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शख्सियतों की आभा में धूमिल पड़े मुद्दे

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Published on: 17 May 2019 1:41 PM IST
शख्सियतों की आभा में धूमिल पड़े मुद्दे
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शख्सियतों की आभा में धूमिल पड़े मुद्दे

मनीष श्रीवास्तव

लखनऊ: लोकसभा चुनाव अपने आखिरी पड़ाव पर पहुंच गया है, लेकिन अब तक हुए छह चरणों के चुनाव के बाद भी देश की जनता के मुख्य मुददे चुनावी विमर्श की मुख्यधारा में नहीं आ सके। दिलचस्प बात यह है कि सभी दल एक-दूसरे पर मुद्दों से हटने का आरोप भी लगा रहे हैं, लेकिन यह कोई नई बात नहीं है। हमारे देश में बहुत कम ही ऐसे मौके रहे हैं कि आम चुनाव जनता से जुड़े मुद्दों पर लड़ा गया हो। आम चुनावों के इतिहास पर नजर डालें तो लगभग सभी आम चुनाव किसी न किसी खास शख्सियत के आभा मंडल के समर्थन या विरोध में लड़े गए हैं और चुनाव दर चुनाव जनता के मुद्दे राजनीतिक दलों के आरोपों-प्रत्यारोपों के शोर में दबकर रह गए।

पहले तीन चुनावों में हावी रहे नेहरू

देश को आजादी मिलने के बाद वर्ष 1951 में हुए पहले आम चुनाव में मुद्दे तो बहुत थे, लेकिन चुनाव लड़ा गया आजादी की लड़ाई में कांग्रेस के योगदान पर। 489 लोकसभा सीटों पर हुए इस चुनाव में जवाहर लाल नेहरू की अगुवाई में कांग्रेस ने 45 फीसदी मतों के साथ 364 सीटों पर जीत हासिल की और सरकार बनाई। कांग्रेस का आभामंडल और नेहरू की शख्सियत का असर वर्ष 1957 में हुए दूसरे आम चुनाव में भी देखने को मिला। 494 लोकसभा सीटों के लिए हुए इस चुनाव में भी कांग्रेस को करीब 48 फीसदी वोट के साथ 371 लोकसभा क्षेत्रों में कामयाबी मिली।

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कांग्रेस के प्रति देश की जनता का आकर्षण और कोई संगठित राजनीति चुनौती न होने के कारण नेहरू और कांग्रेस का विजयरथ आगे बढ़ता चला गया। 1957 के बाद अपने कार्यकाल में प्रधानमंत्री नेहरू ने देश में पंचवर्षीय योजना के साथ विकास और आगे बढऩे का ब्लूप्रिन्ट देश को दिया। इससे देश में नेहरू और कांग्रेस की लोकप्रियता में इजाफा हुआ और वर्ष 1962 में 494 लोकसभा सीटों पर हुए तीसरे आम चुनाव में नेहरू की कांग्रेस ने करीब 45 फीसदी वोटों के साथ 361 लोकसभा सीटें अपने कब्जे में कर लीं, लेकिन अक्टूबर 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में भारत की हार पर देश में नेहरू की आलोचना शुरू हो गयी। बाद में 27 मई 1964 को उनकी मृृत्यु हो गयी। नेहरू की मौत के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने बतौर प्रधानमंत्री देश की बागडोर संभाली। वर्ष 1965 में पाकिस्तान को हराकर देश में शास्त्री की लोकप्रियता बढ़ गयी और वर्ष 1966 में ताशकंद में उनकी मौत के बाद नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं।

इंदिरा ने मुद्दों को कर दिया किनारे

वर्ष 1967 का आम चुनाव कांग्रेस ने इंदिरा के नेतृत्व में लड़ा। 520 लोकसभा क्षेत्रों में हुए इस चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत करीब 41 प्रतिशत पर पहुंच गया और उसकी सीटों की संख्या घटकर 283 पर पहुंच गयी। इससे पहली बार यह साफ हुआ कि हमारे देश की जनता अपने मूलभूत मुद्दों से ज्यादा किसी प्रभावशाली शख्सियत को ही अहम मानती है।

