×

राम जन्मभूमिः यहां बनी थी मुक्ति की रणनीति, आजादी से भी पहले की बात है

पांच सौ वर्षों के बाद आखिरकार अयोध्या में हिन्दुओं के आराध्य भगवान श्रीराम का विशालतम राम मंदिर बनाने का मार्ग प्रशस्त हो गया।

Newstrack
Published on: 24 July 2020 9:07 AM GMT
राम जन्मभूमिः यहां बनी थी मुक्ति की रणनीति, आजादी से भी पहले की बात है
X

तेज प्रताप सिंह

गोंडा: पांच सौ वर्षों के बाद आखिरकार अयोध्या में हिन्दुओं के आराध्य भगवान श्रीराम का विशालतम राम मंदिर बनाने का मार्ग प्रशस्त हो गया। आगामी पांच अगस्त को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अयोध्या में प्रभु श्री राम की जन्मभूमि पर जब राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन करेंगे तो उन असंख्य लोगों की आत्मा को भी शांति मिलेगी, जिन्होंने पिछले पांच सौ सालों में राम मंदिर निर्माण के लिए संघर्ष किया था। अयोध्या में भगवान राम का भव्य मंदिर बने यह हर हिन्दू चाहता था। लेकिन यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि आजादी के पहले ही गोंडा जिले में राम जन्मभूमि को मुक्त कराने की रणनीति तैयार हो गई थी। बलरामपुर के राज भवन में राम जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए बनी रणनीति के नायकों में बलरामपुर के राजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह, अखिल भारतीय रामराज्य परिषद के संस्थापक व धर्म सम्राट स्वामी करपात्री महराज, गोरक्षपीठ के महंत दिग्वििजय नाथ और जिला मजिस्ट्रेट केके नायर थे। 22-23 दिसम्बर 1949 की रात मंदिर के अन्दर भगवान श्रीराम की मूर्ति का प्राकट्य भी इन्हीं चार दोस्तों की सफल रणनीति का हिस्सा थी।

ये भी पढ़ें:राम मंदिर पर युद्ध: शिलान्यास पर भिड़े संत, क्या सफलतापूर्वक हो पायेगा भूमि पूजन

विवाद पांच सौ साल पुराना

राम मंदिर निर्माण के विवाद के इतिहास पांच सौ वर्ष पुराना है। वर्ष 1528 में तत्कालीन मुगल शासक बाबर द्वारा श्रीराम जन्म भूमि राम मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी। जबकि हिन्दुओं के पौराणिक ग्रन्थ रामायण और रामचरित मानस के अनुसार यहां भगवान श्रीराम का जन्म हुआ था। इससे दो वर्ष पूर्व ही 1526 में भारत में मुगलकाल शुरू हुआ था। मुगल वंश का संस्थापक मुगल शासक बाबर था। मुगल शासन 17वीं शताब्दी के अंत और 18वीं शताब्दी के मध्य में समाप्त हुआ। जब तक देश पर मुगल शासकों का शासन रहा तब तक राम भक्तों की आवाज बुलंद नहीं हो सकी।

बलरामपुर के राज भवन में बनी रणनीति

गोंडा जिले के बलरामपुर रियासत के तत्कालीन महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह की हिंदू भावनाओं और लान टेनिस खेल में रुचि के कारण गोरक्षपीठ के महंत दिग्विजय नाथ और फैजाबाद (अब अयोध्या) के जिला मजिस्ट्रेट केके नायर सेे मित्रता थी। महाराजा प्रायः धार्मिक यज्ञ आदि का भी आयोजन किया करते थे। इन आयोजनों में उनके यहां साधु-संतों का जमावड़ा होता रहता था। ऐसे ही एक कार्यक्रम में बलरामपुर पहुंचे धर्म सम्राट की उपाधि से विभूषित स्वामी करपात्री महाराज से भी उनकी नजदीकियां हो गई। साल 1947 के शुरुआती महीनों में करपात्री महराज की मौजूदगी में राज भवन में ही अयोध्या में राम जन्मभूमि को मुक्त कराने की रणनीति बनी थी, जिसमें पाटेश्वरी प्रसाद सिंह, गोरक्षपीठ के महंत दिग्वििजय नाथ और राम भक्त तत्कालीन कलेक्टर केके नायर भी शामिल थे।

