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Manikarnika Ghat Video: मोक्ष घाट-मणिकर्णिका घाट, आइये जाने इसके अनसुलझे रहस्य, वीडियो में देखने वाराणसी से ये खास रिपोर्ट

Varanasi Manikarnika Ghat History: काशी को बनारस और वाराणसी के नाम से भी जाना जाता है। एक ऐसा शहर जो विश्व के प्राचीन शहरों में से एक है । यहाँ 84 घाट हैं। जिसकी अपनी -अपनी विशेषता है । इनमें कुछ घाटों का धार्मिक व अध्यात्मिक महत्त्व है।

Akshita Pidiha
Published on: 26 April 2023 1:49 PM IST (Updated on: 26 April 2023 8:45 PM IST)

Manikarnika Ghat Video: कोई ऐसा शहर जो अपने घाटों से जाना जाता है तो वह काशी ही है । काशी को बनारस और वाराणसी के नाम से भी जाना जाता है। एक ऐसा शहर जो विश्व के प्राचीन शहरों में से एक है । यहाँ 84 घाट हैं। जिसकी अपनी -अपनी विशेषता है । इनमें कुछ घाटों का धार्मिक व अध्यात्मिक महत्त्व है। कुछ घाट अपनी प्राचीनता तो कुछ ऐतिहासिकता व कुछ कला के लिहाज़ से ख़ासियत रखते हैं। सभी घाटों के पूर्वार्भिमुख होने से सूर्योदय के समय घाटों पर सूर्य की पहली किरण दस्तक देती है।

अस्सी घाट- इस घाट में की गंगा आरती को देखने प्रतिदिन हजारों की संख्या में लोग पहुँचते हैं ।
हरिश्चंद्र घाट- इस घाट पर हिन्दू मरणोपरांत दाह संस्कार करते हैं।
दशाश्वमेध घाट- प्राचीन ग्रंथों के मुताबिक़ राजा दिवोदास द्वारा यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ कराने के कारण इसका नाम 'दशाश्वमेध घाट' पड़ा।
मणिकर्णिका घाट- पौराणिक मान्यताओं से जुड़े मणिकर्णिका घाट का धर्मप्राण जनता में मरणोपरांत अंतिम संस्कार के लिहाज़ से अत्यधिक महत्त्व है।
पर आज हम मणिकर्णिका घाट के बारे में विस्तार से जानेंगें ।

इस घाट की गणना काशी के पंचतीर्थो में की जाती है।मणिकर्णिका घाट पर स्थित भवनों का निर्माण पेशवा बाजीराव तथा अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था।हिंदुओं के लिए इस घाट को अंतिम संस्कार के लिए सबसे पवित्र माना जाता है। बताया जाता है कि मणिकर्णिका घाट को भगवान शिव ने अनंत शांति का वरदान दिया है। इस घाट पर पहुंचकर ही जीवन की असलियत के बारे में पता चलता है। इस घाट की विशेषता है कि यहां चिता की आग कभी शांत नहीं होती है, यानी यहां हर समय किसी ना किसी का शवदाह हो रहा होता है। हर रोज यहां 200 से 300 शव का अंतिम संस्कार किया जाता है।
मान्यता यह भी है कि भगवान शिव और माता पार्वती के स्नान के लिए यहां भगवान विष्णु ने कुंड का निर्माण किया था, जिसे लोग अब मणिकर्णिका कुंड के नाम से जानते हैं। स्नान के दौरान माता पार्वती का कर्ण फूल कुंड में गिर गया, जिसे महादेव ने ढूंढ कर निकाला। देवी पार्वती के कर्णफूल के नाम पर इस घाट का नाम मणिकर्णिका हुआ।
इस घाट की एक और मान्यता यह है कि भगवान शंकरजी द्वारा माता सती के पार्थिव शरीर का अग्नि संस्कार मणिकर्णिका घाट पर किया गया था जिस कारण से इसे महाश्मशान भी कहते हैं। मोक्ष की चाह रखने वाला इंसान जीवन के अंतिम पड़ाव में यहां आने की कामना करता है।

