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Video: न्यायिक सक्रियता पर उठते सवाल, वीडियो में देखें ये खास रिपोर्ट

Judicial Activism: न्यायिक सक्रियता को लेकर प्रतिक्रिया करने वालों की संख्या में बेतहाशा इज़ाफ़ा देखा जा सकता है। आइए जानें आखिर न्यायिक सक्रियता का सही मतलब क्या है?

Yogesh Mishra
Published on: 27 April 2023 1:11 AM IST

Judicial Activism: बहुत लंबे समय से न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) को लेकर उठते सवालों की गूंज सुनी जा रही है। इन दिनों जब समलैंगिक विवाह (Same-sex Marriage) के सवाल पर सर्वोच्च अदालत (Supreme Court) सुनवाई कर रही है तब यह आवाज़ काफ़ी मुखर है। न्यायिक सक्रियता को लेकर प्रतिक्रिया करने वालों की संख्या में बेतहाशा इज़ाफ़ा देखा जा सकता है। लेकिन इसके बीच जब न्यायिक सक्रियता जेर-ए- बहस हो, उस पर सवाल उठ रहे हों तब इसे बिना अपनी बहस का हिस्सा बनाये छोड़ देना उचित नहीं होगा। तटस्थ होना प्रासंगिक नहीं होगा।

कभी निष्क्रिय नहीं रही न्यायपालिका

इस पर हमें अपनी बहस न्यायिक सक्रियता शब्द से ही शुरू करनी चाहिए। सक्रिय तब कहा जायेगा जब कोई चीज़ निष्क्रिय हो। न्यायिक प्रकिया, न्यायपालिका कभी निष्क्रिय नहीं रही। अगर ऐसा होता तो हमारे नौकरशाह तानाशाह बन जाते। राजनेता अराजक नज़र आते। यह नहीं हुआ। मतलब साफ़ है कि न्यायिक सक्रियता निरंतर बनी हुई है। सक्रियता वैसे भी एक सकारात्मक शब्द है। इसका इस्तेमाल हम कुछ ऐसे कर रहे हैं, जैसे कोरोना काल में हम लोगों ने पॉज़िटिव शब्द का इस्तेमाल किया।

सक्रियता से लोगों को आराम ही मिलता है। दरअसल जिस शब्द को लेकर नाराज़गी है। वह शब्द सक्रियता नहीं है। वह हैं न्यायिक अति सक्रियता। इसीलिए जूडिशियल एक्टिविज्म को न्यायिक अति सक्रियता कहा जाये तो शायद लोगों की भावनाओं को हम सही ढंग से प्रकट कर सकेंगे।

भारत की आज़ादी जितना पुराना न्यायिक सक्रियता

ज्यूडिशियल एक्टिविज्म या न्यायिक सक्रियता उतना ही पुराना टर्म है, जितनी भारत की आज़ादी है। सन 1947 में एक अमेरिकन इतिहासकार आर्थर स्लेसिंगर जूनियर ने फार्च्यून पत्रिका में न्यायिक सक्रियता का ही शब्द इस्तेमाल किया था। न्यायिक सक्रियता और भारत का संदर्भ इसलिए ले रहा हूँ क्योंकि यह शब्द हमारी आज़ादी के बरस में उपजा था। स्लेसिंगर के अनुसार, एक न्यायिक एक्टिविस्ट कानून को लचीला मानता है। मानता है कि कानून बना ही इसलिए है कि सर्वाधिक संभव सामाजिक अच्छा किया जाए। पर सर्वोच्च न्यायालय ने 1950 और 1970 के दशक के बीच कई मामलों में भारत के संविधान की जांच की, जिससे कुछ ऐसे मामले सामने आए जिनमें भारत में न्यायिक अतिसक्रियता का प्रयोग किया गया था। स्लेसिंगर के लेख के बाद के वर्षों में, न्यायिक एक्टिविस्ट शब्द को अक्सर नकारात्मक रूप से देखा गया। लेकिन जिस तरह आज हम न्यायिक अतिसक्रियता को निगेटिव अर्थों में लेते हैं। उसके विपरीत स्लेसिंगर ने इस बारे में अपनी कोई राय नहीं बनाई थी कि न्यायिक अतिसक्रियता सकारात्मक है या नकारात्मक।