देश की जनता की यह नब्ज राजनीति की माहिर इंदिरा गांधी भी समझ चुकी थीं और उन्होंने वर्ष 1971 के आम चुनाव में गरीबी हटाओ का नारा दिया। आजादी के बाद दो युद्ध और देश में तमाम तरह की दुश्वारियां झेल रही देश की जनता ने इंदिरा गांधी के इस नारे को हाथों-हाथ लिया और 518 लोकसभा सीटों के लिए इस चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर 352 सीटें जीतने में कामयाब रही।

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दूसरी बार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने के बाद इंदिरा गांधी अति महत्वाकांक्षी हो गयीं और 1975 में देश में आपातकाल घोषित कर दिया। वर्ष 1977 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस के खिलाफ जनसंघ, भारतीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी ने मिलकर जनता पार्टी बनाई और चुनाव लड़ा। आपातकाल थोपने के कारण देश की जनता इंदिरा गांधी से बेहद नाराज थी। नतीजा यह हुआ कि जनता पार्टी 542 लोकसभा सीटों में से 298 सीटें जीतने में कामयाब हो गयी। जनता पार्टी की यह कामयाबी ज्यादा लंबी नहीं टिक सकी। जनता पार्टी में उपजे अंतर्विरोध के कारण वर्ष 1980 में फिर से आम चुनाव हुए। इंदिरा गांधी ने मजबूत सरकार का नारा दिया और जनता पार्टी के आपसी मतभेद से नाराज देश की जनता ने इंदिरा गांधी को एक बार फिर 351 सीटों के साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया।

राजीव को मिला सहानुभूति लहरा का फायदा

वर्ष 1984 में प्रधानमंत्री रहते ही इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गयी। इसके बाद हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी के पक्ष में पूरे देश में सहानुभूति की लहर चली। इस लहर पर सवार होकर उनके पुत्र राजीव गांधी 404 लोकसभा सीटों के प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आए। मृदुभाषी राजीव गांधी पर बोफोर्स तोपों में दलाली का आरोप लगा और वर्ष 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस के खाते में 195 सीटें ही आयीं। इस आम चुनाव के बाद 142 सीटें पाने वाले जनता दल ने भाजपा व अन्य दलों के साथ मिलकर केंद्र में सरकार का गठन किया और वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। लेकिन भारतीय राजनीति की विशेषता है कि यहा जनता जितनी जल्दी मेहरबान होती है, उतनी ही जल्दी नाराज भी होती है।

हिन्दुत्व की राजनीति से मजबूत हुई भाजपा

वीपी सिंह ने आरक्षण के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कर दिया। इससे देश का सवर्ण वर्ग उनसे खासा नाराज हो गया। इसी के साथ दो सीटों से 89 सीटों पर पहुंची भारतीय जनता पार्टी ने भी अपनी हिंदुत्व की राजनीति को धार देने के लिए मंदिर आंदोलन शुरू कर दिया था। मंदिर आंदोलन के साथ देश में शुरू हुई धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति ने वर्ष 1991 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर 244 सीटों पर कब्जा जमाने में कामयाब हुई, लेकिन भाजपा की ताकत भी बढ़ गयी और उसकी सीटों की सूची 89 से बढ़कर 120 सीटों पर पहुंच गई जबकि दो साल पहले ही सत्ता हासिल करने वाला जनता दल 59 सीटों पर ही सिमट गया।

इस बीच देश में मंदिर आंदोलन जोर पकड़ता जा रहा था और कांग्रेस सरकार में प्रधानमंत्री रहे नरसिम्हा राव के कार्यकाल में ही छह दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर दी गयी। वर्ष 1996 का आम चुनाव काफी दिलचस्प बन गया था। एक तरफ राव की उदार नीतियां और आर्थिक सुधार थे तो दूसरी ओर भाजपा के हिंदुत्व का उभार। देश की जनता इन दोनों के बीच उलझकर रह गयी और इस आम चुनाव में कांग्रेस को 140 और भाजपा को 161 सीटों पर कामयाबी मिली।

