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Gorakhpur : सहमतियों और असहमतियों के बीच सार्थक शब्द संवाद

seema
Published on: 7 Feb 2020 12:02 PM IST
Gorakhpur : सहमतियों और असहमतियों के बीच सार्थक शब्द संवाद
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पूर्णिमा श्रीवास्तव

गोरखपुर: इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद गोरखपुर की अहमियत बढ़ी है। गूगल पर गोरखपुर पहले से कई गुना सर्च किया जा रहा है। सर्च इंजन में पिछले तीन वर्षों से गोरखपुर लिटरेरी फेस्ट भी खूब तलाशा जा रहा है। इसकी वजह सिर्फ इस आयोजन की सार्थकता और विविधता है। यहां मुद्दों की बात होती दिखती है, और कुछ हद तक निष्कर्ष भी निकलते दिखते हैं। सहमति के साथ ही असहमतियां भी नजर आती हैं।

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पेशे से शिक्षक दिनेश त्रिपाठी कहते हैं कि यहां गोरखपुर महोत्सव जैसी तड़क-भड़क तो नहीं है, पर संजीदगी जरूर है। यहां महोत्सव की तरह कुर्सियां खाली नहीं हैं। बल्कि, साहित्य की खुराक से उर्जा हासिल करने वाले कद्रदानों की खासी भीड़ है। जो सहमतियों और असहमतियों के बाद भी बीच कुछ न कुछ हासिल करने के लिए बेचैन दिखते हैं।

लिटरेरी फेस्ट का यह तीसरा साल था। सेंट एंड्रयूज कॉलेज के सभागार में पिछले दिनों संपन्न दो दिन का तीसरा लिटरेरी फेस्ट विभिन्न सत्रों में बंटा हुआ था। वरिष्ठ पत्रकार अजय सिंह कहते हैं कि गोरखपुर मोहत्सव तो अधिकारियों का महोत्सव बन गया था, पर लिटरेरी फेस्ट में लोगों की जीवंत सहभागिता जन महोत्सव होने की गवाही दे रहे थे। आयोजन से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार कुमार हर्ष कहते हैं कि समाज में जो कुछ हो रहा है, उसका प्रतिरूप है साहित्य। लिटरेरी फेस्ट का मंच तमाम सहमतियों और असहमतियों के बीच हर बुनियादी सवालों का सार्थक जवाब देने में कामयाब दिखता है। गोरखपुर में लिटरेरी फेस्ट को वृृहद रूप देने वालों में शामिल डॉ. संजय श्रीवास्तव कहते हैं कि हमारा प्रयास शब्द संवाद के जरिये समाज के अंदर की उथल-पुथल को मंच प्रदान करना है।

संवाद वस्तुत: शास्त्रार्थ है, और यही लोकतंत्र की शक्ति

फेस्ट के उद्घाटन सत्र में साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष प्रो. विश्वनाथ तिवारी के शब्दों ने दो दिन के फेस्ट के भविष्य की रूपरेख रख दी। प्रो. तिवारी ने कहा कि जहां संवाद खत्म होता है, वहीं से हिंसा की शुरुआत होती है। शब्द मनुष्य के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा शक्तिशाली अविष्कारों में से एक है। शब्द के बिना यह दुनिया अंधेरी दुनिया होती। संवाद के माध्यम से हम अनुमोदित हिंसा पर विराम लगा सकते हैं। प्रो. तिवारी की दलील है जो अपनी अभिव्यक्ति की समस्या को सुलझा लेता है, वही वास्तव में लेखक है। हर लेखक एक्टिविस्ट हो यह जरूरी नहीं। प्रसिद्ध उपन्यासकार एवं साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि साहियकार वे हैं जो अपनी भावों की अभिव्यक्ति को शब्दों में पिरोते हैं। डिजिटल युग में समय के बदलावों पर विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्र लेखन को पुन: प्रासंगिक बनाने की वकालत की। उन्होंने कहा कि साहित्यकारों की रचनाएं समाज के नाम प्रेमपत्र हैं। आज आवश्यकता है कि हम अपनी भावनाओं को पुरानी शैली में, शब्दों में लिखकर व्यक्त करें। उन्होंने विनोदपूर्ण उदाहरणों को देते हुए कहा कि आज हमें परस्पर संवाद में प्रेमपत्र की परंपरा को पुनर्जीवित करना होगा क्योंकि पत्र लिखने से ही साहित्य लिखने के प्रयास की शुरुआत होती है।

