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Vanaras : धंधा है पर मंदा है
आशुतोष सिंह
वाराणसी : कारोबार की दृष्टि से महत्वपूर्ण पूर्वांचल में मंदी तेजी से पैर पसार रही है। खासतौर से बनारसी साड़ी और कालीन का कारोबार सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहा है। कारोबार लगभग ठप सा पड़ा है। गोदामों में माल बनकर तैयार है, लेकिन पूछने वाला कोई नहीं। निर्यातकों से ऑर्डर मिलने बंद हो गए हैं। जानकार बता रहे हैं कि साड़ी और कालीन उद्योग का कारोबार अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है। अगर यही हालात रहे तो आने वाले दिनों में लाखों की तादाद में बुनकर सड़कों पर आ जाएंगे।
ओमप्रकाश पांडेय की कचौड़ी गली में साड़ी की होलसेल की दुकान है। मंदी का जिक्र छेड़ते ही ओमप्रकाश गुस्से से लाल हो उठते हैं। अपना दर्द बयां करते हुए कहते हैं कि सितंबर से मार्च तक का महीना बनारस साड़ी के लिए पीक सीजन माना जाता है। त्योहारों का सीजन शुरू हो चुका है, लेकिन दुकानों से ग्राहक गायब हैं। वे कहते हैं कि दो साल पहले सितंबर के महीने में हम लोगों के पास फुर्सत नहीं रहती थी, लेकिन आज का दौर ऐसा है कि सुबह से शाम हम लोग गप मारकर बिताते हैं। यह हाल सिर्फ ओमप्रकाश पांडेय का नहीं है। उनकी तरह बनारसी साड़ी से जुड़े हजारों कारोबारी मंदी की मार से बेजार पड़े हैं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि इस दौर से कैसे निकला जाए?
ऐसा नहीं है कि हाल के सालों में बनारसी साड़ी का उद्योग बहुत आगे था, लेकिन यह सच है कि टीवी सीरियल में साड़ी के बढ़ते क्रेज से बनारसी साड़ी की डिमांड बढ़ी थी। कारोबार फिर से रफ्तार पकडऩे लगा था, लेकिन नोटबंदी और जीएसटी ने साड़ी उद्योग से जुड़े बुनकरों और कारोबारियों के अरमानों पर पानी फेर दिया और अंत में मंदी ने पूरे उद्योग पर ही ग्रहण लगा दिया है।
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भरे हैं गोदाम, लेकिन नहीं है खरीददार
बनारस के कई इलाकों में बनारसी साड़ी बनाने का काम होता है। हैंडलूम के साथ-साथ अब बड़े पैमाने पर पावरलूम के जरिए साडिय़ां तैयार होती हैं। यहां की बनी साडिय़ों की दक्षिण भारत और अरब के देशों में खूब डिमांड हैं। बनारसी साड़ी का क्रेज क्या है, इसे आप यूं समझिए कि अनुष्का शर्मा और ऐश्वर्या राय जैसी अभिनेत्रियां भी अपनी शादी में इसे पहन चुकी हैं। सालों तक साड़ी उद्योग में बनारस का दबदबा रहा, लेकिन सूरत की साडिय़ों और चाइना रेशम की वजह से बनारसी साड़ी का बाजार पिछड़ गया। बावजूद इसके अभी भी बनारस में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर इस कारोबार से लगभग दो लाख जुड़े हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो लगभग आठ लाख लोगों की रोजी-रोटी का जुगाड़ साड़ी उद्योग से होता है, लेकिन हाल के महीनों में आई मंदी से बुनकर परेशान हैं। उन्हें 1991 की आर्थिक मंदी की याद आने लगी है, जब शहर के अधिकांश करघे बंद हो गए थे।
जानकारों के मुताबिक मंदी की वजह से बायर्स ऑर्डर कैंसिल कर रहे हैं। मतलब साड़ी के बड़े खरीददार अब रुचि नहीं ले रहे हैं। लिहाजा दुकानों में खरीदने वालों का टोटा है। बढ़ती बेरोजगारी और महंगे दाम के चलते स्थानीय लोग भी साड़ी नहीं खरीद रहे हैं। लिहाजा गोदाम साडिय़ों से भरे पड़े हैं। बॉयर और बाजार के हालात को देख कारोबारी बेचैन हैं। उनके पास कारीगरों को देने के लिए मेहनताना नहीं है क्योंकि जब तक व्यापार नहीं बढ़ेगा तब तक बाजार में पैसा नहीं आएगा। जानकार इसके लिए सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। मकबूल हसन कहते हैं कि अगर बुनकर को जीएसटी से अलग नहीं किया गया तो परेशानी बनी रहेगी। हम लोगों ने नोटबंदी से जैसे-तैसे लड़ लिया, लेकिन जीएसटी ने पूरे व्यापार की कमर तोड़ दी है। हैंडलूम को लेकर बहुत क्लियर पॉलिसी बननी चाहिए। हैंडलूम इंडस्ट्री को ग्रीन उद्योग का दर्जा दिया जाना चाहिए। साड़ी उद्योग के लिए काफी मात्रा में कच्चे माल की जरुरत होती है। ऐसे में बुनकरों के लिए कच्चा माल खरीदना सबसे बड़ी समस्या होती है। बुनकरों की लंबे समय से मांग रही है कि कच्चा माल खरीदने के लिए उन्हें सस्ते दर पर लोन दिया जाए, ताकि उनका व्यापार आगे बढ़ सके।