हिंदुत्व की बात करने वाली भाजपा ने अब अयोध्या में रामजन्म भूमि पर मंदिर निर्माण का मुद्दा उठाया तो कांग्रेस समेत अन्य दल धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में खड़े हो गये। नतीजा वही रहा। देश ने बहुत कम समय में ही कई आम चुनाव देख लिए। वर्ष 1998 के आम चुनाव में भाजपा को 182 सीटें मिलीं तो कांग्रेस को 141 सीटें। इसके एक साल बाद ही हुए वर्ष 1999 के आम चुनाव में भी भाजपा ने अपना 182 सीटों का प्रदर्शन दोहराया लेकिन कांग्रेस सिमट कर 114 पर आ गयी। भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और उन्होंने विभिन्न क्षेत्रीय दलों के सहयोग से पांच साल तक सरकार चलायी।

इसके बाद वर्ष 2004 के आम चुनाव में भाजपा इंडिया शाइनिंग के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरी, लेकिन राम मंदिर के नाम पर वोट पाने वाली भाजपा सरकार के पांच साल के कार्यकाल में मंदिर निर्माण न हो पाने के कारण जनता ने उसे ठुकरा दिया और कांग्रेस 145 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के तौर पर उभर कर सामने आयी, जबकि भाजपा को 138 सीटें मिली। कांग्रेस की अगुवाई संप्रग की गठबंधन सरकार बनी और मनमोहन सिहं प्रधानमंत्री बने।

मनरेगा व कर्जमाफी का लोकलुभावन कदम

वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस की अगुवाई वाली संप्रग सरकार ने मनरेगा योजना चलायी और किसानों की कर्जमाफी की इन दो लुभावने कदमों के सहारे कांग्रेस एक बार फिर 206 सीटों के साथ सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हुई। इस समय तक भाजपा के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी खराब स्वास्थ्य के कारण चुनाव में सक्रिय नहीं थे और भाजपा पीएम इन वेटिंग आडवाणी के नेतृत्व में चुनाव में उतरी। लिहाजा भाजपा की सीटों की संख्या 116 पर ही अटक गयी।

भ्रष्टाचार पर हमले से मोदी को मिली ताकत

वर्ष 2014 का आम चुनाव देश में बहुत बड़े राजनीतिक परिवर्तन का साल रहा। कई तरह के भ्रष्टाचारों के आरोपों से घिरी कांग्रेस के खिलाफ पूरे देश में माहौल बन चुका था। इधर, भाजपा भी गुजरात के तीन बार के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव मैदान में उतरी। मोदी ने देश के सामने विकास के मॉडल के तौर पर गुजरात को तो पेश किया ही साथ ही कांग्रेस के भ्रष्टाचार का बड़े ही आक्रामक ढंग से प्रचार किया। नतीजा यह हुआ कि देश में पहली बार गैर कंाग्रेसी प्रचंड बहुमत की भाजपा की सरकार बनी। कुल मिलाकर 2014 में भी देश की जनता के मूल मुद्दे पार्टियों के आरोप-प्रत्यारोपों की भेंट चढ़ गए। अब जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव हो रहे हैं तो भी आम जनता से जुड़े मुद्दे प्रभावी साबित होते नहीं दिख रहे हैं। भाजपा जहां एक बार फिर मोदी सरकार के नारे पर चुनाव लड़ रही है वहीं विपक्ष का पूरा जोर मोदी हटाओ पर ही है।



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सीमा शर्मा लगभग ०६ वर्षों से डिजाइनिंग वर्क कर रही हैं। प्रिटिंग प्रेस में २ वर्ष का अनुभव। 'निष्पक्ष प्रतिदिनÓ हिन्दी दैनिक में दो साल पेज मेकिंग का कार्य किया। श्रीटाइम्स में साप्ताहिक मैगजीन में डिजाइन के पद पर दो साल तक कार्य किया। इसके अलावा जॉब वर्क का अनुभव है।

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