दुश्मन भी अच्छा लिखे तो उसकी तारीफ करें

साहित्यिक संवाद में कहानियों में स्त्री विमर्श पर चर्चा करते हुए मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि आज के समय में स्त्री विमर्श केवल किताबों के पन्नों में सीमित औपचारिकता सा मालूम पड़ता हैं। चर्चा को आगे बढाते हुए पंकज मित्र ने कहा कि कहानियों में गुरु शिष्य परम्परा भी भेदभाव का शिकार हो गई है, और इसमें भी भाई-भतीजावाद, बाजारवाद और पक्षपात जैसे गुण आलोचना की दृष्टि से चिंता का विषय बन गए हैं। मैत्रेयी पुष्पा ने चर्चा के दौरान अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि कहानी और साहित्यिक रचनाओं की गुरु-शिष्य परम्परा में अगर स्त्री और पुरुष परस्पर संबंधित हों तो उन्हें बदनामी का सामना करना पड़ता है जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने रचनाकारों से अपील की कि यदि कोई आपका दुश्मन भी हो लेकिन अगर वो अच्छा लिखता हो तो उसे खुले दिल से स्वीकार करें। इसी मुद्दे पर जयनन्दन ने कहा कि लेखक के पास अनुभव संपदा और लेखन की कला का होना बेहद जरूरी है। 'कहानीकार का वैचारिक व्यक्तित्व कहानी को उसका असली मुकाम देता है।

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सोशल मीडिया ने लेखकीय मिथ तो तोड़े मगर विसंगतिया पैदा कीं

मशहूर नाटककार साहित्यकार हृषिकेश सुलभ ने कहा कि कला और साहित्य का अंत: पुर बहुत ही विविध है। लेखकों के अंत: पुर में झांकना थोड़ा मुश्किल काम है। हर जगह से केवल बुराई ही नहीं मिलती अच्छाई की सम्भावना भी बनी रहती है। ममता कालिया ने यादों की पोटली खोलते हुए कई रोचक संस्मरण सुनाए। बोलीं इलाहाबाद में फकीरों के डेरे थे, हम सभी की सबसे बड़ी लग्जरी ग्रीन लेबल चाय होती थी। इलाहाबाद में दोस्त और दुश्मन अलग-अलग नही रखते थे। जो दोस्त होता था वही दुश्मन भी। नागेंद्र प्रताप अनेक संस्मरणों का उल्लेख करते हुए कहा कि सोशल मीडिया ने लेखकीय मिथ तो तोड़ा है, मगर बहुत सारी विसंगतियों को जन्म भी दिया है।

कबीर के देश में शब्दों की आध्यात्मिक यात्रा

मशहूर धारावाहिक 'चंद्रकांता' क्रूर सिंह, फिल्म 'लगान' के अर्जन जैसी बहुरंगी किरदारों वाली अपनी फिल्मी छवि से इतर अखिलेन्द्र मिश्र ने लिटफेस्ट में विलक्षण वाग्मिता का परिचय दिया। एकल व्याख्यान में अखिलेन्द्र ने शब्द की व्याख्या करते हुए कहा कि शब्द ही सृजन है। शब्द ही विध्वंस है। शब्द ही लय है, राग है। दुष्ट की दुष्टता शब्द ही है। सज्जन की सज्जनता भी शब्द ही है। शब्द ही पिंड है। शब्द के सहस्त्रों स्वरूप हैं। इन्हें खोजने, पहचानने, समझने के लिए मैं कबीर के देश में शब्दों की आध्यात्मिक यात्रा कर रहा हूं। मौजूद समय में समाज में शब्द और संवाद की महत्ता पर केंद्रित अपने व्याख्यान में अखिलेन्द्र ने इस बात पर खेद जताया कि दस लक्षण वाले देश में आज धर्मनिरपेक्षता और धर्मसापेक्षता की बहसें छिड़ी हैं। धैर्य, बुद्धि, संयम, ईमानदारी जैसे मूल्यवान शब्द गायब है।

'सिनेमा की दुनिया हमारी दुनिया से बुरी नहीं'