राजनीतिक गलियारे के दोनों पक्षों ने इसका इस्तेमाल उन फैसलों पर आक्रोश व्यक्त करने के लिए किया जो उन्हें अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं के पक्ष में नहीं मिले थे। स्वीकृत कानूनी मानदंडों से मामूली विचलन के लिए भी न्यायाधीशों पर न्यायिक अति सक्रियता का आरोप लगाया जा सकता है। विभिन्न कारणों से किसी भी जज के खिलाफ न्यायिक अतिसक्रियता के आरोप लगाए जा सकते हैं। यह हो सकता है कि किसी जज ने प्रेसीडेंट या पहले की मिसालों को नजरअंदाज किया हो। संसद या विधायिका द्वारा बनाये गए किसी कानून को खत्म किया हो। या एक निश्चित सामाजिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए गलत उद्देश्यों के साथ कोई निर्णय लिखा हो। ये सब किसी भी देश में हो सकता है। अमेरिका की तरफ देखें तो पाएंगे कि वहां न्यायिक अतिसक्रियता के ढेरों उदाहरण हैं। एक बड़ा उदाहरण 1973 का रो बनाम वेड मामला है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात के संवैधानिक अधिकार की व्यवस्था बना दी थी। 30 साल बाद वही व्यवस्था पलट दी गई है। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं।

भारत की बात करें तो पाएंगे कि आजादी के बाद के पहले दशक में न्यायिक अतिसक्रियता का कोई उदाहरण नहीं मिलता है। लेकिन साठ व सत्तर के दशक में हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य, ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन, एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ आदि। गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य के एक मामले में बहस छिड़ गई थी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भारत के संविधान के भाग तीन के तहत उल्लिखित अधिकारों को संशोधित नहीं किया जा सकता है। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गोलक नाथ के फैसले को खारिज तो कर दिया था। लेकिन कोर्ट ने यह भी कहा कि संविधान के भाग तीन के बारे में संवैधानिक ढांचे को बदला नहीं जा सकता है। विशाखा बनाम राजस्थान राज्य जैसे कुछ मामलों में, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ हद तक विधायिका की भूमिका निभाते हुए नियम और विनियम तैयार करने के लिए एक कदम आगे बढ़ा दिए थे। इस तरह की अति सक्रियता हाईकोर्ट के स्तर पर अक्सर ही दिखाई देती है जहां माननीय न्यायाधीश अपनी निजी राय को फैसले की शक्ल दे देते हैं।

कुछ सालों में भारत में ही फली-फूली न्यायिक अति सक्रियता

मैंने नोटिस किया है कि 1990 के दशक की शुरुआत से, भारतीय अदालतों ने शासन में भ्रष्टाचार से लेकर विधायी मामलों और राजनीतिक और नीतिगत मामलों तक के मामलों पर कुछ ज्यादा ही तेजी के साथ कदम रखा है। आज की अदालतों में एक नया रवैया है जो विधायी और कार्यकारी क्षेत्रों में न्यायपालिका के हस्तक्षेप को दिखाता है। पिछले कुछ वर्षों में, न्यायिक अति सक्रियता सिर्फ भारत में ही फली-फूली है। ऐसा मेरा मानना है। इसका एक उदाहरण जनहित याचिका (पीआईएल) का अतिउत्साहित इस्तेमाल है और इसे खुद सुप्रीम कोर्ट ने माना है।

न्यायिक अतिसक्रियता मुख्य रूप से कार्यपालिका और विधायिकाओं की विफलता के कारण उत्पन्न हुई है। नतीजतन, अदालतें और न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े तत्व अतिसक्रिय हो जाते हैं और संबंधित प्राधिकरण यानी सरकार को कार्रवाई करने के लिए मजबूर करते हैं। मेरी नज़र में इस अतिसक्रियता का एक दुष्परिणाम यह रहा है कि अदालती फैसलों के प्रति कार्यपालिका की गंभीरता, सम्मान और भय लगभग खत्म हो चुका है। हम सब सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के ऐसे दर्जनों आदेशों को जानते हैं जिन्हें कार्यपालिका ने या तो पूरी तरह नजरअंदाज किया या फिर अपने हित में अपने हिसाब से इस्तेमाल किया।

