजह से आज कई लाइब्रेरी में किताबें धूल फांक रही हैं।



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