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फीकी पड़ी खिलौना उद्योग की चमक
बनारस में बनारस साड़ी के अलावा यहां बने लकड़ी के खिलौनों की बहुत डिमांड रहती है। ये रंग-बिरंगे खिलौने किसी को भी आकर्षित कर सकते हैं। लेकिन मंदी के इस दौर में खिलौना उद्योग भी बेजार पड़ा हुआ है। बाजार की सुस्ती ने इसे बनाने वाले कारीगरों के सामने बेरोजगारी का संकट खड़ा कर दिया है। मोदी सरकार बनने के बाद इससे जुड़े लोगों को कुछ सहूलियत की उम्मीद थी, लेकिन वक्त के साथ अब वो भी धुंधली होती जा रही है। कारीगरों के मुताबिक बाजार में मंदी की वजह से कच्चे माल का भाव आसमान छूने लगा है। चाहे लकड़ी हो या फिर रंग, दोनों के दामों में इजाफे की वजह से कारोबार पर असर पड़ रहा है। अगर कर्ज लेकर कच्चा माल खरीदते भी हैं तो इस बात की गारंटी नहीं है कि बना माल मार्केट में समय से बिक जाएगा। फिलहाल जिस तरह से बाजार की रफ्तार है, उससे कारीगरों के होश उड़े हुए हैं। कभी इस उद्योग के भरोसे एक बड़ी आबादी की रोजी-रोटी चलती थी, लेकिन इसका दायरा सिमटता जा रहा है। आज महज ढाई से तीन हजार कारीगर ही इस व्यवसाय से जुड़े हैं। शहर की कश्मीरीगंज, खोजवां, भेलूपुर, सरायनंदन की गलियां खिलौना उद्योग के कारखानों से हमेशा आबाद रहती थीं, लेकिन अब यहां सन्नाटा पसरा रहता है।
मंदी की मार से कराह रहा कालीन उद्योग
मंदी की मार से पूर्वांचल का कालीन उद्योग भी कराह रहा है। कारपेट सिटी यानी भदोही में बुनकरों का धंधा मंदा पड़ चुका है। अगर सरकार ने समय रहते कालीन निर्यातकों की मदद नहीं की तो बुनकरों की बड़ी आबादी बेरोजगार हो जाएगी। सिर्फ भदोही ही क्यों, मिर्जापुर और जौनपुर में बड़े पैमाने पर मंदी नजर आ रही है। देशभर में छाई मंदी ने इस उद्योग को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। कारपेट इंडस्ट्री के ऑर्डर में कमी आई है। बॉयर ऑर्डर कैंसिल कर रहे हैं। इंडस्ट्री से जुड़े लोग बता रहे हैं कि विदेशी बाजारों से भदोही के कालीन उद्योग को मिलने वाले ऑर्डर में कमी आई है। इसका सीधा असर बुनकरों पर पड़ रहा है। अगर यही हालात रहे तो बुनकरों को रोजी-रोटी के लिए दूसरे प्रदेशों में पलायन करना पड़ेगा। बीते साल भदोही से लगभग 6 हजार करोड़ रुपए का कालीन खाड़ी देशों के अलावा भारत के दूसरे राज्यों में निर्यात हुआ था, लेकिन इस साल हालात बेहद खराब हैं। गोदामों में कालीन बनकर तैयार हैं, लेकिन उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है। बायर कालीन में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं।
कालीन उद्योग को ऑक्सीजन की जरुरत
कालीन विशेषज्ञ सलीम अहमद कुरेशी के अनुसार गलीचे के मार्केट में पहले की अपेक्षाकृत भारी गिरावट देखने को मिल रहा है। भले मोदी सरकार ने बुनकरों को तमाम सुविधाएं मुहैया कराई हो, लेकिन 1982 से लेकर 2008 को वो दौर फिर हासिल नहीं हो पाया। पहले कालीन का इंपोर्ट लाइसेंस, कैश इंसेंटिव,ड्रा बैंक इन सब की पूरी सुविधाएं मुहैया कराई जाती थीं, लेकिन मोदी सरकार ने ड्रॉ बैंक को बढ़ाकर कैश इंसेंटिव खत्म कर दिया। वर्तमान समय में गलीचे में लूम का काम कालीन नगरी मे तेजी से खत्म हो रहा है जिसे पर्शियन कारपेट कहते हैं। अब यहां पर सिर्फ हैंडलूम और टफ्टेड जो कि कपड़े पर मशीनों से बुनाई की जाती है, यही देखने को मिलता है। यह अन्य देशों के अपेक्षाकृत जैसे नेपाल व पाकिस्तान इत्यादि से भारत का गलीचा महंगा है जिससे खरीदारों में काफी गिरावट देखने को मिल रही है। ऐसे में बुनकर अब सरकार से उम्मीद लगाए बैठे हैं।