न्यायिक अति सक्रियता को समझने के लिए 'ओवररीच व 'आउटरीच' प्रकिया के बार में समझना ज़रूरी हो जाता है, इन्हीं शब्दों का प्रयोग कर व उन्हीं शब्दों के सहारे प्रकिया गढ़ कर न्यायिक अति सक्रियता को इन दिनों अंजाम दिया जा रहा है। आप कभी उच्च न्यायालय की बहस को सुनें जब कोई प्रशासनिक अफसर की पेशी होती है तो जज साहब क्या क्या कहते हैं, जबकि वे वाक्य उनके फ़ैसले का हिस्सा नहीं होते। लखनऊ की अदालत में हत्या के एक मामले में एक विधायक जी की ज़मानत के लिए अदालत से प्रार्थना की गई पर विधायक जी को दोष मुक्ति मिल गयी। यही नहीं, गोरखपुर की एक अदालत में एक आदमी के खिलाफ जज साहब ने अदालत में न आने को चलते बयासी, तिरासी जारी कर दी। वह अदालत में पेश होने आया तो जज साहब को पता चला कि उसके पिता का नाम ग़लत है। अपने किये पर पछतावा करते हुए उसे अदालत से जेल भेजने की जगह छोड़ दिया। पर पुलिस को उन्होंने क्या कहा कि कुर्की करने पहुँची पुलिस जो अपनी गलती मान वापस आ गई थी, उस ने तीन दिन बाद यह शिनाख्त किया कि पिता का नाम ग़लत है। पर यह वही आदमी है। नतीजतन उसे जेल भेज दिया। हाल फ़िलहाल न्यायिक अति सक्रियता का नमूना समलैंगिक विवाह को लेकर संविधान पीठ में चल रही सुनवाई है। मानो यह लंबी चली तो देश में जाने क्या बरप जायेगा।

इलाहाबाद हाईकोर्ट में दो आला अफ़सरों को केवल इसलिए अदालत में हिरासत में लेने का आदेश दे दिया क्योंकि वित्त विभाग के इन अफ़सरों ने रिटायर्ड न्यायाधीशों को उनकी मनचाही सुविधाएँ देने से मना कर दिया था।

न्यायिक अति सक्रियता के कारणों की भी खोजबीन ज़रूरी

ऐसे में न्यायिक अति सक्रियता के कारणों की भी खोजबीन ज़रूरी है। इसके पीछे जो कारक हैं, वे प्रायः सेवानिवृत्ति के बाद कहीं कोई एडजेस्टमेंट, पद का अनावश्यक प्रभाव दिखाना। देश के तमाम महत्वपूर्ण व संवेदनशील पदों पर बैठे लोगों के लिए यह अनिवार्य है कि वे सेवानिवृत्त होने के साल दो साल कूल ऑफ करने के बाद ही किसी पद पर काम कर सकते हैं, यह नियम हमारे न्यायमूर्तियों पर भी लागू होना चाहिए। न्यायिक अति सक्रियता के मार्फ़त किसी को लाभ पहुँचाने, किसी राजनीतिक दल के लिए काम करने, किसी औद्योगिक घरानों को राहत देने वाले फ़ैसलों के बाद न्यायमूर्तियों को इनके साथ पारी खेलने से दूर रखने के नियम बनाने होंगे। न्यायिक अति सक्रियता इस नजरिए को जन्म देता है कि जब सब कुछ अदालतों को ही करना है तो हम क्यों कुछ करें।ये दोनों बड़ी समस्याएं हैं। जिनसे कैसे हम निपटेंगे, इसका कोई हल नज़र नहीं आता।

( लेखक पत्रकार हैं।)

Yogesh Mishra

Yogesh Mishra

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