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Afghanistan Sharia Law : तालिबान ने कट्टरपंथियों और लड़ाकों के आगे सिर झुकाया, किसी बदलाव की उम्मीद नहीं

Afghanistan Sharia Law : तालिबान के सुप्रीम नेता हेबतुल्लाह अखुंदज़ादा ने प्रधानमंत्री के लिए अपने खास सहयोगी मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद को चुन कर यह साफ कर दिया है कि तालिबानी शासन पूरी तरह धार्मिक यानी शरीयत पर चलेगा।

Neel Mani Lal
Written By Neel Mani LalPublished By Vidushi Mishra
Published on: 8 Sep 2021 4:34 AM GMT
Afghanistan Sharia Law : तालिबान ने कट्टरपंथियों और लड़ाकों के आगे सिर झुकाया, किसी बदलाव की उम्मीद नहीं
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Afghanistan Sharia Law : अफगानिस्तान में तालिबान की अंतरिम सरकार के गठन ने आने वाले दिनों का संकेत दे दिया है। इस अंतरिम सरकार में सभी महत्वपूर्ण पद तालिबान के पुराने नेताओं और हक्कानी नेटवर्क के लोगों में बांटे गए हैं। अंतरिम सरकार में वही चेहरे हैं जो 90 के दशक वाली तालिबानी सरकार में थे। जिन्होंने अमेरिका के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी।

अंतरिम सरकार में जिस तरह व्यापक प्रतिनिधित्व और आधुनिकता की कमी है उससे लगता है कि कैबिनेट के सेलेक्शन में उदारवादी आवाज़ों को अनसुना कर दिया गया है। ऐसे में अफगानिस्तान के तालिबानी शासन में फिलहाल तो किसी नीतिगत बदलाव की उम्मीद नजर नहीं आती है।

तालिबान के सुप्रीम नेता हेबतुल्लाह अखुंदज़ादा ने प्रधानमंत्री के लिए अपने खास सहयोगी मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद को चुन कर यह साफ कर दिया है कि तालिबानी शासन पूरी तरह धार्मिक यानी शरीयत पर चलेगा। अखुंदज़ादा सैन्य कमांडर न हो कर धार्मिक मामलों, इस्लाम और शरीयत के विद्वान माने जाते हैं।

पीएम अखुंद की प्रतिष्ठा भी धार्मिक मामलों से जुड़े रहने के कारण ही है। अखुंद भी सैन्य कमांडर नहीं रहे हैं। अमेरिका के साथ शांतिवार्ता में तालिबान के प्रतिनिधि रहे मुल्ला बरादर को उप प्रधानमंत्री बनाया गया है।

हक्कानी नेटवर्क (Haqqani Network Afghanistan)

अंतरिम सरकार की सबसे महत्वपूर्ण बात हक्कानी नेटवर्क के दो शीर्ष नेताओं का शामिल किया जाना है। हक्कानी नेटवर्क अमेरिका और यूएन की आतंकी सूची में दर्ज है। इस गुट के करीबी संबंध अल कायदा से रहे हैं। हक्कानी नेटवर्क का दबदबा अधिकांश पूर्वी अफगानिस्तान में है।

बीते दो दशकों में हुए बड़े हमलों, हत्याओं और अमेरिकी नागरिकों के अपहरणों के लिए इसी नेटवर्क को जिम्मेदार ठहराया जाता है। अमेरिका तो अब भी मानता है कि जनवरी 2020 में अगवा किया गया अमेरिकी कांट्रेक्टर मार्क फ्रेईश अब भी हक्कानी नेटवर्क के कब्जे में है।

हक्कानी नेटवर्क (फोटो- सोशल मीडिया)

इस नेटवर्क के लीडर सिराजुद्दीन हक्कानी को कार्यवाहक आंतरिक यानी गृह मंत्री बनाया गया है। सिराजुद्दीन के सिर पर अमेरिका ने एक करोड़ डॉलर का इनाम घोषित कर रखा है। वह एफबीआई की मोस्ट वांटेड लिस्ट में है।

सिराजुद्दीन के चाचा खलील हक्कानी को शरणार्थी मामलों का मंत्री घोषित किया गया है जबकि नेटवर्क के दो अन्य सदस्यों को भी अंतरिम सरकार में जगह दी गई है। खलील हक्कानी पर भी अमेरिका ने 50 लाख डॉलर का इनाम घोषित कर रखा है।

हक्कानी नेटवर्क को इतनी तरजीह इसलिए दी गई है क्योंकि इस नेटवर्क को पाकिस्तान और खाड़ी के देशों का मजबूत समर्थन हासिल है, ये अफगानिस्तान के पूर्वी हिस्से को कंट्रोल करता है। सबसे बड़ी बात ये कि हक्कानी नेटवर्क हिंसात्मक गतिविधियों में बहुत तेज व सक्रिय है। हक्कानी को बड़ी जिम्मेदारी देने के साथ महिलाओं और सिविल सोसाइटी को बहुत डरावना संदेश गया है।