राम मंदिर आंदोलन को गति देने के लिए 1947 में करपात्री महाराज ने बलरामपुर के राजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह के साथ मिलकर अखिल भारतीय राम राज्य परिषद पार्टी की स्थापना किया था। राम राज्य परिषद भारत की एक परम्परावादी हिन्दू पार्टी थी। आजाद भारत में इन्हीं चार नायकों की रणनीति के तहत 22-23 दिसंबर 1949 की मध्यरात्रि में रामलला की एक मूर्ति रहस्यमय ढंग से विवादित स्थल पर दिखाई दी। मूर्ति की उपस्थिति ने हिंदू भक्तों के बीच एक अभूतपूर्व जोश जगा दिया। सरकार ने फैजाबाद के जिला मजिस्ट्रेट केके नायर से मूर्ति को हटाने के लिए कहा। लेकिन नायर ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि इससे सांप्रदायिक दंगे भड़केंगे।

धर्मभीरु राजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह

बलरामपुर के महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह का जन्म 01 जनवरी 1914 को हुआ था। महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह की पढ़ाई अजमेर के मेयो कालेज में हुई। घुड़सवारी और लान टेनिस खेलने के लिए वे दूर-दूर तक जाते थे। लान टेनिस के प्रति लगाव के कारण आईसीएस केके नायर और महंत दिग्विजय नाथ से उनकी दोस्ती हो गई। महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह स्वाधीनता आन्दोलन में महात्मा गांधी के विचारों से गहरे प्रभावित हैं। ये सुख एवं वैभव में पले होने के बाद भी इस तराई अंचल की जनता के सुख-दुःख एवं उनकी बुनियादी जरूरतों से भलीभांति परिचित थे। वे स्वाधीनता आंदोलन के आदर्शवादी, नैतिकतावादी सृजनात्मक परिवेश में जन्में पले-बढ़े और उच्चतर संस्कार अर्जित करते हुए युवा हुए थे। वे धर्मभीरु थे और भगवान राम के आदर्शों में गहरी आस्था रखते थे। इसीलिए राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन से भी जुड़े हुए थे। उन्होंने कम समय में ही जिले के तराई अंचल की अभावग्रस्त जनता के लिए शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण कार्य किया। 1955 में महारानी लाल कुंवरि महाविद्यालय की स्थापना की और 1964 तक प्रबन्ध समिति के अध्यक्ष रहे। 30 जून 1964 को उनका निधन हो गया।

कौन थे स्वामी करपात्री

स्वामी करपात्री का जन्म सम्वत् 1964 विक्रमी (सन् 1907 ईस्वी) में श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, द्वितीया को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के भटनी ग्राम में सरयूपारीण ब्राह्मण रामनिधि ओझा एवं श्रीमती शिवरानी के यहां हुआ था। उनका नाम हरि नारायण रखा गया। 09 वर्ष की अल्पायु में महादेवी के साथ हरि नारायण विवाह सम्पन्न करा दिया गया, किन्तु 17 वर्ष की आयु में उन्होने गृहत्याग कर दिया। ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती से नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा के उपरान्त उनका नाम ‘हरिहरानन्द सरस्वती‘ हुआ, किन्तु वे करपात्री के नाम से ही प्रसिद्ध थे क्योंकि वे अपने अंजुलि का उपयोग खाने के बर्तन की तरह करते थे। धर्मशास्त्रों में अद्वितीय विद्वता को देखते हुए उन्हें ‘धर्मसम्राट‘ की उपाधि दी गई। भगवान राम और हिन्दू धर्म के प्रति अटूट आस्था ने ही उन्हें राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का आंदोलन छेड़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अखिल भारतीय रामराज्य परिषद का गठन किया जो हिन्दूवादी राजनीतिक दल के रुप में चर्चित हुई। 07 फरवरी 1982 को करपात्री जी का साकेतवास हो गया।

