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विलुप्त हो रही कजरी: पूर्वांचल के माटी की है पहचान, अब खो गई बदलाव में

जनपद जौनपुर में कजरी के बाद कुछ कवि ऐसे थे जो आकाशवाणी पर कजरी का गायन प्रस्तुत करते रहे हैं। आज इस दुनियां में नहीं है लेकिन उनके कुछ शिष्य है जो कजरी लोक गीत की परंपरा को आगे तो बढ़ा रहे हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या अब न के बराबर है।

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Published on: 7 July 2020 5:28 PM IST
विलुप्त हो रही कजरी: पूर्वांचल के माटी की है पहचान, अब खो गई बदलाव में
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जौनपुर। पूर्वांचल की माटी और संस्कृति से जुड़ा लोक गीत कजरी अब विलुप्तता के कगार पर पहुंचता नजर आ रहा है। विगत एक दशक पूर्व सावन मास शुरू होने के साथ ही कजरी लोक गीत की शुरुआत हो जाती रही और लगभग सावन भादों तक इस लोक गीत के लिए दंगल का आयोजन कर जन मानस आनन्द उठाते रहे हैं। पूर्वांचल के मिर्जापुर, वाराणसी सहित जौनपुर की कजरी प्रदेश में विख्यात रही है। लेकिन आज समाज जिस तरह से पाश्चात्य संस्कृति की तरफ भाग रहा है उससे अपनी संस्कृति और पहचान विलुप्त सी होती जा रही है।

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विरह रस की अभिव्यक्ति से लेकर शिव पार्वती के श्रृंगार तक

एक दशक पहले की बात है सावन मास शुरू होते ही रिमझिम फुहारो के बीच महिलायें रात्रि के समय झूला झूलते समय अपनी सुरीली आवाज से जब कजरी का गायन करती थी तो पूरा वातावरण खुशनुमा हो जाता था। महिलायें अपने कजरी लोक गीत के माध्यम से पिया के प्रति जो संवेदना व्यक्त करती थी वह अपने आप में अद्वितीय होता था। साथ ही विरह रस की अभिव्यक्ति से लेकर शिव पार्वती के श्रृंगार तक की दास्तां कजरी के माध्यम से ऐसा प्रस्तुत करती थी कि श्रोताओं के मन मुग्ध हो जाते थे। आज आधुनिकता के दौर में वह सब कुछ इतिहास के पन्नों की बात हो गया है।

आकाशवाणी पर कजरी का गायन प्रस्तुत करते रहे

यहाँ बता दे कि जनपद जौनपुर में कजरी के बाद कुछ कवि ऐसे थे जो आकाशवाणी पर कजरी का गायन प्रस्तुत करते रहे हैं। आज इस दुनियां में नहीं है लेकिन उनके कुछ शिष्य है जो कजरी लोक गीत की परंपरा को आगे तो बढ़ा रहे हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या अब न के बराबर है। जनपद जौनपुर में रहमान शाह नाम के बड़े कजरी लोकगीत के रचनाकार थे जो मुसलमान होकर भी इस संस्कृति के वाहक बने हुए थे।

जौनपुर सहित आजमगढ़ गाजीपुर आदि जनपदों में कजरी के गायक स्व. रहमान शाह की रचित लोक गीत कजरी गया करते थे। इस लोकगीत में कृष्ण और राम सहित तमाम देवी देवताओं के उपर रचित कजरी जहां लोग आह्लादित होते थे वहीं पर धार्मिक ज्ञान की प्राप्ति भी करते रहे है। इसी तरह सब्बन कौव्वाल भी ऐसे कवि रहे जो कव्वाली के साथ कजरी का भी गायन करते हुए मनोरंजन करने का काम करते रहे है।

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महिलायें भी कजरी के पर्व पर झूला झूलते हुए गाती रही है

