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हर शाख पे उल्लू बैठे हैं... किसने और कब लिखा, क्या ये राज जानते हैं आप

6 जून 1884 को पैदा हुए और 13 जनवरी 1964 को इस फानी दुनिया से कूच कर गए रियासत हुसैन रिजवी को शायद कोई जान भी न पाता अगर रिटायर्ड इंजीनियर ताहिर हुसैन रिजवी ने उनके बारे में एक दशक तक शोध करके जानकारी न जुटाई होती।

SK Gautam
Published on: 13 Jan 2021 9:00 AM GMT
हर शाख पे उल्लू बैठे हैं... किसने और कब लिखा, क्या ये राज जानते हैं आप
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हर शाख पे उल्लू बैठे हैं... किसने और कब लिखा, क्या ये राज जानते हैं आप

रामकृष्ण वाजपेयी

शौक़ बहराइची एक ऐसा नाम है जो जब तक जिंदा रहा अपनी धुन में कहता गया। किसी ने समझा तो ठीक नहीं समझा तो ठीक। शिकायत कैसी। किसी ने न जाना, न पहचाना कभी कोई शिकायत न रही। 6 जून 1884 को पैदा हुए और 13 जनवरी 1964 को इस फानी दुनिया से कूच कर गए रियासत हुसैन रिजवी को शायद कोई जान भी न पाता अगर रिटायर्ड इंजीनियर ताहिर हुसैन रिजवी ने उनके बारे में एक दशक तक शोध करके जानकारी न जुटाई होती। ताहिर हुसैन ने उनके जहां तहां बिखरे शेरों को एक किताब की शक्ल दी और तूफान के रूप में वह सामने आई।

कौन हैं शौक़ बहराइची?

शौक बहराइची का जन्म 6 जून 1884 को अयोध्या के सैयदवाड़ा मोहल्ले में हुआ था। लेकिन जन्म के बाद बहराइच में बस जाने से उनके नाम के साथ बहराइच जुड़ गया। शौक़ बहराइची का वास्तविक नाम ‘रियासत हुसैन रिज़वी’ था।

देश में आजादी के तत्काल बाद उन्होंने भ्रष्टाचार को जो महसूस किया वह आज भी अक्षरशः सही है। ये एक ऐसा कटाक्ष है जो लोग जहां तहां प्रयोग करते रहते हैं। लेकिन अफसोस इस शेर का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर लोगों कों यह पता ही नहीं है कि इस शेर को लिखने वाले शायर का नाम ‘शौक़ बहराइची’ है।

वो शेर है-

‘बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी है

हर शाख पे उल्लू बैठे हैं अंजाम ऐ गुलिस्तां क्या होगा।’

मुफलिसी शौक़ की वफादार साथी रही

मुफलिसी शौक़ की वफादार साथी रही। एक साधारण मुस्लिम शिया परिवार में जन्म हुआ। जो बाद में बहराइच जाकर बस गया। संभवतः इस कारण इनके नाम के साथ बहराइची जुड़ गया। लेकिन ग़रीबी में शायरी मजबूत होती गई। रियासत हुसैन रिज़वी ‘शौक़ बहराइची’ के नाम से शायरी के नए आयाम गढ़ने लगे। जैसा कि तमाम जगह उल्लेख आया है उनकी मौत के तकरीबन 50 साल बाद बहराइच जनपद के निवासी व लोक निर्माण विभाग के रिटायर्ड इंजीनियर ताहिर हुसैन नक़वी ने नौ वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद उनके शेरों को संकलित कर ‘तूफ़ान’ किताब की शक्ल दी गयी है।

har sakh pe ullu baitha

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ग़रीबी में ही 'शौक़' ने गुजारी जिंदगी

जितने मशहूर अंतर्राष्ट्रीय शायर शौक़ साहब हुआ करते थे उतनी ही मुश्किलें उनके शेरों को ढूँढने में रिटायर्ड इंजीनियर ताहिर हुसैन नक़वी को आईं। निहायत ही ग़रीबी में जीने वाले शौक़ की मौत के बाद उनकी पीढ़ियों को भी विरासत में मिली गरीबी के चलते उनके कलाम या शेरों को सहेजने की सुध नहीं रही।

ऐसे में ताहिर को अपनी खोज के दौरान तमाम शेर कबाड़ी की दुकानों से खुशामत करके और ढूंढ-ढूंढकर खोजने पड़े। शौक़ बहराइची की एक मात्र आयल पेंटिग वाली फोटो भी एक कबाड़ी की ही दुकान पर मिली अन्यथा इनकी कोई भी फोटो मौजूद नहीं थी।

व्यंग्य, जिसे उर्दू में तंज ओ मजाहिया कहा जाता है, इसी विधा के शायर शौक़ बहराइची ने अपना वह मशहूर शेर बहराइच की कैसरगंज विधानसभा से विधायक और 1957 के प्रदेश मंत्री मंडल में कैबिनेट स्वास्थ मंत्री रहे हुकुम सिंह की एक स्वागत सभा में पढ़ा था, जहाँ से वह मशहूर होता चला गया। शेर जो प्रचलित है उसमें और उनके लिखे में थोड़ा सा अंतर कहीं कहीं होता रहता है।

सही शेर यह है-

“बर्बाद ऐ गुलशन कि खातिर बस एक ही उल्लू काफ़ी था,

हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम ऐ गुलशन क्या होगा”

शौक़ लंबे समय तक गुमनाम रहे। और इस पर उनका ही एक और मशहूर शेर सही बैठता है-

“अल्लाहो गनी इस दुनिया में,

सरमाया परस्ती का आलम,

बेज़र का कोई बहनोई नहीं,

ज़रदार के लाखों साले हैं”

शौक़ बहराइची को आज़ादी के बाद सरकार की ओर से कुछ पेंशन बाँध देने के बाद भी जब पेंशन की रकम उन तक नहीं पहुंची तो बहुत बीमार चल रहे शायर शौक़ ने उस पर भी तंज कर ही दिया-

“सांस फूलेगी खांसी सिवा आएगी,

लब पे जान हजी बराह आएगी,

दादे फ़ानी से जब शौक़ उठ जाएगा,

तब मसीहा के घर से दवा आएगी”

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