महंत से नेता बने दिग्विजय नाथ

दिग्विजय नाथ का जन्म 1894 में मेवाड़, उदयपुर राजस्थान के कंकरवा थिकाना में एक राजपूत ठाकुर परिवार में हुआ था। बचपन में उनका नाम नान्हू सिंह था। उनके पिता रावत उदय सिंह मेवाड़ प्रेसीडेंसी काउंसिल (महेन्द्र सभा) कंकरवा के अध्यक्ष थे। जब वह 08 साल के थे तभी उनकी मां का निधन हो गया। तब उन्हें फुले नाथ नामक एक नाथपंथी योगी गोरखपुर के गोरखनाथ मठ में ले आए। नान्हू सिंह मठ में बड़े हुए और गोरखपुर के सेंट एंड्रयूज कालेज में पढ़ने चले गए। वह एक औसत छात्र थे लेकिन खेल विशेषकर हाकी, घुड़सवारी और टेनिस में उत्कृष्ट थे। 1932 में बाबा ब्रह्मनाथ गोरखनाथ मठ के महंत बने और नान्हू सिंह को नाथ पंथ परंपरा में शामिल कर दिग्विजय नाथ नाम दिया।

1935 में उनकी मृत्यु के बाद 15 अगस्त 1935 को महंत के रूप में दिग्विजय नाथ का अभिषेक किया गया। महंत होने के बावजूद, दिग्विजय नाथ ने लान टेनिस खेलने के साथ-साथ अपनी राजनीतिक गतिविधियों को भी जारी रखा। लान टेनिस के कारण ही उनकी बलरामपुर के महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह और गोंडा के कलेक्टर केके नायर से दोस्ती हुई। महंत दिग्विजय नाथ ने 1949 में राम जन्मभूमि आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई और राम जन्मभूमि पर बने बाबरी मस्जिद के अंदर राम मूर्तियों का प्राकट्य हुआ। 1967 में हिंदू महासभा के टिकट पर नाथ गोरखपुर के सांसद चुने गए और साल 1969 में वे ब्रह्मलीन हो गए।

सच्चे राम भक्त केके नायर

केरल के अलेप्पी में 11 सितंबर 1907 को जन्मे और 1930 बैच के आईसीएस केके नायर अगस्त 1946 में गोंडा के जिला मजिस्ट्रेट बनाए गए। लान टेनिस खेलने के शौक़ ने उन्हें बलरामपुर के महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह से मिलवाया तो दोस्ती बढ़ी और टेनिस कोर्ट में दोनों की मुलाक़ातें होने लगीं। जुलाई 1947 में नायर के स्थानांतरण के बाद भी उनके आत्मीय मधुर सम्बन्ध बने रहे। इन दोनों का परिचय गोरखपुर स्थित गोरक्षपीठ के महंत दिग्विजय नाथ से हुआ और मित्रता में बदल गया। 22/23 दिसंबर 1949 की रात जब मंदिर के अन्दर के हिस्से में भगवान श्रीराम की मूर्ति प्रकट हो गई तब फ़ैज़ाबाद में डीएम का पद केके नायर ही संभाल रहे थे। घटना के बाद प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत और गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को निर्देश दिए कि रामलला की मूर्ति तत्काल हटाई जाए।

लेकिन सच्चे राम भक्त केके नायर इस बात पर अड़े रहे कि मूर्ति हटाने की घोषणा से ख़ून ख़राबा होगा। तब पंडित नेहरू के निर्देश पर देश के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ख़ुद लखनऊ पहुंचे और इस बाबत आवश्यक निर्देश दिया। लेकिन डीएम नायर ने उनका निर्देश नहीं माना। उन्होंने सरकार को लिखा कि मूर्तियां हटाने से पहले मुझे हटाया जाए। देश के साम्प्रदायिक माहौल को देखते हुए सरकार पीछे हट गई। 1952 में सेवानिवृत्ति लेने के बाद नायर हिंदुत्व के प्रतीक बन गए और चौथी लोकसभा के लिए वे उत्तर प्रदेश की बहराइच सीट से जनसंघ के टिकट पर लोकसभा पहुंचे। उनकी पत्नी शकुंतला नायर भी कैसरगंज से तीन बार जनसंघ के टिकट पर लोकसभा पहुंचीं। उनका ड्राइवर भी उत्तर प्रदेश विधानसभा का सदस्य बना।