महिलाओं को जगह नहीं (Afghanistan Women)

अंतरिम सरकार में किसी महिला को जगह नहीं दी गई है जबकि तालिबान नेताओं ने बीते दिनों में सार्वजनिक रूप से कहा था कि अफगानिस्तान में महिलाएं प्रमुख भूमिका निभाएंगी। लेकिन सरकार के गठन पर विचार विमर्श में महिलाओं को शामिल नहीं किया गया।

महिलाओं के प्रति तालिबान का नजरिया बदला नहीं है। ये बात महिलाओं के प्रदर्शनों के प्रति तालिबानी लड़ाकों के रुख से स्पष्ट है। प्रदर्शनकारी महिलाओं के ग्रुप को दो बार बलपूर्वक भगाया गया है।

लड़ाकों की फौज के आगे सिर झुकाया

तालिबान की ताकत उसके हजारों लड़ाके हैं। तालिबान के नेता इन लड़ाकों को नजरअंदाज या नाराज नहीं कर सकते। सो, ऐसा प्रतीत होता है कि तालिबान के हजारों लड़ाकों को खुश करने के लिए कैबिनेट के चेहरे चुने गए हैं।

तालिबान की फौज पुराने लीडरों के पीछे चलती है, ऐसे में अगर नए चेहरे कैबिनेट में शामिल किए जाते तो मुश्किल हो सकती थी। तालिबान कैडर को महिलाओं और नए लीडरों के हुक्म या नीतियां शायद ही मंजूर होतीं।

जहां तक व्यापक प्रतिनिधित्व की बात है ""तो अशरफ गनी या हामिद करजई की सरकारों में शामिल रहे किसी व्यक्ति को अंतरिम सरकार में इसलिए शामिल नहीं किया गया क्योंकि तालिबान के कैडर उन सरकारों को भ्रष्ट और विदेशी ताकतों का पिट्ठू मानते हैं।

इसलिए जिन सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए लड़ाकों को लगाया गया था, अब उन्हीं सरकारों के लोगों को भला कैसे शामिल किया जाता। तालिबानी लड़ाकों ने अपने उद्देश्यों के लिए जानें दी हैं। वे राजनेता नहीं हैं बल्कि निर्णय लेने वाले लोग हैं। उनकी उपेक्षा करके काम नहीं चल सकता है।

तालिबानी सरकार (फोटो- सोशल मीडिया)

एक बात और गौर करने वाली है कि कैबिनेट में पश्तूनों का बोलबाला है लेकिन तालिबान की फौज में अनेक जातीय समुदायों के लोग भरे हुए हैं, खासकर ताजिक और उज़्बेक लोगों की काफी बड़ी संख्या है। ऐसे में लड़ाकों को एकजुट तभी रखा जा सकता है कि समान उद्देश्यों की नीति से हटा न जाये क्योंकि लड़ाके तालिबान के समान विचार और नीति को ही फॉलो करते हैं।

अंतरिम सरकार की संरचना से लगता नहीं है कि उसे अंतरराष्ट्रीय सपोर्ट मिल पायेगा। अंतरिम सरकार में शामिल अधिकांश सदस्य पश्तून समुदाय के हैं। अफगानिस्तान के अन्य जातीय समूहों की भागीदारी न होने से भी सरकार को विदेशी समर्थन पाने में मुश्किल होगी। कहने को कैबिनेट में उज़्बेक मूल के अब्दुल सलाम हनाफ़ी को प्रधानमंत्री अखुंद का डेप्युटी बनाया गया तो है लेकिन इतने भर से अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व की मांग पूरी नहीं होती है।

अंतरिम सरकार के कैबिनेट की घोषणा करते वक्त बताया गया कि ये अस्थाई व्यवस्था है लेकिन ये अस्थायी इंतजाम कब तक रहेंगे ये नहीं बताया गया है। तालिबान पहले ही कह चुका है कि अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं रहेगी सो चुनावों की उम्मीद करना बेमानी होगा।

मदद के भरोसे

अफगानिस्तान की हालत ऐसी है कि वह विदेशी मदद के भरोसे चल रहा है। उसके बजट का 80 फीसदी हिस्सा अंतरराष्ट्रीय समुदाय से आता है । हाल के महीनों में अफगानिस्तान की माली हालत और भी बदतर हो गई है। इन दिनों रोजमर्रा जरूरत की चीजें कतर से पहुंचाई जा रही हैं लेकिन उनसे पूरे देश का काम नहीं चल सकता है।

कुल मिलाकर मौजूदा हालात में तालिबान अंतरराष्ट्रीय समुदाय से कट कर नहीं रह सकता है। विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तक़ी (Foreign Minister Amir Khan Muttaqin) को बनाया गया है जो तालिबान के पिछले शासन में भी महत्वपूर्ण पोजीशन पर थे। कैबिनेट में जिस तरह के चेहरे शामिल हैं उनको देखते हुए मुत्तक़ी का काम काफी कठिन साबित होने जा रहा है।

Vidushi Mishra

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