मशहूर फिल्म समीक्षक और पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज ने पर्दें की पीछे की दुनिया पर चर्चा की। अजय ने कहा कि सिनेमा को लेकर हमारे मन में तरह तरह की छवियां है। ज्यादातर बुरी हैं पर सिनेमा की दुनिया और सिनेमा के लोग हमारी दुनिया से ज्यादा बुरे नहीं। हमें यह परसेप्शन बदलना होगा। एक बार जैकी श्रॉफ ने मुझसे पूछा कि हमारी आलोचना करने वालों में से कितने लोग एक ही शॉट के लिए सौ बार कीचड़ में लोट सकते हैं और पचास लोगों की कैमरा टीम के सामने किसी अपरिचित से मोहब्बत का नाटक कर सकते हैं? हम अपना काम करते हैं और जम कर कर रहे हैं। फिर भी आलोचना के केंद्र में क्यों हैं? मेरे पास जैकी के इस सवाल का जवाब नहीं था। दिलचस्प बातचीत में अजय ने कहा कि आजकल हिंदी सिनेमा में कड़ी मेहनत हो रही है। लोग न्यूनतम दो शिफ्ट में काम करते है। कड़ी मेहनत के साथ ये लोग आपके रिजेक्शन के खतरे का अलग जोखिम उठाते हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि वे जानते हैं कि हिंदी सिनेमा से ज्यादातर लोग दिल से जुड़े हैं। वेब सीरीज में अश्लीलता पर उन्होंने कहा कि यह सेंसर से आजादी का नतीजा है। रही बात अश्लीलता की तो वह जल्दी ही खत्म हो जाएगी।

'इसका, उसका, किसका मीडिया'

लिटरेरी फेस्टिवल का सबसे जीवंत सत्र मीडिया विमर्श का था। विषय था, 'इसका, उसका, किसका मीडिया?' विषय पर केन्द्रीत विमर्श पर मंच पर 4 दिग्गज संपादकों ने गर्मागर्म बहस की। वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि, 'इसका' मतलब सत्ता, 'उसका' मतलब विपक्ष या टुकड़े-टुकड़े गैंग है और 'किसका' होना चाहिए के सवाल पर मेरा जवाब है कि जनता का। अंजुम ने मौजूदा पत्रकारिता की कई दृश्यावलियों का जिक्र करते हुए कहा कि पत्रकारिता अब झुनझुने में बदलती जा रही है और झुनझुने की तरह बर्ताव भी कर रही है। यह प्रवृत्ति 2014 के बाद ही नहीं आई है। पहले भी इस तरह के पक्षधर पत्रकारिता के किस्से हमारे सामने आते हैं। लेकिन मौजूदा दौर में यह तेज हुआ है। मैं ऐसी किसी नीति का समर्थन नहीं करूंगा जो देश के बांटने का कार्य करती है।

चर्चा में शिरकत करते हुए 'अपना भारत' साप्ताहिक अखबार और 'न्यूजट्रैक' पोर्टल के संपादक डॉ. योगेश मिश्रा ने ढेरों उदाहरणों और वाकयों के जरिए यह कहने की कोशिश की कि असली खतरा भीतर से है। उन्होंने कहा पत्रकारिता जिस भय की बात कर रही है उसकी वजह उसकी लालसाएं, अंदरूनी कमजोरियां और इच्छाएं हैं। जिसे आज का राजनीतिज्ञ बखूबी समझता है। जब हम अपनी मोटी पगार के बारे में सोचते हैं, जब राज्यसभा के टिकट के बारे में सोचते हैं, और जब अपने लिए बड़े बंगलों के बारे में सोचते हैं तो उसी वक्त हम जनता से दूर जा रहे होते हैं। यह ठीक नहीं है। खबरें सिर्फ जनता को ध्यान में रखकर लिखी जानी चाहिए। अगर हम यह आत्मावलोकन कर सके तो हम इस संकट से बाहर निकल आएंगे।

पत्रकार राणा यशवंत ने कहा कि, यह चलन और यह समय दोनों खतरनाक है। लेकिन हमें समझना होगा कि यह एक तरफा गलती का मामला नहीं है। समर्थन और समर्पण में अंतर होना चाहिए और इसी तरह विरोध और वैमनस्य में भी अंतर होना चाहिए। जितना खतरनाक समर्पण है उतना ही खतरनाक वैमनस्य भी है। जिसमें हम कुछ भी अच्छा नहीं देख पाते।

पत्रकार कुमार भावेश चंद्र ने कहा कि एक जमाने में लोग पत्रकारिता में इसलिए भी आते थे क्योंकि उनकी नजर में इससे उनका भौकाल टाइट हो सकता था। यह भौकाल दरअसल समाज, सरकार और दुनिया को बदल देने की ताकत है। जिसका हमें हमेशा ख्याल रखना चाहिए। इस वक्त सच है कि मीडिया को प्रभावित करने की लगातार कोशिश की जा रही है। यह दौर यकीनन मुश्किल है। आज अपनी आवाज से ज्यादा जरूरी है जनता की आवाज को जगह देना। अगर हम ऐसा करें तो हम इस मुश्किल दौर से यकीनन निकल आएंगे।