सैकड़ों साल चला जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन

मुगल काल के बाद वर्ष 1853 में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच इस जमीन को लेकर पहली बार विवाद हुआ, जो धीरे-धीरे बढ़ता ही गया। इसी बीच देश पर हुकूमत कर रहे अंग्रेजों ने अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को आगे बढ़ाते हुए 1859 में नमाज के लिए मुसलमानों को अन्दर का हिस्सा और पूजा के लिए हिन्दुओं को बाहर का हिस्सा दे दिया। इस मामले में कानूनी यात्रा तब शुरु हुई जब महंत रघुबीर दास ने फैजाबाद की जिला अदालत में एक याचिका दायर करके विवादित ढांचे के बाहर हवन कुंड बनाने की अनुमति मांगी। 1947 में देश आजाद होने के बाद वर्ष 1949 में मंदिर के अन्दर के हिस्से में भगवान श्रीराम की मूर्ति प्रकट हो गई। तनाव बढ़ता देख सरकार ने इसके गेट में ताला लगा दिया। सन 1986 में फैजाबाद की एक अदालत ने विवादित स्थल को हिंदुओं की पूजा के लिए खोलने का आदेश दे दिया। इसके विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी गठित की गई।

09 नवंबर 1989 को प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने विहिप को राम मंदिर के लिए शिलान्यास करने की अनुमति दी। इसके विश्व हिन्दू परिषद ने राम मंदिर निर्माण की मुहिम शुरू किया और 30 अक्टूबर 1990 को कारसेवा की तारीख तय किया। तब तक भारतीय जनता पार्टी भी विश्व हिन्दू परिषद के साथ राम मंदिर निर्माण की मुहिम में जुड़ चुकी थी। उस समय केन्द्र में कांग्रेस और प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने घोषणा कर रखी थी कि कारसेवा नहीं होने देंगे। अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा। अयोध्या की ओर जाने वाली सभी सड़कें बंद कर दी गयीं और सभी रेलगाड़ियां रद्द कर दी गयीं। राम जन्मभूमि स्थल को पुलिस और अर्धसैनिक बलों ने घेर लिया और अयोध्या को छावनी में बदल दिया गया था। इसके बावजूद 29 अक्तूबर को विहिप के अध्यक्ष अशोक सिंहल का बयान जारी हुआ कि पूर्व घोषणा के अनुसार 30 अक्तूबर को ठीक 12.30 बजे कारसेवा होगी।

30 अक्टूबर को हजारों कारसेवक जय श्री राम के घोष करते हुए विवादित ढांचे के बाहर बनी आठ फीट ऊंची दीवार और उस पर लगी कंटीले तारों की बाड़ पार कर रामलला के सामने जा पहुंचे। कोलकाता के राम कुमार और शरद कोठारी ने मुख्य गुम्बद पर भगवा ध्वज फहरा दिया। एक युवक और एक साधु ने शेष दोनों गुम्बदों पर भी ध्वज लगा दिया। गुम्बद से फिसल कर नीचे गिरने से मृत कारसेवकों के शोक तथा उनके शवों के अंतिम संस्कार के बाद 02 नवम्बर को रामलला का दर्शन कर कारसेवकों के वापस जाने की घोषणा की गयी। प्रातः 11 बजे संतों और हिन्दू नेताओं के नेतृत्व में कारसेवकों के जत्थे रामलला के दर्शन हेतु राम जन्म भूमि की ओर बढ़े तो कारसेवकों पर लाठीचार्ज किया गया और फायरिंग हुई, जिसमें गोली लगने से दर्जनों कार सेवक मौत के मुंह में चले गए।

जब राम भक्तों ने ढहा दिया विवादित ढांचा

विधान सभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी की हार हुई तो एक बार फिर 06 दिसम्बर 1992 को विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या में कारसेवा की घोषणा की। उस समय प्रदेश में भाजपा के कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे। कल्याण सिंह ने अदालत में लिखित दिया था कि विवादित ढांचे को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन कारसेवकों ने विवादित ढांचे को जमींदोज कर दिया तो सरकार भंग कर दी गई। ढांचा ढहने के बाद देशव्यापी दंगों में करीब दो हजार लोगों की जानें गईं। ढांचा ढहाने का फौजदारी वाद आज भी सीबीआई के विशेष न्यायालय में विचाराधीन है।