कजरी एक ऐसा लोक गीत जिसे पुरूषों के अलावां महिलायें भी कजरी के पर्व पर झूला झूलते हुए गाती रही है जिसमें राधा और कृष्ण के प्रेम का रस टपकता था। यह परम्परा ग्रामीण इलाकों में अधिक थी। गांव के खेतों में धान की रोपाई के समय कजरी का गायन करते हुए महिलायें बिना थके बिना रूके पूरे दिन खेत में काम करते हुए ताजगी का एहसास करती थी। कजरी गांव के चौपालों से लगायत दूर दर्शन तक पूर्वांचल में लोकप्रिय थी। लेकिन आज इस धरोहर को अब सुनने के लिए कान तरस जा रहे है।

मिर्जापुर की कजरी खासी मशहूर

यहाँ बताना चाहेंगे कि पूर्वांचल में मिर्जापुर की कजरी खासी मशहूर थी। यही के बरिष्ट कवि पं. हरीराम द्विवेदी जो साहित्य के साथ कजरी के बड़े रचयिता है। इनके द्वारा कजरी लोक गीत का गायन आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी किया गया है आज भी सावन मास में इनको आकाशवाणी से आमंत्रित किया जाता है। इनका मानना है कि इस लोकगीत के प्रति जो रूचि एक दशक पहले समाज के लोगों में थी आज वह रूचि नहीं है यही कारण है कि इसके गायक भी इधर से मुख मोड़ने लगे हैं। इस लोकगीत में ढुरने की जो प्रथा थी वह अत्यंत ही अद्भुत एवं अद्वितीय रहीं हैं। एक साथ एक लय में इसका गायन करना साधारण बात नहीं है। सबसे खास बात इस लोकगीत में रही है कि कोई साज श्रिंगार नहीं होता रहा कजरी गाने वाले चुटकी बजा कर सुरों को पिरोने का काम करते रहे है।

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सखिंया सुना शहर कै बतिया, नदिया किला बहवले जाय

मिर्जापुर के साथ ही बनारसी कजरी भी खासी लोकप्रिय रही यहाँ के कजरी गायक हाथों में घुंघरू बाध कर चुटकी के साथ उसके धुन निकालते हुए कजरी का गायन करते रहे है। यह लोक गीत पूर्वांचल की परम्परा बनते हुए यहाँ की माटी में रच बस गया था लेकिन आज धीरे धीरे यह गीत अपने विलुप्तता की ओर बढ़ता ही जा रहा है। हम अपनी परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं ।

यहाँ बतादे कि जौनपुर में सन् 1955 - 56 गोमती नदी में भयानक बाढ़ आयी थी उस समय कजरी का गायन करने वालों ने कजरी बनाया, "सखिंया सुना शहर कै बतिया, नदिया किला बहवले जाय ," उस समय यह कजरी खासी लोकप्रिय रही । इसके अलावां महिलाओं की कजरी ,"हरे रामा जुटै मुरैला बाग, देखन हम जाबै रे सखी, " सावन मास में भगवान शंकर पार्वती पर आधारित कजरी गीत, शंकर चले वियाहन बूढ़े बैल सवरिया, दुवरिया मैना रानी के घरे, " कजरी के ये सब बोल अब सुनने को नहीं मिल रहे है। सबसे खास बात यह रही कि कजरी में भोजपुरी भाषा का अधिक प्रयोग होता रहा जो क्षेत्रियता का बोध करता रहा है।

आपस में अपनत्व का अहसास करते रहे

कजरी क्षेत्रियता का बोध कराने के साथ समाज को एक धागे में पिरोते हुए एकता कायम करने का काम करती थी। साथ ही सावन मास में हरियाली का अहसास करते हुए मानव को विकास का मार्ग खोलती रही लोग सहकारिता की भावना से एक दूसरे का मदत गार बनते थे वह भी आज खत्म हो गया है। इस तरह कजरी की विलुप्तता के साथ तमाम सहयोगी परम्पराये भी खत्म होती जा रही है। हमारे समाज को अपने इस धरोहर को बचाने संजोने की जरूरत है ताकि हम आपस में अपनत्व का अहसास करते रहे।

रिपोर्टर- कपिल देव मौर्या, जौनपुर

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