शेरों शायरी, नाट्य और तिरगुन बैंड की संगीतमय प्रस्तुति

शब्द संवाद, गम्भीर चिंतन के साथ ही सांस्कृतिक प्रस्तुतियों ने लिटफेस्ट को मुकाम दिया। संगीत के साधकों ने तिरगुन बैंड की भव्य संगीतमय प्रस्तुति को खूब सराहा। गायक, वादक तथा संगीतकार आदित्य राजन, जगदंबा, ऋषभ, आदर्श, शैलेन्द्र कबीर और अभिषेक के संयुक्त सुरीले मेल ने निर्गुण साहित्य की रचनाओं को खूबसूरत स्वरों और संगीत में पिरोकर पेश किया। बैंड की सबसे खास प्रस्तुति गुरु गोरखनाथ का प्रसिद्ध गीत 'हसिबा बोलिबा रहिबा रंग...Ó की रही। यह पहली बार था जब गुरु गोरखनाथ के किसी गीत को संगीतबद्ध करके मंच पर प्रस्तुत किया गया। लिटफेस्ट में जब महमूद फारूकी और दौरेन शाहिदी ने दास्तानगोई में शहजादी चैबोली का किस्सा सुनाया तो सभागार खचाखच भर हुआ था। लिटफेस्ट में प्रसिद्ध गीतकार और कवि तनवीर गाजी के साथ गुफ्तगू का आयोजन किया गया। इस मौके पर तनवीर गाजी ने अपने कुछ प्रसिद्ध शेर सुनाए। अंतिम सत्र नामचीन शायर वसीम बरेलवी के नाम रहा।

रंगोली और पेंटिंग ने भी दिया संदेश

युवा कलाकार सुरेन्द्र प्रजापति की मार्बल पाउडर और अबीर से बनाई एक रंगोली आकर्षण का केंद्र रही। लिटफेस्ट के सभागार के एक कोने में लगी कुछ रंगीन पेंटिंग्स ने दर्शकों का ध्यान खास तौर पर खींचा। ये पेंटिंग्स एक बेसहारा मानसिक दिव्यांग धर्मेंद्र द्वारा बनाई गई थीं। सामाजिक स्वयंसेवी संगठन स्माइल रोटी बैंक के आजाद पांडेय ने अपने वॉलंटियर्स के साथ बीते साल 18 नवंबर की रात रेलवे स्टेशन पर दयनीय हालत में धर्मेंद्र को देखा था। वे उसे पुनर्वास केंद्र स्माइल होम ले गए। वहां एक दिन अचानक धर्मेंद्र की कलाकृतियों को देखकर वे लोग आश्चर्यचकित रह गए। उनकी इस प्रतिभा को निखारने के लिए बतौर प्रशिक्षक पूर्वांचल के प्रसिद्ध मधुबनी आर्ट के कलाकार रवि द्विवेदी सामने आए। धर्मेंद्र ने उनके सान्निध्य में राजस्थानी शैली में हाथियों, घोड़ों, हवामहल, प्राकृतिक दृश्यों और रजवाड़ी परम्परा का चित्रण किया। उनकी इस कलाशैली को उनकी टीम ने 'ड्रान्सिक व्यू' का नाम दिया।

लिटरेरी फेस्ट के आयोजकों में शुमार शैवाल शंकर श्रीवास्तव कहते हैं कि दो दिनों का शब्द संवाद बजट की चर्चाओं के बाद भी सफल रहा। यहां भीड़ नहीं थी, ऐसे लोगों की जुटान थी, जिन्हें साहित्य की खुराक चाहिए। समाज में हो रही घटनाओं के बारे में अपनी और दूसरों की अभिव्यक्ति जानने और बताने की ललक। यह आयोजन सफल रहा। जो आगे बेहतर करने की प्रेरणा देता है।

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सीमा शर्मा लगभग ०६ वर्षों से डिजाइनिंग वर्क कर रही हैं। प्रिटिंग प्रेस में २ वर्ष का अनुभव। 'निष्पक्ष प्रतिदिनÓ हिन्दी दैनिक में दो साल पेज मेकिंग का कार्य किया। श्रीटाइम्स में साप्ताहिक मैगजीन में डिजाइन के पद पर दो साल तक कार्य किया। इसके अलावा जॉब वर्क का अनुभव है।

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