उच्च न्यायालय ने माना था राम की जन्मभूमि

अयोध्या विवाद में नया मोड़ तब आया जब साल 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने अपने निर्णय में विवादित भूमि को राम जन्मभूमि घोषित किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि विवादित भूमि जिसे रामजन्मभूमि माना जाता रहा है, उसे हिंदू पक्ष को दे दिया जाए। न्यायालय ने यह भी कहा कि वहां से रामलला की प्रतिमा को नहीं हटाया जाएगा। न्यायालय ने कहा कि चूंकि सीता रसोई और राम चबूतरा आदि कुछ भागों पर निर्माेही अखाड़े का कब्जा रहा है इसलिए यह हिस्सा निर्माेही अखाड़े के पास ही रहेगा। न्यायाधीशों ने कहा कि इस भूमि के कुछ भाग पर मुसलमान प्रार्थना करते रहे हैं, इसलिए विवादित भूमि का एक तिहाई हिस्सा मुसलमान पक्ष को दे दिया जाए। लेकिन दोनों पक्षों ने इस निर्णय के विरुद्ध सर्वाेच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से थमा विवाद

उच्चतम न्यायालय ने सात वर्ष बाद निर्णय लिया कि 11 अगस्त 2017 से तीन न्यायाधीशों की पीठ इस विवाद की सुनवाई प्रतिदिन करेगी। मोदी सरकार के दोबारा गठन के लगभग पांच महीने बाद 09 नंवबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एसए बोबड़े, डीवाई चन्द्रचूड़, अशोक भूषण और अब्दुल नजीर समेत पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने विवादित जमीन पर रामलला के हक में निर्णय सुनाया। शीर्ष अदालत ने केन्द्र और उत्तर प्रदेश सरकार को राम मंदिर बनाने के लिए तीन महीने में ट्रस्ट बनाने के निर्देश दिए। अदालत ने कहा कि 2.77 एकड़ जमीन केन्द्र सरकार के अधीन ही रहेगी। साथ ही मुस्लिम पक्ष को नई मस्जिद बनाने के लिए अलग से पांच एकड़ जमीन देने के भी निर्देश दिये। कोर्ट ने निर्माेही अखाड़े और शिया वक्फ बोर्ड के दावों को खारिज कर दिया। हालांकि निर्माेही अखाड़े को ट्रस्ट में जगह देने की अनुमति को स्वीकार कर लिया गया।

ये भी पढ़ें:15 अगस्त 2020: इस बार होगा ऐसा नजारा, सरकार ने जारी की एडवाइजरी

161 फिट ऊंचा बनेगा भव्य राम मंदिर

पांच अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा भूमि पूजन के साथ ही 120 एकड़ क्षेत्र में बनने वाले प्रभु श्रीराम का विशालकाय तीन मंजिला मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ हो जाएगा। श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के अनुसार यह मंदिर साढ़े तीन साल में बनकर तैयार भी हो जाएगा। प्रस्तावित माडल के अनुसार मंदिर 161 फीट ऊंचा होगा और इसमें पांच गुंबद होंगे। इसका परकोटा पांच एकड़ क्षेत्र में विस्तृत होगा। मंदिर में एक मुख्य शिखर सहित पांच उप शिखर होंगे। राम मंदिर के मुख्य द्वार का निर्माण मकराना के सफेद संगमरमर से किया जाएगा। गर्भगृह के ठीक ऊपर 16.3 फीट का प्रकोष्ठ बनाया जाएगा, जिस पर 65.3 फीट ऊंचे शिखर का निर्माण होगा। प्रत्येक तल पर 106 स्तंभ संयोजित होंगे। यह स्तंभ साढ़े 14 से 16 फीट तक ऊंचे और आठ फीट व्यास वाले होंगे। प्रत्येक स्तंभ यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियों से सज्जित होगा। मंदिर के प्रथम तल के गर्भगृह में जहां रामलला की प्रतिमा स्थापित होगी, वहीं दूसरे तल के गर्भगृह में राम दरबार की स्थापना होनी है।

देश दुनिया की और खबरों को तेजी से जानने के लिए बनें रहें न्यूजट्रैक के साथ। हमें फेसबुक पर फॉलों करने के लिए @newstrack और ट्विटर पर फॉलो करने के लिए @newstrackmedia पर क्लिक करें।

Newstrack

Newstrack

Next Story