कुछ साल पहले भी इस तरह के हालात बने थे। तब सरकार ने कारपेट इंडस्ट्री की मदद की थी और इस बार भी उद्योग सरकार की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है। कालीन निर्यातकों को अब बनारस में लगने वाले इंटरनेशनल कारपेट एक्सपो से उम्मीद है। हालांकि यहां से भी जो खबरें आ रही हैं, वो राहत देने वाली नहीं हैं। खबरों के मुताबिक पिछले सालों के मुताबिक कारपेट एक्सपो में पहुंचने वाले बायर की संख्या आधी रह सकती है। अभी तक सिर्फ ढाई सौ ही बायर ने कारपेट एक्सपो में शामिल होने की हामी भरी है। जबकि कुछ साल पहले तक यह संख्या हजार के पार होती थी।
क्या कहते हैं व्यापारी
व्यापार पूरी तरह चौपट हो गया है। नोटबंदी के बाद मार्केट कुछ संभला तो जीएसटी ने चोट पहुंचाई और अब मंदी ने पूरे बाजार को ही अपने कब्जे में ले लिया है। अगर यही हालात रहे तो बुनकरों के साथ बेरोजगारी का संकट आ जाएगा।
रामजी यादव, साड़ी व्यापारी
पहले कस्टमर दुकान पर आता था तो एक-दो साडिय़ां अधिक ले लेता था, लेकिन अब ये हालात नहीं हैं। केंद्र सरकार उद्योग को बचाने के लिए प्रयास कर रही है, लेकिन ये प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा की तरह है। जब संतोष गंगवार मंत्री थे तो उन्होंने देश के प्रतिष्ठित डिजाइनरों को बुलाया था, लेकिन अब तो मंत्री ही बदल दिए गए।
राजन बहल, महामंत्री, बनारस वस्त्र उद्योग
मंदी के इस दौर में हमारी आय 70 फीसदी घट गई है। सीजन शुरू हो चुका है। फिर भी बाजार से रौनक गायब है। मंदी कुछ और नहीं बल्कि जीएसटी का साइड इफेक्ट है, जो सालभर बाद दिखने लगा है। आज अगर सरकार जीएसटी हटा ले तो देखिए मार्केट दौडऩे लगेगा।
ओमप्रकाश पांडेय, साड़ी व्यापारी
मंदी की वजह से कच्चे माल के दाम बढ़ गए हैं। प्लास्टिक के खिलौनों की वजह से धंधा वैसे ही मंदा था, अब ये और धीमा हो गया है। सिर्फ शादी के आइटम छोड़ दें तो लकड़ी के खिलौनों को पूछने वाला कोई नहीं है। उम्मीद थी कि सरकार खिलौना उद्योग के लिए कुछ करेगी, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ।
चंद्रभूषण वर्मा, लकड़ी खिलौना निर्यातक
धंधे के बारे में क्या पूछ रहे हैं। मंदी की वजह से कलर का दाम कभी सौ रुपए बढ़ जा रहा है तो कभी डेढ़ सौ रुपए। ऐसे में हमें मजबूरी में खिलौनों के दाम बढ़ाने पड़ रहे हैं, जिसकी वजह से खरीददार गायब हैं। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि कारीगरों को देने के लिए पैसे नहीं जुट पा रहे हैं।
मनोज वर्मा, लकड़ी खिलौना निर्यातक
एक नजर में बनारसी साड़ी उद्योग
- बनारस में बनारसी साड़ी का कारोबार 4000 हजार करोड़ का कारोबार है, लेकिन मंदी की वजह से फिलहाल ये 2000 हजार करोड़ में सिमट गया है।
- इस कारोबार से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से 8-10 लाख लोग जुड़े हैं।
एक नजर में कालीन उद्योग
- देशभर का 60 फीसदी कालीन भदोही में बनता है।
- पिछले साल 6 हजार करोड़ रुपए का निर्यात हुआ कालीन।
- मंदी और जीएसटी से अब तक सिर्फ 2.5 हजार करोड़ रुपए का निर्यात।
- प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से 20 लाख लोग जुड़े हैं कारोबार से।
एक नजर में खिलौना उद्योग
-दुनिया भर में प्रसिद्ध है बनारस का लकड़ी खिलौना।
-खासतौर से सुहागिनों की निशानी सिंहोरा का निर्यात होता है।
-लगभग 40 करोड़ रुपए का कारोबार होता है हर साल।
-4 हजार कारीगर कारोबार से जुड़े हैं।
-मंदी की वजह से टूटने लगा है व्यापार।