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कविता के आंगन में व्यंग्य का अंकुर

समारोह के अध्यक्ष जिला अधिवक्ता संघ के अध्यक्ष एजाज अहमद ने कहा कि आज जब सामाजिक जीवन में हर कदम पर खतरे ही खतरे हैं, तब ऐसे कठिन वक्त में कैलाश मेहरा का व्यंग्य संग्रह आम आदमी को तसल्ली और राहत देने वाला एक मजबूत औजार है।

Dharmendra kumar
Published on: 19 Feb 2021 10:38 PM IST
कविता के आंगन में व्यंग्य का अंकुर
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जनकवि केदारनाथ अग्रवाल की धरती बांदा में कविता की परंपरा से अलग हटकर व्यंग्य लेखक का उद्भव हिन्दी साहित्य में एक अद्भुत योगदान है।

ओम तिवारी

बांदा: जनकवि केदारनाथ अग्रवाल की धरती बांदा में कविता की परंपरा से अलग हटकर व्यंग्य लेखक का उद्भव हिन्दी साहित्य में एक अद्भुत योगदान है। केदार बाबू की तरह पेशे से वकील कैलाश मेहरा एक सशक्त, समर्थ तथा संवेदनशील व्यंग्य लेखक के तौर पर उभर कर सामने आए हैं। मेहरा के व्यंग्य संग्रह ''कतरनें'' का हाल ही में विमोचन हुआ।

कैलाश मेहरा के इस व्यंग्य संग्रह का विमोचन इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश आलोक सिंह ने किया। इस मौके पर उन्होंने कहा कि प्रथम धन्यवाद व्यंग्य संग्रह रचयिता कैलाश मेहरा की धर्मपत्नी को दिया जाना चाहिए। वह इसलिए कि उन्होंने लेखक के पर नहीं कतरे और ''कतरनें'' जैसा महत्वपूर्ण व्यंग्य संग्रह हमारे हाथों में है।

विमोचन समारोह में मौजूद हिंदी के विद्वान डाॅ. चंद्रिका प्रसाद दीक्षित ललित ने व्यंग्य संग्रह पर सारगर्भित टिप्पणी दर्ज की। पं. जेएन महाविद्यालय बांदा में हिंदी विभागाध्यक्ष रहे डाॅ. रामगोपाल गुप्ता और राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष डाॅ. शशिभूषण मिश्रा ने व्यंग्य संग्रह 'कतरनें' की सार्थकता को रेखांकित किया।

समारोह के अध्यक्ष जिला अधिवक्ता संघ के अध्यक्ष एजाज अहमद ने कहा कि आज जब सामाजिक जीवन में हर कदम पर खतरे ही खतरे हैं, तब ऐसे कठिन वक्त में कैलाश मेहरा का व्यंग्य संग्रह आम आदमी को तसल्ली और राहत देने वाला एक मजबूत औजार है।

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कैलाश का 'कतरनें' दस्तावेजी संकलन

पत्रकार और संपादक गोपाल गोयल ने कहा कि कैलाश मेहरा पेशेवर लेखक या व्यंग्यकार नहीं हैं। फिर भी सामाजिक विसंगतियां की बेचैनी को वह व्यंग्य के परिधान पहनाकर समाज के सामने लाने की कोशिश करते हैं और एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका का निर्वाह करते हैं। व्यंग्य ऐसी विधा है जो अपना पूरा काम करते हुए लेखक को जोखिम से बचाती है। हालांकि तीखे और तल्ख व्यंग्य लिखने से हरिशंकर परसाई को बहुत खतरे उठाने पड़े हैं। शारीरिक क्षति भी उठानी पड़ी है। कैलाश मेहरा सामाजिक कुरीतियों, असमानताओं तथा अन्याय से टकराते हैं। मुठभेड़ करते हैं और एक अच्छे, स्वस्थ्य, सुंदर तथा समरसता वाले समाज की कल्पना करते हैं। शायद इसलिए कि वे स्वयं वेषभूषा, मिजाज तथा आचरण से एकदम साफ सुथरे व्यक्ति हैं।

