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यहां साक्षात निकल रहे 'भगवान शिव', खुद देखें अपनी आंखों से
कहा तो यह भी जाता है कि यहां से इसी तरह की एक और विष्णु की मूर्ति मिली जिसे भारतीय पुरातत्व विभाग ने लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित रखा है। इतिहासकारों के मुताबिक सबसे पहले इस पुरास्थल का उल्लेख ए फ्यूहरर ने अपनी पुस्तक द मान्यूमेंटल एंडिक्विटीज एंड इंस्क्रिप्संस इन द नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज एंड अवध में किया।
रजनीश मिश्र
गाजीपुर: जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर दूर छोटी सरयू (टोस नदी) के किनारे स्थित लखनेस्वर किले का खंडहर अपने अवसान के सदियों बाद भी लोगों के लिए रहस्य तो पुरातत्व वेत्ताओं के लिए अबूझ पहेली बना हुआ है । इतिहास बन चुका यह किला आम जनमानस में लखनेश्वर डिह के नाम से जाना जाता है। यही नहीं यह किला दो जिलों (गाजीपुर और बलिया) के सरहदों को निर्धारित भी करता है ।
रहस्यों से भरी है ये जगह
किले की प्राचीर को छू कर निकलती छोटी सरयू के दो छोर विधानसभा क्षेत्रों (जहुराबाद और रसड़ा) का भी सीमा निर्धारित करता है । लगभग 15 एकड़ क्षेत्र में फैले किले के हवंसा वशेष बताते हैं कि यह अपने वैभव काल में कई राजवंशों के उत्थान और पतन का भी गवाह रहा है । किले के खंडहरों पर एक तरफ भगवान विष्णु और दूसरी तरफ शिव का मंदिर है तो वहीं एक छोर पर प्रसिद्ध सूफी संत रोशन शाह व जमाल पीर का मजार है ।
1949 में आया सामने
समय के गर्भ में समाए इस किले का रहस्य सन 1949 टीले पर स्थित शिव मंदिर के बगल में हल जोतते समय भगवान विष्णु की लगभग 150 सेंटीमीटर ऊंची काले रंग की प्रतिमा मिली जो यहां के मंदिर में प्रतिष्ठित की गई है।
कहा तो यह भी जाता है कि यहां से इसी तरह की एक और विष्णु की मूर्ति मिली जिसे भारतीय पुरातत्व विभाग ने लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित रखा है। इतिहासकारों के मुताबिक सबसे पहले इस पुरास्थल का उल्लेख ए फ्यूहरर ने अपनी पुस्तक द मान्यूमेंटल एंडिक्विटीज एंड इंस्क्रिप्संस इन द नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज एंड अवध में किया।
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इतिहासकारों का मानना है कि यह मूर्ति आठवीं या नवीं शताब्दी की होगी
इसके बाद सन 1956-57 में श्री एम.एम. नागर ने यहां पर खुदाई करवाई। खुदाई में यहां से काले रंग के मिट़़टी के बर्तन, पत्थर व पकी हुई मिट्टी की वस्तुए मिलीं। कुछ इतिहासकारों का मनना है कि यह मूर्ति गुप्तकालीन है वहीं कुछ इतिहासकार इस मूर्ति को पालकालीन मानते हैं।
इतिहासकारों का मानना है कि यह मूर्ति आठवीं या नवीं शताब्दी की होगी। इसके अलावा लखनेश्वरडीह से ही एक टूटी हुई सफेल बलुआ पत्थर की आकृति भी मिली है, जो एक पत्थर पर उकेरी गई है। इस मूर्ति का कमर से ऊपर का भाग टूटा हुआ है, जबकि नीचले हिस्से में एक बैठी हुई आकृति का पैर नीचे की ओर लटक रहा है। इस मूर्ति का दाहिना पैर बैल की पीठ पर और बांया एक बाघ के पीठ पर है।
इन दोनों पशुओं के बगल में दो मूर्तियां और हैं, वहीं सिंह के बगल में नारी की आकृति है, जिसे देख कर ऐसा लगता है कि यह भगवान शिव की गोद में बैठी पार्वती की मूर्ति रही होगी। मूर्ति विशेषज्ञों के अनुसार यह हर-गौरी की ही है। यह मूर्ति भी लखनऊ संग्रहालय में रखी हुई है। डा. ब्रह़मानंद सिंह ने भी अपनी शोध पत्रिका व बलिया का प्रारंभिक इतिहास में इस पुरस्थल का उल्लेख किया है।
किस राजवंश का है यह किला
लखनेश्वर डीह के किले को लेकर लोग तरह-तरह के कयास लगाते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह किला गुप्त राजवंशों का रहा होगा। क्योंकि गुप्त काल में वैष्णव व शैव धर्म पुष्पित व पल्लवित हुआ। इस काल में विष्णु व शिव मंदिर का निर्माण अपनी चरम पर था। क्योंकि इस टीले से आज भी विष्णु के अलावा कई शिव लिंग मिलते हैं।
जिन्हें इस टीले पर जग-जग प्रतिष्ठित किया गया है। वहीं कुछ लोग इस किले को राजभरों का किला मानते हैं। इसके पीछे वह कई तर्क भी देते हैं। यहां तक कि यह किला मौजूदा समय में राजनीति की धूरी भी बन गया है। लेकिन एक वर्ग और भी है जो इस किले को विशुद़ध रूप से गुप्त राजवंशों का मिला मानता है।