मणिकर्णिका घाट पर महोत्सव

जलते मुर्दों के बीच साल में एक बार मणिकर्णिका घाट पर महोत्सव भी होता है। यह महोत्सव चैत्र नवरात्र की सप्तमी की रात में होता है। इस महोत्सव में पैरों में घुघंरू बांधी हुई नगर वधुओं (सेक्‍स वर्कर) हिस्सा लेती हैं। महाश्‍मशान पर अनूठी साधना की परंपरा श्‍मशान नाथ महोत्‍सव का हिस्‍सा है। ऐसा माना जाता है कि श्मशान नाथ उत्सव में महाश्मशान की वजह से जब कोई कलाकार संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए तैयार नहीं हुआ तो मानसिंह ने नगर वधुओं को आमंत्रण भेजकर बुलवाया। वे इसे स्वीकार कर पूरी रात महाश्मशान पर नृत्य करती रहीं। तब से यह उत्सव काशी की परंपरा का हिस्सा बन गया।मौत के मातम के बीच वे नाचती-गाती हैं।नाचते हुए वे ईश्वर से प्रार्थना करती हैं कि उनको अगले जन्म में ऐसा जीवन ना मिले। मान्‍यता है कि जलती चिताओं के सामने नटराज को साक्षी मानकर वे यहां नाचेंगी तो अगले जन्‍म में नगरवधू का कलंक नहीं झेलना पड़ेगा। यह परंपरा अकबर काल में आमेर के राजा सवाई मान सिंह के समय से शुरू होकर अब तक चली आ रही है। मान सिंह ने ही 1585 में मणिकर्णिका घाट पर मंदिर का निर्माण करवाया था।

पुराणों में यह भी बताया गया है कि इस स्थान पर आकर मौत भी दर्द हीन हो जाती है जिसका मतलब हुआ कि इस स्थान पर जिस भी व्यक्ति की मृत्यु होती है उसे किसी भी दर्द की अनुभूति नहीं होती है। यह सिंधिया घाट और दशाश्वमेध घाट दोनों के बीच में बसा हुआ है। इतिहास की बात करें तो यह इस शहर में मौजूद सबसे पुराने घाटों में से एक है। वास्तव में मणिकर्णिका घाट का उल्लेख 5वीं शताब्दी के एक गुप्त अभिलेख में भी मिलता है।

शक्ति पीठ के रूप में स्थापित

हिंदू धर्म में भी इसका सम्मान किया जाता है।मणिकर्णिका घाट पर माता सती की कान की बालियां गिरीं, इसलिए इसे एक शक्ति पीठ के रूप में स्थापित किया गया और इसका नाम मणिकर्णिका रखा गया क्योंकि संस्कृत में मणिकर्ण का अर्थ है कान की बाली। उसी समय से यह स्थान विशेष महत्व रखता है।
यह घाट बनारस के 84 घाटों में से सबसे ज्यादा मशहूर है। इसे मोक्ष का प्रतीक माना जाता है। दूर विदेशों से भी इस घाट को देखने लोग आते हैं और इसकी खूबियों का बखान दूर तक होता है।

मणिकर्ण‍िका घाट पर महिलाओं का जाना वर्जित

दिन भर में 100 से 300 शवों का दाह संस्कार यहां पर होता है, इसलिए यहां पर महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। वैसे तो यहां पर रात को अग्नि नहीं दी जाती है, लेकिन अगर विशेष कारणों से अग्नि दी भी जानी पड़े तो उस संस्कार में परिजनों को शामिल नहीं किया जाता है।

तीर्थ की उपाधि

गंगा नदी के तट पर यह एक शमशान घाट है जिसे तीर्थ की उपाधि प्राप्त है। कहते हैं यहां कि चिता की आग कभी शांत नहीं होती है।हर रोज यहां 300 से ज्यादा शवों को जलाया जाता है। यहां पर जिसका भी अंतिम संस्कार होता है, उसको सीधे मोक्ष मिलता है। इस घाट में 3000 साल से भी ज्यादा समय से ये कार्य होते आ रहा है।

चिता की राख से होली

मणिकर्णिका घाट में फाल्गुन माह की एकादशी के दिन चिता की राख से होली खेली जाती है। कहते हैं, इस दिन शिव के रूप विश्वनाथन बाबा, अपनी पत्नी पार्वती जी का गौना कराकर अपने देश लोटे थे। इनकी डोली जब यहां से गुजरती है तो इस घाट के पास के सभी अघोरी बाबा लोग नाच गाने, रंगों से इनका स्वागत करते है।