उन्होंने कहा कि उनके व्यंग्य सरल हैं और आक्रामक भी हैं। वे छोटी सी छोटी बातों को अपने व्यंग की विषय वस्तु बनाते हैं। सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक बुराइयों पर कटाक्ष करते हैं। समझौते की गुंजाइश नहीं छोड़ते। बकौल कैलाश मेहरा- उन्होंने हरिशंकर परसाई और शरद जोशी जैसे व्यंग्यकारो को पढ़ा है। किंतु उन पर हरिशंकर परसाई का प्रभाव अधिक लगता है। कबीर का भी दर्शन होता है। कैलाश अक्खड़, बेलगाम तथा बेधड़क तंज कसने में अपने को असहाय नहीं महसूस करते। यही उनके व्यंग्य की खूबी है। लेखक की यही खूबी उसके लेखन को सार्थकता देती है। ऐसी स्थितियों में -कतरनें- एक दस्तावेजी संकलन बन कर सामने आया है।

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उनका क्या होगा कालिया!

शहर की गंदगी पर भी कैलाश मेहरा के कई व्यंग्य हैं। एक व्यंग्य- सीजन-में वह लिखते हैं- सभी जगह सभी चीजों का अलग-अलग सीजन होता है, पर हमारे शहर में गंदगी का सीजन तो बारहमासी है...। आगे किस्सा जोड़ते हैं-उनके एक मित्र के बेटे की सगाई टूट गई। वह मित्र कारण पूछने पर बताते हैं कि सगाई के एक दिन पहले ही लड़की वालों का संदेश आया कि इस बदबू और गंदगी से भरे शहर में अपनी लड़की नहीं देंगे, जिनकी होनी थी हो गई, जिनकी नहीं हुई, उनका क्या होगा कालिया?

लावारिस लाश

एक और व्यंग्य है-लावारिस लाश-। कैलाश लिखते हैं- मेरे घर के सामने रोडवेज की कार्यशाला की दीवार के पास एक लावारिस लाश पड़ी है, पिछले लगभग 1 महीने से वहीं पड़ी है, उसका वारिस आज तक नहीं आया। उस लाश पर जो कपड़े लत्ते थे, वह तो अगले दिन ही तमाम वारिस बिना दावे किए ले गए, अब तो बस कंकाल बचा है, जिसे ले जाने के लिए कोई तैयार नहीं है... यह लाश किसी आदमी की नहीं, चिल्ला के पेड़ की है, जो सड़क के लगभग मध्य में पिछले 1 महीने से पड़ी है और पथराई नजरों से अपने वारिस की तलाश कर रही है, जो कोई भी आता जाता दिखता है, उसे आशा बनती है कि उसकी अर्थी अब उठेगी।

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झींगुरी न्याय और बासू बेचारा

वकील होने के बावजूद कैलाश अपने पेशे यानी न्याय व्यवस्था के ऊपर भी उंगली उठाने से संकोच नहीं करते। एक व्यंग्य-झींगुरी न्याय- में कहते हैं-एक झींगुर एक लस्सी के गिलास में समा गया। लस्सी पहुंच गई एक न्यायिक अधिकारी के पास। आधी लस्सी पीने के बाद उनको आराम फरमाते झींगुर महाशय दिखे, उनको तो गिलास से बाहर निकाल दिया गया और लस्सी बनाने वाले को जेल के अंदर। कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की अपनी शान होती है लस्सी में झींगुर? और कुर्सी पर बैठने वाला चुपचाप कैसे रह सकता है? झींगुर हत्या के अपराध में लस्सी वाला बासू आज जेल की सलाखों के पीछे है। मामला संगीन बना दिया गया। अधिकारी ने भी न्याय किया और अपना आन बान और शान से बासू का मुकद्दर लिख दिया।

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