उनका कहना है कि हो सकता है कि इसकिले का सामंत राजभर रहा हो जो गुप्त वंश के पतन के बाद लखनेश्वर किले का अधिपति बन बैठा हो। वहीं कुछ इस किले को कुषाण कालीन मानते हैं। उनका तर्क इस किले से मिली लाल बलुआ रंग पत्थर की बनी मूर्ति पर केंद्रीत है। वे कहते हैं कि कुषाण काल में जो भी मूर्तियां बनती थी वे लाल बलुए पत्थर की बनाई जाती थीं। जैसा कि इससे लाल रंग की कुछ मूर्तियां मिली हैं।
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किला था या मंदिर
लखनेश्वर डीह किला था या भव्य मंदिर। इस बात को लेकर समान्य जनमानस में तरह तरह के कयास लगाए जा रहे है। कुछ लोगों का मनाना है कि यह राजभरों का किला था, वहीं कुछ लोग इस पुरातात्विक स्थल को मंदिर की जगह मानते है। हलांकि जब अंग्रेज इतिहासकार ए फ़यूहर ने इस स्थल की पहचान की थी उस समय भी उसने यह जिक्र नहीं किया कि इस स्थान पर कोई भव्य किला था या मंदिर।
यही नहीं जब 1956-57 में श्री एमएम नागर ने यहां पर खुदाई करवाई तो उन्हें भी कोई ऐसी वस्तु नहीं मिली जो इसे किसी राजा का किला साबित करती। अलबत्ता यह जरूर हुआ कि इस स्थल से मिट़टी के पुराने वर्तन, पत्थर की मूर्तियों के अवशेष, तोरण द्वारा व प्रचूर मात्रा में छोटे व बडे आकाश के शिवलिंग, विष्णु व पार्वति की मूर्तियां कुछ जानवरों की मूर्तियां जरूरी मिली जो इस तरफ इशारा जरूर करती हैं लखनेश्वर डीह किला नहीं बल्कि गुप्तोत्तर कालीन राजाओं द्वारा बनवाया गया भव्य मंदिर था। इस बात को पौराणिक कथाओं व किंबदंतियों से भी बल मिलता है, जिसमें राम, लक्ष्मण व विश्वामित्र के आने और शिवलिंग की स्थापना की बात कही जाती है। इसकी पुष्टि प्रो: इंद्रजीत सिंह गोगवानी भी करते हैं।
कौन हैं राजभर और क्यों किया जाता है इस किले पर राजभरों का दावा :
डा. ब्रह़मानंद सिंह अपनी पुस्तक बलिया का प्रारंभिक इतिहास में राजभर जातियों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि गुप्त साम्राज्य के विघटन के बाद इस क्षेत्र में जिन शक्तियों का उदय हुआ उनमें भर और चेरु प्रमुख थे। डा. सिंह अपनी पुस्तक में उल्लेख करते हैं राहुल सांस्कृत्यान के अनुसार भर जाति सिंधु सभ्यता की जननी थी और आर्यो के आने से पहले वह इस क्षेत्र में मौजूद थीं।
जबकि इतिहासकार बुकानन ने भर जाति को बिहार के पूर्णिया जिेले में बसे हुए भांवर जाति के समकक्ष माना है। यही नहीं काशी प्रसाद जायसवाल ने अपनी पुस्तक 'अंधेर युगीन भारत' में भारशिववंश का क्षत्रिय माना है।
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गाजीपुर के गंगा तटीय क्षेत्र में इनके बनाए भवनों के अनेक खंडहर आज भी दिखाई देते हैं
पांचवी सदी में गुप्त राजवंश का सूर्य अस्त होने के बाद भर जाति के लोगों ने अपनी स्थिति काफी मजबूत कर ली। फलत: वाराणसी व गाजीपुर के गंगा तटीय क्षेत्र में इनके बनाए भवनों के अनेक खंडहर आज भी दिखाई देते हैं। वहीं ए. हसन व जेरी दास द्वारा संपादित ' पीपुल आँफ इंडिया उत्तर प्रदेश वॉल्यूम पार्ट वन' के अंतिम शासक को जौनपुर के सुल्तान इ्ब्राहिम शाह शर्की ने मारा था। ए. हसन के अनुसार उत्तर मध्यकाल में राजभरों के छोटे-छोटे कबिले स्थापित थे।
पूर्वि उत्तर प्रदेश में इनके छोटे -छोटे राज्य थे जिनको मुगल व राजपूतों ने विस्थापित कर इनके राज्यों पर कब्जा कर लिया। वहीं डा. ब्रह़मानंद सिंह के अनुसार भर जनजातियों पर पश्चिम से आए राजपूतों ने धावा बोल दिया और उन्
हें अपने अधीन कर छिन्न-भिन्न कर दिया। डा. सिंह कहते हैं कि अग्रेजों के गजेटियर में भी राजभर जातियों और उनकी जागिरों का उल्लेख मिलता है।
शायद इतिहास के इन्हीं तर्कों के आधार पर राजभर इस किले को राजभरों का किला बताते हों। लेकिन यह किला किसका है और इसके गर्भ में, मिलते शिवलिंग व मूर्तियों का रहस्य क्या है। यह तो लखनेश्वर डीह गर्भ में समाहित है। इन रहस्यों से पर्दा उठाने के लिए पुरातत्व विभाग के निर्देशन में विस्तृत खुदाई की जरूरत है। आज भी खुदाई के समय यहां से शिवलिंग मिलते है।