कुंड से निकली प्रतिमा

प्राचीन काल में मां मणिकर्णिका की अष्टधातु की प्रतिमा इसी कुंड से निकली थी। कहते हैं कि यह प्रतिमा वर्षभर ब्रह्मनाल स्थित मंदिर में विराजमान रहती है । परंतु अक्षय तृतीया को सवारी निकालकर पूजन-दर्शन के लिए प्रतिमा कुंड में स्थित 10 फीट ऊंचे पीतल के आसन पर विराजमान कराई जाती है। इस दौरान कुंड का जल सिद्ध हो जाता है जहां स्नान करने से मुक्ति मिलती है।

शव से पूछते हैं कि कहां है कुंडल

यहां पर शव से पूछते हैं- 'क्या उसने शिव के कान का कुंडल देखा''। ऐसा भी कहा जाता है कि जब भी यहां जिसका दाह संस्कार किया जाता है अग्निदाह से पूर्व उससे पूछा जाता है, क्या उसने भगवान शिव के कान का कुंडल देखा। यहां भगवान शिव अपने औघढ़ स्वरूप में सैदव ही निवास करते हैं।

मणिकर्णिका घाट, तंत्र साधना रहस्य क्षेत्र

यहाँ अनेक तंत्र जल्दी सिद्ध हो जाते हैं ।अघोरी हो या अन्य कोई भी तांत्रिक वो यहाँ भगवान काल भैरव और भोलेनाथ जी की आज्ञा से ही सिद्धियां प्राप्त करता हैं ।पर ये क्रियाएँ रात के अंधेरे में की जाती हैं ।और ये क्रियाएँ विशेषतः प्रमुख घाट से अलग जगह पर होती हैं । वाराणसी या काशी। यहाँ स्थान तंत्र शक्तिओं के साधना हेतु सर्वोत्तम माना जाता हैं, भगवान शिव यहाँ सर्वदा, साक्षात् विराजमान रहते हैं। आदि काल से ही काशी या वाराणसी का प्रयोग तांत्रिक साधनाओं तथा क्रियाओं द्वारा किया जाता हैं।तामसिक क्रिया करने के लिए नरमुंडो में खप्‍पर भरकर 40 मिनट तक आरती की जाती है। तामसिक साधना करने वालों को चमत्‍कारी सिद्धियां मिलती हैं। इस दौरान साधक अपने मंत्रों और कार्यों को सिद्ध करता है। श्मशान पर बैठकर महाकाली की उपासना और शक्ति का आह्वान किया जाता है। नारियल और नीबू की बलि दी जाती है। इस साधना को तामसी क्रिया कहा जाता है।

दीपावली की रात होती है तंत्र साधना

ऐसी मान्‍यता है कि अनादि काल से देश में दीपावली की रात तंत्र साधना की जाती रही है। मणिकर्णिका घाट पर मशान नाथ मंदिर में भी दीपावली की रात विशेष अनुष्ठान किया जाता है। बाबा की साधना में तामसी भोग के साथ 11 खप्परों को शराब से भरा जाता है। जलती चिताओं के बीच पूजा की जाती है। बताया जाता है कि मणिकर्णिका महाश्मशान वही जगह है, जहां कई सालों की तपस्या के बाद महादेव ने भगवान विष्णु को संसार संचालन का वरदान दिया था। इसी घाट पर शिव ने मोक्ष प्रदान करने की प्रतिज्ञा की थी।
परंतु अब इन घाटों का उपयोग कुछ ढोंगी तांत्रिक और अघोरियों द्वारा अपने व्यापार संचालन के लिए किया जाने लगा है ।
वास्तव में वाराणसी का मणिकर्णिका घाट देश के अनोखे स्थानों में से एक है जो न जाने कितनी विविधताओं को समेटे हुए है। जीवन की वास्तविकता का अद्भुत नजारा देखने सभी को एक बार इस घाट के दर्शन के लिए जरूर जाना चाहिए।



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Akshita Pidiha

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